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जीवनी/आत्मकथा >> अकबर

अकबर

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10540
आईएसबीएन :9781613016367

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धर्म-निरपेक्षता की अनोखी मिसाल बादशाह अकबर की प्रेरणादायक संक्षिप्त जीवनी...


तत्समय राणा उदयसिंह मेवाढ़ का शासक था। शैशवावस्था में उसे पन्ना धाय ने अपने बच्चे की बलि देकर बचाया था। राजपूतों का वह बहुत प्रिय था, अतः उन्होंने सर्वसम्मति से उदयसिंह को किसी सुरक्षित स्थान पर भेजने का निर्णय किया। राणा ने इस निर्णय को स्वीकार कर लिया और दुर्ग की रक्षा का भार 16 वर्षीय पत्ता को सौंपकर उदयगिरि की पहाडियों की ओर चला गया।

अकबर ने बड़ी भयंकरता के साथ दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। दुर्ग के रक्षक आत्म-रक्षा का प्रयत्न कर रहे थे। बहुत से अफगान, जो बंदूकों तथा तोपों के चलाने में सिद्धहस्त थे, दुर्ग की रक्षा में संलग्न थे। किले से दागी गई तोप एक गोला अकबर के पास गिरा। 20 आदमी मारे गए। वह स्वयं बच गया। 1545 ई. में कालिंजर दुर्ग से ऐसा ही एक गोला शेरशाह सूरी के पास गिरा था परंतु वह अकबर की तरह भाग्यशाली नहीं था। पहले घायल हुआ, बाद में मर गया। इस युद्ध में अकबर ने तोपों और बारूदी सुरंगों का प्रयोग किया। दुर्ग की प्राचीर के नीचे दो ऐसी बड़ी सुरंगें बनवाई गईं थीं जो एक दूसरे से मिली हुई थीं। एक में 120 मन (45 क्विंटल) और दूसरे में 80 मन (30 क्विंटल) बारूद भरा था। 16 दिसम्बर 1567 को बारूद में आग लगाई गई तो दुर्ग नींव से उखड़कर हवा में उड़ गया। वहां तैनात सैनिकों के परखचे उड़ गए। जो उन्हें रोकने के लिए बढ़े वे भी मारे गए। विस्फोट की ध्वनि 85 कि.मी. से अधिक दूर तक सुनाई दी। शाही सेना के भी 200 लोग हलाक हुए। पर्वत की घाटियों में छुपे 40 लोग बारूद की धमक गिरने वाली मिट्टी और पत्थरों से दबकर मर गए। पत्ता मारा गया। उसके स्थान पर उसकी माता और पत्नी ने लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की। दुर्ग के 8 हजार प्रधान राजपूत रक्षक युद्ध करते हुए खेत रहे। इनके परिवारों की तीन हजार महिलाएं ‘जौहर’ में जलकर, अपने विश्वासानुसार, परम ज्योति में विलीन हो गईं। (प्रसंगतः ‘जौहर’ इब्रानी भाषा के एक शब्द ‘जोहर’ से निकला है जिसका अर्थ है ‘ज्योति’)। 40 हजार किसान सक्रिय रूप से राजपूत सैनिकों की सहायता कर रहे थे। वे घेर लिए गए। अकबर ने उनका वध करने की आज्ञा दी। इनमें से 30 हजार किसान मौत के घाट उतार दिए गए। एक चट्टान पर खड़े होकर, स्वार्थजनित हृदयहीनता से, अकबर ने यह कत्लेआम स्वयं देखा। 13 अगस्त 1303 को सुल्तान अलाउद्दीन ने 6 महीने के घेरे के बाद यह दुर्ग जीता था तब उसने किले में उपस्थित एक भी किसान को नहीं मरवाया था। 28 फरवरी 1568 को दुर्ग पर अकबर का अधिकार हो गया। बादशाह ने जीत के नगाड़े बजवाए और वहीं से ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जियारत करने चला गया।

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