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जीवनी/आत्मकथा >> अकबर

अकबर

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10540
आईएसबीएन :9781613016367

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धर्म-निरपेक्षता की अनोखी मिसाल बादशाह अकबर की प्रेरणादायक संक्षिप्त जीवनी...


स्त्रियों के संबंध में अकबर के विचारों को कालक्रम में विकसित होते देखा जा सकता है। जब उसने संतों और धर्मशास्त्रियों से धर्म चर्चा के लिए 1575-76 में इबादतखाना बनवाया तो पहले-पहल जिन विषयों पर चर्चा हुई उनमें बहुपत्नी विवाह भी एक था। मुस्लिम धर्म में चार बीबियां रखना जायज़ है। अकबर ने स्वीकार किया, ‘‘जवानी में हम खुद को इस नियम से बंधा हुआ नहीं समझते थे और जितनी तादद में चाहते थे आजाद ख्यालात खानदानों की औरतों और रखैलों को जमा कर लेते थे। अब क्या किया जाए!’’ बहरहाल उसने आगे चलकर यह नियम बनाया कि एक व्यक्ति की एक ही पत्नी होनी चाहिए। पहली पत्नी के बांझ होने पर ही वह दूसरी शादी कर सकता है।

अकबर और सलीम दोनों के बाल-विवाह भी हुए थे। विवाह के समय दोनों की उम्र क्रमश 9 वर्ष व 14 वर्ष थी। कदाचित इसी अनुभव के आधार पर उसने कहा, ‘‘नाबालिग लड़की से शादी खुदाई कहर को दावत देती है क्योंकि शादी में जिस चीज (औलाद) की ख्वाहिश होती है वह दूर की बात होती है उसे (लड़की को) फौरी तौर पर भारी नुकसान होता है। यह बात एक ऐसे फिक़ा के तहत खास तौर पर परेशानकुन होती है जिसमें कोई स्त्री (अपने पति से काफी छोटी होने के सबब) विधवा होने पर दोबारा शादी नहीं कर सकती।’’

1582 ई. में बड़ा दरबार किया गया। इसमें कई मसले तय कर दिए गए। लड़के और लड़कियों के विवाह की उम्र क्रमशः 14 और 12 तय की गई जो 1592 ई. में क्रमशः 16 और 14 वर्ष तक बढ़ा दी गई। यह नियम हिंदू और मुस्लिम दोनों विधिशास्त्रों के विपरीत था जिनमें विवाह की आयु की कोई सीमा तय नहीं की गई है। बदायूनी के अनुसार 1595 ई. में कोतवाल को आदेश दिया गया कि साधारण जनता को शादियों की इज़ाजत वह दोनों पक्षों की आयु का निश्चय करने के बाद ही देगा। इससे ‘कोतवाल के लोगों, कलारो की बीबियों और गंदे जालिमों’ की जेबें काफी भरीं क्योंकि इन्हीं लोगों की तस्दीक पर शादियों के होने या न होने का दारोमदार था।

1591 ई. में बादशाह ने सती प्रथा का आंशिक निषेध कर दिया। उसने यह फरमान जारी किया कि कोई भी विधवा स्त्री अपनी इच्छा के विरुद्ध सती न कराई जाय। जो स्त्रियां गौने से पहले विधवा हो जाएं उन्हें तो कदापि सती न होने दिया जाय। राजा भगवानदास का चचेरा भाई जगमल अकबर की सेवा में रहते हुए मृत्यु को प्राप्त हुआ। उसकी विधवा को जबरदस्ती सती कराया जा रहा था। समय से इसकी सूचना अकबर को मिल गई। वह एक तीव्रगामी अश्व पर चिता-स्थल पर पहुंचा और विधवा का उद्धार किया। वहां उपस्थित सभी लोगों को कुछ समय के लिए कैदखाने में डाल दिया गया। लेकिन स्त्री मुक्ति की पहली आवाज़ मीरा ने उठाई थी। जनश्रुति के अनुसार उसके पति भोजराज 1521 से 1523 ई. के बीच किसी युद्ध में मारे गए। कुल परंपरा के अनुसार उसके जेठ राणा विक्रमादित्य ने मीरा से सती हो जाने के लिए कहा। बिना कोई शोर किए, बिना कोई लड़ाई किए हुए मीरा ने इतना ही कहा-नहीं, और राणा का सिर झुक गया।

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