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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

पाँचवाँ बयान


मायारानी के सिपाही जो दोनों नकाबपोशों को गिरफ्तार करने आये थे धनपत को लिए हुए बाग के पहिले दर्जे की तरफ रवाना हुए, जहाँ वे रहा करते थे, मगर वे इच्छानुसार अपने ठिकाने न पहुँच सके, क्योंकि बाग के दूसरे दर्जे के बाहर निकलने का रास्ता मायारानी की कारीगरी से बन्द हो गया था। ये दरवाज़े तिलिस्मी और बहुत ही मजबूत थे और इनका खोलना या तोड़ना कठिन ही नहीं, बल्कि असम्भव था। पाठकों को याद होगा कि बाग के दूसरे दर्जे और पहिले दर्जे के बीच में एक बहुत लम्बी-चौड़ी दीवार थी, जिस पर कमन्द लगाकर चढ़ना असम्भव था और सीढ़ियों के जरिये उस दीवार पर चढ़ और उसे लाँघकर ही एक दर्जे से, दूसरे दर्जे में जाना होता था। इस समय जो दरवाज़ा मायारानी ने तिलिस्मी रीति से बन्द किया है, इसी के बाद वह दीवार पड़ती थी, जिसे लाँघकर सिपाही लोग पहिले दर्जे में जाते थे। उस दीवार पर चढ़ने के लिए जो सीढ़ियाँ थीं, वे लोहे की थीं और इस समय दोनों तरफ की सीढ़ियाँ दीवार के अन्दर घुस गयी थीं, इसलिए दीवार पर चढ़ना एक दम असम्भव हो गया था।

दरवाज़े को तिलिस्मी रीति से बन्द देख सिपाही लोग समझ गये कि यह मायारानी की कार्रवाई है। इसलिए उन लोगों के दिल में डर पैदा हुआ और वे सोचने लगे कि कहीं ऐसा न हो कि मायारानी हम लोगों को इसी बाग में फँसाकर मार डाले, क्योंकि आखिर वह तिलिस्म की रानी है, मगर यह विचार उन लोगों के दिल में ज्यादे देर तक न रहा, क्योंकि राजा गोपालसिंह के साथ दगा किये जाने का जो हाल नकाबपोशों की जुबानी सुना था, उस पर उन लोगों को पूरा-पूरा विश्वास हो गया था, और इसी सबब से गुस्से के मारे उन सभों की अवस्था बिल्कुल ही बदली हुई थी।

आखिर धनपत को साथ लिये हुए वे सिपाही यह सोचकर पीछे की तरफ लौटे कि उस चोर दरवाज़े की राह से बाहर निकल जाँयगे, जिस राह से दोनों नकाबपोश बाग के अन्दर घुसे थे, मगर उस ठिकाने पहुँचकर वे लोग बहुत ही घबड़ाये और ताज्जुब करने लगे, क्योंकि उन्हें वह खिड़की कहीं नजर न आयी। हाँ, एक निशान दीवार में जरूर पाया जाता था, जिससे यह कहा जा सकता था कि शायद इसी जगह वह खिड़की रही होगी। यह निशान भी मामूली न था, बल्कि ऐसा मालूम होता था कि दीवार वाले चोर दरवाज़े पर फौलादी चादर जड़ दी गयी है। अब उन सिपाहियों को पहिले से भी ज्यादे तरद्दुद हुआ, क्योंकि सिवाय उन दोनों रास्तों के बाग के बाहर निकलने का कोई और जरिया न था। एक बार उन सिपाहियों के दिल में यह भी आया कि मायारानी की तरफ चलना चाहिए, मगर खौफ से ऐसा करने की हिम्मत न पड़ी।

