संभोग से समाधि की ओर
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संभोग से समाधि की ओर...
उसने कहा, तुम मुझे और काट लो तो मेरी इस पीठ से नाव बन जाएगी और मैं बहुत
धन्य होऊंगा कि मैं तुम्हारी नाव बन सकूं और तुम्हें दूर देश ले जा सकूं।
लेकिन तुम जल्दी लौट आना, और सकुशल लौट आना। मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा।
और उसने आरे से उस वृक्ष को काट डाला। तब वह एक छोटा-सा ठूंठ रह गया। और वह
दूर यात्रा पर निकल गया। और वह ठूंठ भी प्रतीक्षा करता रहा कि वह आए आए।
लेकिन अब उसके पास कुछ भी नहीं है देने को। शायद वह नहीं आएगा, क्योंकि
अहंकार वही आता है, जहां कुछ पाने को है। अहंकार वहां नहीं जाता, जहां कुछ
पाने को नहीं है।
मैं उस ठूंठ के पास एक रात मेहमान हुआ था, तो वह ठूंठ मुझसे बोला कि वह मेरा
मित्र अब तक नहीं आया! और मुझे बड़ी पीड़ा होती है कि कहीं नाव डूब न गई हो,
कहीं वह भटक न गया हो, कहीं किसी दूर किनारे पर विदेश में कहीं भूल न गया हो,
कहीं वह डूब न गया हो, कहीं वह समाप्त न हो गया हो! एक खबर भर कोई मुझे ला
दे; अब मैं मरने के करीब हूं। एक खबर भर आ जाए कि वह सकुशल है, फिर कोई बात
नहीं! फिर सब ठीक है। अब तो मेरे पास देने को कुछ भी नहीं है, इसलिए बुलाऊं
तो भी शायद वह नहीं आएगा, क्योंकि वह लेने की भाषा समझता है।
अहंकार लेने की भाषा समझता है। प्रेम देने की भाषा है।
इससे ज्यादा और कुछ भी मैं नहीं कहूंगा।
जीवन एक ऐसा वृक्ष बन जाए और उस वृक्ष की शाखाएं अनंत तक फैल जाएं। सब उसकी
छाया में हों और सब तक उसकी बाहें फैल जाएं तो पता चल सकता है कि प्रेम क्या
है।
प्रेम कोई शास्त्र नहीं है, न कोई परिभाषा है। न प्रेम का कोई सिद्धान्त है
तो मैं बहुत हैरानी में था कि क्या कहूंगा आपसे कि प्रेम क्या है? तो बताना
मुश्किल है। आकर बैठ सकता हूं-और अगर मेरी आंखों में वह दिखाई पड़ जाए तो
दिखाई पड़ सकता है, अगर मेरे हाथों में दिखाई पड़ जाए तो दिखाई पड़ सकता है। मैं
कह सकता हूं यह है प्रेम।
लेकिन प्रेम क्या है? अगर मेरी आंख में न दिखाई पड़े, मेरे हाथ में न दिखाई
पडे, तो शब्द में तो बिल्कुल भी दिखाई नहीं पड़ सकता है कि प्रेम क्या है!
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और
अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार
करें।
'संभोग से समाधि की ओर'
भारतीय विद्या भवन बम्बई
7 अगस्त 1968
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