लोगों की राय

जीवनी/आत्मकथा >> अकबर

अकबर

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10540
आईएसबीएन :9781613016367

Like this Hindi book 0

धर्म-निरपेक्षता की अनोखी मिसाल बादशाह अकबर की प्रेरणादायक संक्षिप्त जीवनी...


हिंदी और संस्कृत के विकास और प्रचार के लिए अकबर ने एक अनुवाद विभाग स्थापित किया था। बदायूंनी से जिस महाभारत का फारसी अनुवाद करने को कहा गया था उसका प्रारूप हिंदी में था। अकबर बीच-बीच में अनुवाद को पढ़वाकर सुना करता था। एक प्रसंग में यह लगा कि बदायूंनी अनुवाद के जरिए इस्लाम के सिद्धांत महाभारत पर लाद रहा है तो अकबर ने व्यंग्य कसा-

कब तक मुझे भीगी पलकों के लिए झिड़कोगे,
अरे एक बार तो अपनी कजरारी आंखोंकी सहानुभूति दे दो।’


बीरबल अपनी वर्षगांठ पर और युद्ध-प्रयाण के समय अपना सर्वस्व दान कर देते थे। अंतिम लड़ाई में जाने से पूर्व भी उन्होंने अपनी सारी संपत्ति दान कर दी। उस युद्ध में वे मारे गए। उनकी मृत्यु का समाचार सुनकर अकबर को बहुत दुःख हुआ। वे एक-दूसरे के बाहरी प्राण थे। उसी समय अकबर ने यह सोरठा कहा-

दीन जान सब दीन, एक न दीनों दुसह दुख।
सो मो कहं अब दीन, कछुक न राख्यो बीरबल।


मधु सरस्वती, नारायण मिश्र, दामोदर भट्ट, रामतीर्थ और आदित्य नाम के हिंदू पंडित और सांस्कृतिक नेता अकबर के दरबार में आया करते थे। यह आश्चर्य का विषय है कि हिंदी भाषा की इतनी स्वीकृति होने के बावजूद अबुल फजल ने अपने संपूर्ण ग्रंथ अकबरनामा में ‘हिंदी’ या ‘हिंदवी’ का कहीं जिक्र नहीं किया हैं। हां, ‘देहलवी’ का नाम लिया है।

बाल्मीकि और व्यास की परंपरा अपने गौरवग्रंथ ‘रामचरितमानस’ में उतारने वाले लोकबंद्य तुलसीदास (1532-1623) अपने समय में अकबर से अधिक लोकप्रिय थे। अब्दुल रहीम खानखाना तुलसीदास का मित्र था और रामचरितमानस की प्रशंसा करते हुए उसने कहा था कि यह ग्रंथ ‘हिन्दुआन के वेद सम, तुरकहिं प्रगट कुरान’ है। ऐसे ग्रंथ का और उसके रचयिता का रहीम ने अकबर से जिक्र अवश्य किया होगा। पर अकबर और तुलसीदास की भेंट का कोई प्रमाण नहीं मिलता है। संभव है तुलसीदास के संतत्व और अकबर के राजत्व ने उन्हें एक दूसरे के दर पर जाने से रोका हो। तुलसीदास के लिए कहा जा सकता है कि राजसत्ता से अपने को श्रेष्ठ समझने का भाव साम्प्रदायिकता नहीं बल्कि साहित्यिक स्वाभिमान है। आत्मसम्मान सत्य का सम्मान है, अहंकार नहीं। कुंभनदास ने तो कहा भी था, ‘संत को सिकरी से का काम।’

0

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book