जीवनी/आत्मकथा >> अकबर अकबरसुधीर निगम
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धर्म-निरपेक्षता की अनोखी मिसाल बादशाह अकबर की प्रेरणादायक संक्षिप्त जीवनी...
अकबर ने विधवा विवाह को न्याय-संगत मान लिया। उसने अपने ही परिवार में ऐसा प्रयोग किया था। अकबर की सगी बहन बख्शी बानू बेगम का विवाह मिर्जा इब्राहीम से हुआ था। 1559 ई. में वह विधवा हो गई। उस समय अकबर की आयु मात्र 17 वर्ष की थी। उसने बहन का पुनर्विवाह मिर्जा सरफुद्दीन हुसैन से कर दिया।
बड़े दरबार के अवसर पर कई अन्य घोषणाएं की गईं। औषधि हेतु उपलब्धता के अतिरिक्त शराब के निर्माण और विक्रय पर रोक लगा दी गई। धर्म परिवर्तन करने की सबको स्वतंत्रता दे दी गई। वेश्याओं और भ्रष्टाचरण में संलग्न स्त्रियों को नगर के बाहर बसने का हुक्म दिया गया। यही नहीं, पुलिस को आदेश दिया गया कि वेश्वाओं के यहां जाने वाले या उन्हें अपने यहां बुलाने वाले लोगों के नाम दर्ज किए जाएं। बिना बादशाह की अनुमति के प्रांतीय सूबेदारों द्वारा किसी को प्राणदंड देने की मनाहीं कर दी गई। साम्राज्य के सभी मार्गों पर सराय बनाने, राजमहल में रोज दान-दक्षिणा देने, अस्पतालों की स्थापना करने, दीन दुखियों की देखभाल करने, भिक्षा-वृत्ति समाप्त करने और यथासंभव छोटे पक्षियों की रक्षा करने के आदेश दिए गए।
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समाज-सुधार की नव्य धारा
अकबर के दरबार में जेसुइट (कैथोलिक ईसाई) आते थे। उनका उल्लेख अकबरनामा में आया है। इससे लगता है कि अकबर की नज़रों में वे महत्तपूर्ण थे। एक जेसुइट ने अकबर को भावपूर्ण श्रंद्धांजलि देते हुए कहा है, ‘‘अपने आला दरबारियों के बीच वह इस दर्जा शान-शौकत से पुर था कि कोई उसके सामने सर उठाने की हिम्मत नहीं करता था पर निचले (दलित) वर्गों के बीच वह विनम्र और सौम्य रहता था, खुशी-खुशी उनकी बात सुनता था और उनकी अर्जियों पर गौर करता था। उसे उनके तोहफे लेकर खुशी होती थी-उनको हाथों में लेता और छाती से लगाता था। कुलीनों के शानदार तोहफों के साथ वह ऐसा कभी नहीं करता था।’’ और तो और, यह भी कहा जा सकता है कि झरोखा दर्शन (सुबह के वक्त प्रजा को दर्शन देने और उनकी अर्जियां लेने) की प्रथा मूलतः साधारण प्रजा से संवाद का रास्ता खुला रखने और बादशाह को गरीबों के रक्षक के रूप में पेश करने की तरकीब थी।
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