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धर्म-निरपेक्षता की अनोखी मिसाल बादशाह अकबर की प्रेरणादायक संक्षिप्त जीवनी...
1576 ई. में अकबर के सेनापति राजा मानसिंह और राणा प्रताप के बीच हल्दी घाटी नामक स्थान पर भीषण युद्ध हुआ। राणा की पराजय हुई। वह जिस लक्ष्य के लिए लड़ रहा था वह अर्थहीन हो गया क्योंकि राजपूताना की अधिकाश्ंा रियासतें मुग़लों की अधीनता में आ चुकी थीं। मुग़लों ने डूंगरपुर, बांसबाड़ा तथा सिरोही की रियासतों को रौंद ड़ाला जो मेवाड़ के आश्रित और राणा के समर्थक राज्य थे। फिर भी राणा ने भील सरदारों की मदद से अपना संघर्ष जारी रखा। उसने गुरिल्ला युद्ध-पद्धति को अपनाया जो बाद में दकनी सेनापति मलिक अम्बर और शिवाजी द्वारा औरंगजेब के विरुद्ध अपनाई गई। बिहार, बंगाल, पंजाब में विद्रोह होने के कारण अकबर की व्यस्तता उधर बढ़ गई और राणा पर दबाव कम हो गया। इस स्थिति का लाभ उठाकर राणा ने अपने राज्य के बहुत से भागों पर और साथ ही कुंभलगढ़ व चित्तौड़ के समीपवर्ती इलाकों पर भी अधिकार कर लिया। राणा ने डूंगरपुर के निकट छावन्द नामक स्थान पर अपनी नई राजधानी बनाई। न जाने किस संवेदन शक्ति ने अकबर को राणा प्रताप को पूर्णतया नष्ट न करने पर बाध्य किया। 1597 ई. में 51 वर्ष की आयु में राणा की मृत्यु हो गई।
राणा प्रताप के साथ हम थोड़ा आगे निकल आए हैं। पीछे के परिदृश्य पर भी दृष्टिपात कर लें।... 1562 ई. में मारवाड़ के रावल मालदेव की मृत्यु होने के बाद वहां के उत्तराधिकारियों में गद्दी के लिए संघर्ष होने लगा। इस पर अकबर ने मारवाड़ को अपने प्रत्यक्ष नियंत्रण में लेने का निश्चय किया। ऐसा करने का एक कारण यह भी था कि मुग़लों का गुजरात को रसद पहुंचने का कार्य मारवाड़ की राजधानी जोधपुर से होकर जाता था। अंततः अकबर ने जोधपुर का राज्य उदय सिंह को सौंप दिया। अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए उदय सिंह ने अपनी पुत्री जगत गोसाई उर्फ जोधाबाई का विवाह अकबर के सबसे बड़े पुत्र सलीम (जहांगीर) से कर दिया। इस प्रकार सोलहवीं शताब्दी के अंत तक मुगलों की विजय पताका, मेवाड़ के छोटे से हिस्से को छोड़कर, सारे राजस्थान पर फहराने लगी।
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