जीवनी/आत्मकथा >> अकबर अकबरसुधीर निगम
|
0 |
धर्म-निरपेक्षता की अनोखी मिसाल बादशाह अकबर की प्रेरणादायक संक्षिप्त जीवनी...
बैरम खां का पतन
12 मार्च 1560 को पांचवां इलाही वर्ष प्रारंभ हुआ। अकबर ने अपने राज्याभिषेक से एक नया संवत चलाया था जिसका नाम ‘तारीखे इलाही’ यानी ईश्वरीय संवत रखा गया। ईरानी महीने (मुहर्रम, सफ़र, रबीउल अब्बल, रबीउल आखिर, जमादी एक, जमादी दो, रज़ब, शाबान, रमज़ान, शौआल, जीक़ार और जूलहिज्ज) ही इस संवत के महीने माने गए। अकबर ने अधिमास के दिन निकलवा दिए और चन्द्र मास के स्थान पर सौर मास रखा। इलाही संवत का प्रारंभ 992 हिज्री (1584 ई.) से हुआ था परंतु अकबर के राज्यकाल में, उसके राज्याभिषेक के दिन से जो घटनाएं घटीं उनको फिर से इलाही संवत के अनुसार लिखा गया। प्रथम इलाही संवत में अकबर ने कई कर समाप्त कर दिए।
इस समय बैरम खां अपने को अद्वितीय पुरुष मानने लगा था। वह समझता था कि उसकी जैसी प्रशासनिक क्षमता, कार्यपारायणता, सच्चाई और साहस किसी में नहीं है। चाटुकारों की बातें सुनकर वह मानने लगा था कि उसके बिना मुगल शासन नहीं चल सकता। इस कारण वह निंदापरक कार्य करने लगा। वह भूल गया कि प्रशंसा से संचेतना और सावधानी धरती सूंघने लगती है।
19 मार्च 1560 को अकबर शिकार के बहाने आगरे से निकला और 27 मार्च को दिल्ली पहुंच गया। वहां उसने एक फरमान निकालकर बैरम खां को पद-च्युत कर दिया। शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली। जब बैरम खां को इसकी सूचना मिली तो वह आश्चर्यचकित रह गया। उसने विद्रोह किया, शाही सेना ने उसे परास्त कर दिया। वह राख से ढ़की आग की तरह निष्प्रभ हो चुका था। अंततः अक्टूबर 1560 में उसने आत्मसमर्पण कर दिया।
उसने बादशाह से मिलने की प्रार्थना की। अकबर ने उसे इज़ाजत दे दी क्योंकि वह उसकी पिछली सेवाएं भूला नहीं था। उसके आने पर अकबर ने उसे गले से लगाया और अपनी दाहिनी ओर बैठाया जहां प्रधानमंत्री का स्थान होता है। अपनी पोशाक दी। शर्म के कारण बैरम खां गले में जो रुमाल डालकर आया था अकबर ने उसे हटाया। उसने बैरम को कई विकल्प दिए जिसमें जागीर देना भी शामिल था, परंतु बैरम खां ने मक्का जाना स्वीकार किया। अकबर ने तरसून मुहम्मद खां और हाजी मुहम्मद खां सीसतानी को आदेश दिया कि वे बैरम खां को सम्राज्य की सीमा नागौर तक सुरक्षित पहुंचा दें।
अकबर द्वारा भेजे गए सुरक्षा-अफसरों के लौटने के बाद जब बैरम खां गुजरात के पास पतन नामक स्थान पर पहुंचा तो 31 जनवरी 1561 को मुबारक खां लोहानी नामक एक अफगान ने, जिसके पिता की हत्या बैरम खां ने की थी, उसे पीछे से छुरा भोंककर, मार डाला। लोहानी के दूसरे साथी ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। बैरम खां की बीबी और चार वर्षीय बालक रहीम किसी प्रकार बचते-बचाते अकबर के पास पहुंचे। उसने उन दोनों को समर्थ संरक्षण दिया और बालक रहीम का पालन-पोषण किया।
0
|