जीवनी/आत्मकथा >> अकबर अकबरसुधीर निगम
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धर्म-निरपेक्षता की अनोखी मिसाल बादशाह अकबर की प्रेरणादायक संक्षिप्त जीवनी...
मतलब निकल गया तो ...
राजपूतों को संतुष्ट करने या उनसे मैत्री संबंध स्थापित करने की नीति में उजबेकों के दमन होने के बाद (1565-67) शीघ्र ही परिवर्तन आया। अकबर ने अब उनको अधीन करने के लिए आक्रामण नीति का सहारा लिया। चित्तौड़ के पतन (1568) को अकबर द्वारा इस्लाम की काफिरों पर विजय घोषित की गई। 9 मार्च 1575 को पंजाब स्थित अधिकारियों को अकबर की चित्तौड़ पर विजय की सूचना देने के लिए एक फतहनामा जारी किया गया जिसकी भाषा असहिष्णु और उत्तेजक भावो से परिपूर्ण थी। इस दस्तावेज की तुलना किसी कट्टरपंथी शासक द्वारा जारी किए गए दस्तावेज से की जा सकती है। अब्दुल कासिम नमकीन द्वारा मुन्शाते नमकीन में अकबर के एक अन्य फरमान को उद्धृत किया गया है जिसमें बिलग्राम के मुहत्सिब काज़ी अब्दुल्समद तथा कस्बे के अन्य अधिकारियों को ऐसा उपाय करने का निर्देश दिया गया ‘‘जिनसे उस परगने में मूर्ति पूजा रोकी जा सके तथा धर्मद्रोह की समाप्ति हो।’’ उल्लेखनीय है कि आमेर के कछवाहों के अलावा (जो 1562 ई. में अकबर की सेवा में आए) सभी राजपूतों ने अकबर की अधीनता चित्तौड़ के पतन के बाद स्वीकार की, उससे पहले नहीं। इस प्रकार 1562-67 का काल राजपूतों को मुगलों के पक्ष में प्रलोभित करने में असफल रहा जबकि यह काल हिंदुओं के प्रति अति उदार विचारों व सहिष्णु दृष्टिकोण का द्योतक था। 1567 ई. के बाद अकबर ने हिंदुओं के प्रति धार्मिक विषयों में काफी प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण अपनाया। 1575 ई. में तो जज़िया भी दोबारा लगा दिया गया। 1567-69 तक मुग़ल दरबार में धार्मिक असहिष्णुता के बावजूद राजपूत सरदारों ने स्वेच्छा से मुगलों की अधीनता स्वीकार की तथा मुग़ल उमरावर्ग में स्थान प्राप्त किया।
इस काल में राजपूतों के रुतबे तथा प्रभाव में तीव्रगति से वृद्धि हुई। इससे यह प्रतीत होता है कि जिन तथ्यों की वजह से राजपूतों ने अकबर की सेवा में आना स्वीकार किया वे अकबर के गैर मुस्लिमों के प्रति सहृदय दृष्टिकोण से प्रभावित नहीं हुए थे। इसका कारण यह था कि राजनीतिक मामलों में राजपूत सरदार धर्म को विषेष महत्व नहीं देते थे। उनके लिए धर्म की भूमिका नगण्य थी और राजदरबार की तत्कालीन विचारधारा राजपूतों के पक्ष में होने या न होने से उनके भौतिक जीवन पर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता था। मुग़ल राजनीतिक संकाय में उनकी स्थिति का निर्धारण धार्मिक सिद्धांतों व नियमों के आधार पर नहीं होता था।
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