जीवनी/आत्मकथा >> अकबर अकबरसुधीर निगम
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धर्म-निरपेक्षता की अनोखी मिसाल बादशाह अकबर की प्रेरणादायक संक्षिप्त जीवनी...
विवाह सारंगपुर में ही संपन्न हो गया। अकबर ने मानसिंह को शाही सेना में ले लिया। अपनी नव वधू को लेकर उसने शीघ्रता से आगरे को प्रस्थान किया और तीन दिन में ही लम्बी दूरी पार कर ली। स्त्री को लेकर अकबर की उद्धतता पर अबुल फजल ने कटाक्ष भी किया है।
साम्राज्य की स्थापना के लिए बड़े पैमाने पर जो राजकुलों की मर्यादा का जो हरण हुआ उसमें सबसे पहले गोंडवाना (आधुनिक मध्य प्रदेश के उत्तरी भाग में स्थित) में रानी दुर्गावती से अकबर की सेना का युद्ध उल्लेखनीय है। यह राज्य, जिसकी राजधानी चैरागढ़ थी, अति सम्पन्न और सबल राजपूत राज्य था और बड़ी आदर की दृष्टि से देखा जाता था। दुर्भाग्य से इन दिनों दुर्गावती का अल्पवयस्क पुत्र सिंहासन पर था और शासन का वास्तविक संचालन रानी दुर्गावती के हाथों में था जो महोबा के चंदेल राजा की पुत्री थी। रानी की सेना में 20 हजार अच्छे घुड़सवार और एक हजार हाथी थे। रूपवती रानी स्वयं बंदूक और तीर चलाने में कुशल थी। गोंडवाना का राज्य मुगल साम्राज्य का सीमावर्ती राज्य था। अतः संघर्ष अनिवार्य था। अकबर की ओर से कड़ा के मुग़ल सूबेदार ने बड़ी सेना लेकर गोंडवाना का राज्य हड़पने के लिए आक्रमण किया था। विशाल शाही सेना देखकर रानी के अधिसंख्य सैनिक भाग खड़े हुए। रानी ने हाथी पर बैठकर बची हुई सेना को साथ लेकर भयंकर युद्ध किया। रानी की पूरी सेना मारी गई। वह स्वयं तीरों से घायल हो गई। जब उसने देखा कि शत्रु उसे बंदी बना लेंगे तो उसने आत्मघात कर लिया।
भयानक रक्तपात का अनोखा उदाहरण चित्तौड़ पर अकबर का आक्रमण था। यद्दपि कुछ राजपूत राजाओं ने अकबर का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया था परंतु मेवाड़ के शासकों ने मुगलों के सामने कभी सिर नहीं झुकाया और निरंतर अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करते रहे। यह अकबर की साम्राज्यवादी नीति के विरुद्ध था। मेवाड़ राजपूताने के मध्य में स्थित था अतएव राजपूताने के अन्य राजपूत राज्यों को भी उसके स्वतंत्रता-संग्राम से प्रोत्साहन मिलता था और इससे अकबर को अन्य राजपूती रियासतों को कब्जे में रखने में कठिनाई होती थी। अतः चित्तौड का नतमस्तक होना जरूरी था।
30 अगस्त 1567 को अकबर ने मेवाड़ विजय के लिए आगरा से प्रस्थान किया। उसकी सेनाएं बड़ी तेजी से बढ़ीं और शिवपुर, कोटा व मंडलगढ़ के दुर्गों पर कब्जा करते हुए मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ की ओर अग्रसर हुई और उसके दुर्ग का घेरा डाल दिया।
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