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संभोग से समाधि की ओर

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संभोग से समाधि की ओर...


दूसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं। और वह दूसरा सूत्र भी संस्कृति ने, आज तक की सभ्यता ने और धर्मों ने हमारे भीतर मजबूत किया है। दूसरा सूत्र भी स्मरणीय है, क्योंकि पहला सूत्र तो काम की ऊर्जा को प्रेम बना देगा। और दूसरा सूत्र द्वार की तरह रोके हुए है उस ऊर्जा को बहने से-वह बह नही पाएगी।

वह दूसरा सूत्र है मनुष्य का यह भाव कि 'मै हूं' 'इगो', उसका अहंकार, कि मैं हूं। बुरे लोग तो कहते हैं कि मै हूं। अच्छे लोग और जोर से कहते हैं कि मैं हूं-और मुझे स्वर्ग जाना है और मोक्ष जाना है और मुझे यह करना है और मुझे वह करना है। लेकिन 'मैं'-वह 'मैं' खड़ा हुआ है वहां भीतर।

और जिस आदमी का 'मैं' जितना मजबूत हैं, उतना ही उस आदमी की सामर्थ्य दूसरे से संयुक्त हो जाने की कम होती है। क्योंकि 'मैं' एक दीवाल है, एक घोषणा है कि 'मैं' हूं। 'मैं' की घोषणा कह देती है; तुम तुम हो, मैं मैं हूं। दोनों के बीच फासला है। फिर मै कितना ही प्रेम करूं और आपको अपनी छाती से लगा लूं, लेकिन फिर भी हम दो है। छातियां कितनी ही निकट आ जाएं, फिर भी बीच में फासला है-मैं मैं हूं, तुम तुम हो। इसलिए निकटतम अनुभव भी निकट नहीं ला पाते। शरीर पास बैठ जाते हैं आदमी दूर-दूर बने रह जाते है। जब तक भीतर 'मैं' बैठा हुआ है, तब तक 'दूसरे' का भाव नष्ट नही होता।

सार्त्र ने कही एक अद्भुत वचन कहा है। कहा है कि 'दी अदर इज हेल'। वह जो दूसरा है, वही नरक है। लेकिन सार्त्र ने यह नहीं कहा कि 'व्हाई दी अदर इज अदर', वह दूसरा 'दूसरा' क्यों है? वह दूसरा 'दूसरा' इसलिए है कि मैं 'मैं' हूँ। और जब तक मैं 'मै' हूं तब तक दुनिया में हर चीज दूसरी है, अन्य है, भिन्न है। और जब तक भिनता है, तब तक प्रेम का अनुभव नहीं हो सकता।

प्रेम है एकात्म का अनुभव।

प्रेम है इस बात का अनुभव कि गिर गई दीवाल और दो ऊर्जाएं मिल गई और संयुक्त हो गई।
प्रेम है इस बात का अनुभव कि एक व्यक्ति और दूसरे व्यक्ति की सारी दीवालें गिर गई और प्राण संयुक्त हुए, मिले और एक हो गए।
जब यही अनुभव एक व्यक्ति और समस्त के बीच फलित होता है, तो उस अनुभव को मैं कहता हूं-परमात्मा। और जब दो व्यक्तियों के बीच फलित होता है तो मैं उसे कहता हूं-प्रेम।

अगर मेरे और किसी दूसरे व्यक्ति के बीच यह अनुभव फलित हो जाए कि हमारी दीवाले गिर जाएं, हम किसी भीतर के तल पर एक हो जाएं, एक संगीत, एक धारा एक प्राण, तो यह अनुभव है प्रेम।
और ऐसा ही अनुभव मेरे और समस्त के बीच घटित हो जाए कि मैं विलीन हो जाऊं और सब और मैं एक हो जाऊं तो यह अनुभव है परमात्मा।

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