उस समय दिन घण्टे-भर से ज्यादे चढ़ चुका था। सिपाही लोग क्रोध की अवस्था में भी तरद्दुद और घबराहट से खाली न थे और खड़े-खड़े सोच ही रहे थे कि किधर जाना और क्या करना चाहिए कि इतने ही में सामने से लीला आती हुई दिखायी पड़ी। जब वह पास पहुँची तो सिपाहियों की तरफ देखकर ऊँची आवाज़ में बोली, "तुम लोग अपनी जान के दुश्मन क्यों हो रहे हो? क्या जमानिया राज्य के नौकर होकर भी इस बात को भूल गये कि मायारानी एक भारी तिलिस्म की रानी हैं, और जो चाहे कर सकती हैं? दो-चार सौ आदमियों को बर्बाद कर डालना, उनके आगे एक अदना काम है। अफसोस, ऐसे मालिक के खिलाफ होकर तुम अपनी जान बचाया चाहते हो। याद रक्खो कि इस बाग में भूखे-प्यासे मर जाओगे पर तुम्हारे किये कुछ भी न होगा। मैं तुम लोगों को समझाती हूँ और कहती हूँ कि अपने मालिक के पास चलो और उनसे माफी माँगकर अपनी जान बचाओ।"

इसी तरह की ऊँच-नीच की बहुत-सी बातें लीला उन सिपाहियों से देर तक कहती रही और सिपाही लोग भी लीला की बात पर गौर कर ही रहे थे कि यकायक बायीं तरफ से एक शंख के बजने की आवाज़ आयी, घूमकर देखा तो वे ही दोनों नकाबपोश दिखायी पड़े, जो हाथ के इशारे से उन सिपाहियों को अपनी तरफ बुला रहे थे। उन्हें देखते ही सिपाहियों की अवस्था बदल गयी और उनके दिल के अन्दर उम्मीद, रंज, डर और तरद्दुद का चर्खा तेजी के साथ घूमने लगा। लीला की बातों पर जो कुछ सोच रहे थे, उसे छोड़ दिया और धनपत को साथ लिये हुए, इस तरह दोनों नकाबपोशों की तरफ बढ़े, जैसे प्यासे पंसाले (पौसरे) की तरफ लपकते हैं।

जब उन दोनों नकाबपोशों के पास पहुँचे तो एक नकाबपोश ने पुकार कर कहा, "इस बात से मत घबराओ कि मायारानी ने तुम लोगों को मजबूर कर दिया और इस बाग के बाहर जाने लायक नहीं रक्खा। आओ हम तुम सभों को इस बाग के बाहर कर देते हैं, मगर इसके पहिले तुम्हें एक ऐसा तमाशा दिखाया चाहते हैं, जिसे देखकर तुम बहुत खुश हो जाओगे और हद से ज्यादे बेफिक्री तुम लोगों के भाग में पड़ेगी, मगर यह तमाशा हम एकदम से सभों को नहीं दिखाया चाहते। मैं एक कोठरी में (हाथ का इशारा करके) जाता हूँ, तुम लोग बारी-बारी से पाँच-पाँच आदमी आओ और अद्भुत, अद्वितीय, अनूठा तथा आश्चर्यजनक तमाशा देखो।"

इस समय दोनों नकाबपोश जिस जगह खड़े थे उसके पीछे की तरफ एक दीवार थी, जो बाग के दूसरे और तीसरे दर्जे की हद को अलग कर रही थी, और उसी जगह पर एक मामूली कोठरी भी थी। बात पूरी होते ही दोनों नकाबपोश पाँच सिपाहियों को अपने साथ आने के लिए कहकर उस कोठरी के अन्दर घुस गये। इस समय इन सिपाहियों की अवस्था कैसी थी, इसे दिखाना जरा कठिन है। न तो इन लोगों का दिल उन दोनों नकाबपोशों के साथ दुश्मनी करने की आज्ञा देता था, और न यही कहता था कि उन दोनों को छोड़ दो, और जिधर जायें जाने दो।

