चन्द्रकान्ता सन्तति - 3
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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...
चौथा बयान
मायारानी आज यह विचारकर बहुत खुश है कि आधी रात के समय कमलिनी इस बाग में आयेगी और मैं उसे अवश्य गिरफ्तार करूँगी, मगर इस बात को जानने के लिए उसका जी बेचैन हो रहा है कि उसके सोनेवाले कमरे में रात को कौन आया था? वह चारों तरफ़ खयाल दौड़ाती थी, मगर कुछ समझ में न आता और आखिर दिल में यही कहती थी कि आनेवाला चाहे कोई हो, मगर काम कमलिनी ही का है, आज अगर कमलिनी गिरफ्तार हो जायगी तो सब टण्टा मिट जायगा, जितनी बेफिक्री राजा गोपलसिंह के मरने से मिली है, उतनी ही कमलिनी के मरने से मिलेगी, क्योंकि उसके मरने के बाद, मेरे साथ दुश्मनी करने का साहस फिर कोई भी नहीं कर सकता।
आधी रात जाने के पहिले ही मायारानी धनपति को साथ लिये हुए, उस दरवाज़े के पास आ पहुँची, जिधर से कमलिनी के आने की खबर सुनी थी। मायारानी के कहे मुताबिक पहरा देनेवाली कई औरतें भी नंगी तलवार लिये उस चोर दरवाज़े के पास पहुँचकर इधर-उधर पेड़ों और झाड़ियों की आड़ में दबक रही थीं और धनपति भी उस चोर दरवाज़े के बगल ही में एक झाड़ी के अन्दर घुस गयी थी। मायारानी अपने को हर बला से बचाये रहने की नीयत से कुछ दूर पर छिपकर बैठ रही।
अब वह समय आ गया कि चोर दरवाज़े की राह से कमलिनी बाग के अन्दर आवे, इसलिए धनपति अपने छिपे रहनेवाले स्थान से उठकर चोर दरवाज़े के पास आयी और यह विचारकर बैठ गयी कि बाहर से कोई आदमी दरवाज़ा खोलने का इशारा करे तो मैं झट से दरवाज़ा खोल दूँ। इस समय धनपति अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए थी और हाथ में खंजर लिये मौका पड़ने पर लड़ने के लिए भी तैयार थी। थोड़ी ही देर बाद बाहर से किसी ने चोर दरवाज़े पर थपकी मारी। धनपति खुश होकर उठी और झट से दरवाज़ा खोलकर एक किनारे हो गयी। दो आदमी बाग के अन्दर दाखिल हुए। इन दोनों ही का बदन स्याह कपड़ों से ढँका हुआ था और दोनों ही के चेहरों पर नकाब पड़ी हुई थी, जिससे रात के समय यह जानना बहुत कठिन था कि ये औरतें हैं या मर्द, हाँ, एक का कद कुछ लम्बा था, इसलिए उस पर मर्द होने का गुमान हो सकता था।
जब दोनों नकाबपोश बाग के अन्दर आ गये तो धनपति ने चोर दरवाज़ा बन्द कर दिया और उन दोनों को अपने पीछे-पीछे आने का इशारा किया। मालूम होता था कि वे दोनों नकाबपोश बेफिक्र हैं, और उन्हें इस बात की जरा भी खबर नहीं कि यहाँ का रंग बदला हुआ है। उन दोनों को साथ लिये, धनपति जब उस जगह पहुँची, जरा पहरा देने वाली लौंडियाँ नंगी तलवारें लिए छिपी हुई थीं, तो खड़ी हो गयी और उन दोनों की तरफ देखकर बोली, "आपकी आज्ञानुसार मैंने अपना काम पूरा कर दिया, अब मुझे इनाम मिलना चाहिए!" इसके जवाब में उस नकाबपोश ने कहा जिसका कद बनिस्बत दूसरे से छोटा था जवाब दिया, "धनपति को, जो मर्द होकर औरत की सूरत में मायारानी के साथ रहता है, किसी से इनाम लेने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह स्वयं मालदार है, मगर मैं समझता हूँ कि कम्बखत मायारानी भी हम लोगों को गिरफ्तार करने की नीयत से इसी जगह आकर कहीं छिपी होगी, उसे जल्द बुला लो, क्योंकि खास उसी को इनाम देने के लिए, हम लोग आये हैं।"
धनपत* वास्तव में मर्द था, मगर यह हाल किसी को मालूम न था इसलिए हम भी उसे अभी तक औरत ही लिखते चले आये मगर अब पूरी तरह से निश्चय हो गया कि वह मर्द है और हमारे पाठकों को भी यह बात मालूम हो गयी इसलिए अब हम उसके लिए उन्हीं शब्दों का बर्ताव करेंगे जो मर्दों के लिए उचित है। (* अब तक धनपत ही धनपति नाम से था।)
