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जीवनी/आत्मकथा >> अकबर

अकबर

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10540
आईएसबीएन :9781613016367

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धर्म-निरपेक्षता की अनोखी मिसाल बादशाह अकबर की प्रेरणादायक संक्षिप्त जीवनी...


तर्दी बेग और पीर मुहम्मद शर्बानी भागकर अकबर के पास पहुंचे। बैरम खां और तर्दी बेग एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते थे। एक सुन्नी, दूसरा शिया। बैरम खां ने तर्दी बेग को अपने खेमे में बुलवाया और उसका वध करवा दिया। बाद में अपने कृत्य का औचित्य सिद्ध करते हुए उसने बादशाह से माफी मांग ली। अकबर माफी देने के लिए मजबूर था।

अली कुली खां के नेतृत्व में दस हजार अश्वारोहियों की सेना हेमू को कुचलने के लिए भेजी गई। घमासान युद्ध शुरू हो गया। हालांकि हेमू की असावधानी के कारण उसका तोपखाना अली कुली खां के हाथ लग गया था तो भी हेमू अपने पांच सौ जुझारू हाथियों के बल पर विजय की ओर बढ़ रहा था। तभी शाही सेना की ओर से सनसनाता हुआ एक तीर आया और हेमू की एक आंख में घुसकर पार हो गया। वह बेहोश होकर हौदे में गिर पड़ा। अफगान सेना उसे मरा मानकर भागने लगी। मैदान शाही सेना के हाथ रहा।

पानीपत के दूसरे युद्ध में हेमू की हार का हिंदुस्तानी इतिहास पर बड़ा व्यापक प्रभाव पड़ा। अकबर की इस विजय से दिल्ली तथा आगरे पर मुगलों की सत्ता पुनः स्थापित हो गई और उसके लिए शेष भारत की विजय का मार्ग प्रशस्त हो गया। इतिहास ने स्वयं को फिर दोहराया। तीस वर्ष पहले अकबर के पितामह बाबर ने पानीपत के ही (प्रथम) युद्ध में इब्राहीम लोदी को परास्त कर हिंदुस्तान में मुगल वंश की नींव रखी थी।

दिल्ली तथा आगरे पर अपना अधिकार स्थापित करने के बाद बैरम खां ने 7 दिसम्बर 1556 को बादशाह के साथ सिकंदर सूर का सामना करने के लिए पंजाब को प्रस्थान किया। इसी प्रयाण के दौरान 17 दिसम्बर 1556 को बैरम खां की पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम अब्दुल रहीम रखा गया, जो बाद में खानखाना (सेनापति) बना और कवि के रूप में प्रसिद्ध हुआ। रहीम की मां की बहन से अकबर का ब्याह हुआ था। अवसर पाकर सिकंदर सूर शिवालिक पहाड़ियों से निकल आया था और पंजाब में लगान वसूल करने लगा था। जब उसे शाही सेना के आने का पता चला तब उसने मानकोट के दुर्ग में अपने को बंद कर लिया। वह चार किलों का सम्मिलित दुर्ग था। शाही सेना ने दुर्ग को घेर लिया। इस घेरे में माहिम अनगा के बेटे आदम खां ने बड़ी बहादुरी दिखाई। दुर्ग का घेरा 6 महीने तक चला। अंत में सिकंदर सूर ने निराश होकर इस शर्त पर आत्म-समर्पण की पेशकश की कि उसे बिहार में कोई जागीर दे दी जाए। यह शर्त स्वीकार कर ली गई। फलतः उसने मानकोट दुर्ग मुगलों को समर्पित कर दिया और बिहार चला गया जहां कुछ समय बाद उसका निधन हो गया। इसी के साथ सूर वंश का अवसान हो गया।

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