जब दोनों नकाबपोश कोठरी के अन्दर घुस गये तो उसके बाद पाँच सिपाही जो दिलावर और ताकतवर थे, कोठरी में घुसे और चौथाई घड़ी तक उसके अन्दर रहे। इसके बाद जब वे उस कोठरी के बाहर निकले, तो उनके साथियों ने देखा कि उन पाँचों के चेहरे से उदासी झलक रही है, आँखों से आँसू की बूँदें टपक रही हैं और सिर झुकाये अपने साथियों की तरफ आ रहे हैं। जब पास आये तो उन पाँचों की अवस्था एकदम बदल जाने का सबब सिपाहियों ने पूछा, जिसके जवाब में उन पाँचों ने कहा, "पूछने की कोई आवश्यकता नहीं है, तुम लोग पाँच-पाँच आदमी बारी-बारी से जाओ और जो कुछ है, अपनी आँखों से देख लो, हम लोगों से पूछोगे तो कुछ भी न बतावेंगे, हाँ, इतना अवश्य कहेंगे कि वहाँ जाने में किसी तरह का हर्ज नहीं है।"

आपुस में ताज्जुब-भरी बातें करने के बाद और पांच सिपाही उस कोठरी के अन्दर घुसे, जिसमें दोनों नकाबपोश थे और पहिले पाँचों की तरह ये पाँचों भी चौथाई घड़ी तक उस कोठरी के अन्दर रहे। इसके बाद जब बाहर निकले तो उन पाँचों की भी वही अवस्था थी, जैसी उन पाँचों की, जो इनके पहिले कोठरी के अन्दर से होकर आये थे। इसके बाद फिर पाँच सिपाही कोठरी के अन्दर घुसे और उनकी भी वही अवस्था हुई, यहाँ तक कि जितने सिपाही वहाँ मौजूद थे, पाँच-पाँच करके सभी कोठरी के अन्दर से हो आये और सभों ही की वही अवस्था हुई, जैसी पहिले गये हुए पाँचों सिपाहियों की हुई थी। धनपत ताज्जुब-भरी निगाहों से यह तमाशा देख और असल भेद जानने के लिए बेचैन हो रहा था, मगर इतनी हिम्मत न पड़ती थी कि किसी से कुछ पूछता, क्योंकि नकाबपोशों की आज्ञानुसार सिपाहियों की तरह वह उस कोठरी के अन्दर जाने नहीं पाया था, जिसमें दोनों नकाबपोश थे। अन्त में सब सिपाहियों ने आपुस में बातें करके इशारे में इस बात का निश्चय कर लिया कि कोठरी के अन्दर उन सभों ने एक ही रंग-ढंग का तमाशा देखा था।

थोड़ी देर बाद दोनों नकाबपोश उस कोठरी के बाहर निकल आये और उनमें से नाटे नकाबपोश ने सिपाहियों की तरफ देखकर कहा, "धनपत को मेरे हवाले करो।" सिपाहियों ने कुछ भी उज्र न किया, बल्कि अदब के साथ आगे बढ़कर धनपत को नकाबपोश के हवाले कर दिया। दोनों नकाबपोश उसे साथ लिये हुए फिर उस कोठरी के अन्दर घुस गये और आधे घण्टे तक वहाँ रहे, इसके बाद जब कोठरी के बाहर निकले तो नाटे नकाबपोश ने सिपाहियों से कहा, "धनपत को हमने ठिकाने पहुँचा दिया, अब आओ तुम लोगों को भी इस बाग के बाहर कर दें।" सिपाहियों ने भी कुछ उज्र न किया और दो-तीन झुण्डों में होकर नकाबपोश के साथ-साथ उस कोठरी के अन्दर गये और गायब हो गये। दोनों नकाबपोश भी उसी कोठरी के अन्दर जाकर गायब हो गये और उस कोठरी का दरवाज़ा भीतर से बन्द हो गया।

इस पचड़े में दो पहर दिन चढ़ आया, लीला दूर से खड़ी यह तमाशा देख रही थी, जब सन्नाटा हो गया तो वह भी लौटी और उसने इन बातों की खबर मायारानी तक पहुँचायी।

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