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जीवनी/आत्मकथा >> अकबर

अकबर

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10540
आईएसबीएन :9781613016367

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धर्म-निरपेक्षता की अनोखी मिसाल बादशाह अकबर की प्रेरणादायक संक्षिप्त जीवनी...

मुगल-राज्य की मजबूरी-से थे राजपूत !

अकबर के राजपूतों से संबंध कई तथ्यों पर आधारित थे। मुगल साम्राज्य के स्थायित्व को तैमूरी प्रशासनिक कुलों के अलावा यहां के देशज अभिजात वर्ग से खतरा था। देशज अभिजात वर्ग के प्रतिनिधि राजपूत राजा अफगानों से मिलकर खतरा पैदा कर सकते थे। इसलिए अकबर ने राजपूत अभिजात वर्ग को मुग़ल राजनीतिक निकाय का हिस्सा बनाने का निश्चय किया था। इस कारण दोनों पक्षों को लाभ हुआ। देशज राजाओं को सत्ता में सहभागी बनने का मौका मिला। इससे मुग़ल उनकी शक्ति का विद्रोही तैमूरी अमीरों की महत्वाकांक्षाओं के प्रति संतुलित करने में उपयोग कर सकते थे। 1562 ई. में राजपूतों को अपनी ओर मिलाने के लिए आकर्षक शर्तें रखने का मुख्य कारण तूरानी अमीरों के प्रति अकबर की वितृष्णा थी। उमरा वर्ग में बड़ी संख्या तूरानी अधिकारियों की थी। इन्होंने 1562-67 के मध्यकाल में बराबर विद्रोह किए जिससे तूरानी अमीरों का बादशाह से अलगाव हो गया। अली कुली खां के नेतृत्व में उजबेक अमीरों ने विद्रोह किए। इनकी शक्ति कम करने के लिए अकबर ने खुरासानियों, भारतीय मुसलमानों तथा राजपूतों का सहयोग प्राप्त करने का प्रयास किया।

राजपूतों को अपनी सेवा में लेने के लिए अकबर ने उनके हितों के अनुकूल शर्तें रखीं। जैसे, एक सामान्य अमीर अपने पद तथा आय के लिए पूरी तौर पर बादशाह पर निर्भर था, किंतु राजपूत अधिकारी को बादशाह द्वारा प्रदत्त जागीर के अलाबा उसकी अपनी पैतृक जागीर पर भी अधिकार रहता था। उस जागीर के प्रशासन में बादशाह दख़ल नहीं देता था। इसके अतिरिक्त राजपूत अमीर के सैन्यदल में उसके अपने ही कुल-गोत्र के लोग होते थे। इस प्रकार इस सैन्यदल की निष्ठा राजपूत अमीर के प्रति ही होती थी हालांकि सैन्यदल जुटाने के साधन बादशाह द्वारा मुहैया कराए जाते थे।

अकबर ने किसी एक कुल के कई अधिकारियों को एक ही स्थान पर केंद्रित न होने देने की सतर्क नीति अपनाई थी। परंतु इस संबंध में राजपूत, कुछ सीमा तक, अपवाद थे। यह नीति उस स्थिति का प्रतिफल थी जो हिंदू राजाओं ने गत 300 वर्षों में प्राप्त की थी जबकि मुकद्दम (गांवों के मुखिया) और चैधरी (गांव का जमींदार) ग्रामीण स्तर पर धीरे-धीरे राजस्व वसूली के तंत्र में एकान्वित हो गए थे और शासन के निम्न स्तरों पर उन्होंने प्रमुख स्थिति प्राप्त कर ली थी। अकबर जानता था कि जमीदारों का, जो संख्या में 200-300 के लगभग थे और दुर्गपति भी थे, उन्मूलन करना कठिन था। अकबर को भलीभांति ज्ञात था कि जमींदारों और स्वायत्तशासी राजाओं की शक्ति इस हद तक बढ़ गई है कि उत्तरी भारत में केन्द्रीकृत राज्य की स्थापना उन लोगों को साम्राज्य में व्यापक हिस्सेदार बनाए जाने की स्थिति में ही संभव है।

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