उस आदमी की बात सुनकर धनपत परेशान हो गया, उसे यह फिक्र पैदा हुई अब हमारा भेद खुल गया और इसलिए जान बचना मुश्किल है। केवल धनपत ही नहीं बल्कि मायारानी और उन कुल लौंडियों ने भी उस आदमी की बातें सुन लीं थीं, जो उसी के आस-पास पेड़ों के नीचे छिपी हुई थी। मायारानी के दिल में भी तरह-तरह की बातें पैदा होने लगीं। उसने पहिचानने की नीयत से उस नकाबपोश की आवाज़ पर ध्यान दिया, मगर कुछ काम न चला, क्योंकि उसकी आवाज़ फँसी हुई थी, और इस समय हरएक आदमी जो उसकी बात सुनता कह सकता था कि वह अपनी आवाज़को बिगाड़कर बातें कर रहा है।
धनपति यद्यपि इस फिक्र में था कि दोनों नकाबपोशों को गिरफ्तार करना चाहिए, मगर इस नकाबपोश की गहरी और भेद से भरी हुई बात ने उसका कलेजा यहाँ तक दहला दिया कि उसके लिए बात का जवाब देना भी कठिन हो गया, मगर वे लौंडियाँ जो उस जगह छिपी हुई थीं, चारों तरफ से आकर जरूर वहाँ जुट गयीं, और उन्होंने दोनों नकाबपोशों को घेर लिया। धनपत सोच रहा था कि मायारानी भी इसी जगह आ पहुँचेगी, लेकिन यह आशा उसकी वृथा ही हुई, क्योंकि उस नकाबपोश का सबसे ज्यादे असर मायारानी ही पर हुआ। वह घबड़ाकर वहाँ से भागी और अपने दीवानखाने में जाकर बैठी रही, जहाँ कई लौंडियाँ पहरा दे रही थीं। आते ही उसने एक लौंड़ी की जुबानी अपने सिपाहियों को जो बाग के पहिले दर्जे में रहा करते थे, कहला भेजा कि, "खास बाग में फलानी जगह दो दुश्मन घुस आये हैं, उन्हें जाकर फौरन गिरफ्तार करो और उनका सिर काटकर मेरे पास भेजो’। इधर धनपत ने देखा कि बहुत-सी लौंडियाँ हमारी मदद पर आ पहुँची हैं, तो उसे भी कुछ हिम्मत हुई और वह उस नकाबपोश की तरफ देखकर बोला—
धनपत : तुम लोग यहाँ किस काम के लिए आये हो?
नकाबपोश : इसका जवाब हम तुझ कम्बख्त को क्यों दें?
धनपत : मालूम होता है कि मौत तुम दोनों को यहाँ तक खैंच लायी है!
नकाबपोश : (हँसकर) हाँ, मैं भी यही समझता हूँ कि तेरी मौत हम दोनों को यहाँ तक खैंच लायी है।
इतना सुनते ही धनपत ने उस नकाबपोश पर खंजर का वार किया मगर उसने फुर्ती से पैंतरा बदलकर, वार खाली कर दिया, उस दूसरे नकाबपोश ने चालाकी से धनपत के पीछे जाकर एक लात उसकी कमर में ऐसे जोर से मारी कि वह औंधें मुँह जमीन पर गिर पड़ा, मगर तुरन्त ही सम्हलकर उठ बैठा, और दोनों नकाबपोशों को गिरफ्तार करने के लिए लौंडियों को ललकारा। लौंडियाँ, दोनों नकाबपोशों की अवस्था देखकर परेशान हो रही थीं। एक तो उन्हें विश्वास हो गया कि ये दोनों नकाबपोश मर्द हैं। दूसरे, धनपत की ताकत पर उन सभों को बहुत कुछ भरोसा था, सो उसकी भी दुर्दशा आँखों के सामने देखने में आयी। तीसरे, नकाबपोश की जुबानी यह सुनकर कि धनपत मर्द है और इसके जवाब में धनपत को चुप पाकर लौंडियों का खयाल बिल्कुल ही बदल गया था, तिस पर भी वे सब दोनों नकाबपोश को घेरकर खड़ी हो गयीं। धनपत ने फिर ललकार कर कहा, "देखो ये दोनों चोर हैं, भागने न पावें।"
लम्बे नकाबपोश ने लपक के बहादुरी के साथ धनपत की दाहिना कलाई, जिसमें खंजर था, पकड़ ली और कहा, "हम लोग भागने के लिए नहीं आये हैं, बल्कि गिरफ्तार होकर एक अनूठा तमाशा दिखाने के लिए आये हैं, मगर तुमको भाग जाने का मौका न देंगे। (लौंडियों की तरफ देखकर) हम लोग स्वयं यहाँ से टलने वाले नहीं हैं, और जहाँ कहो चलने के लिए तैयार हैं।"
धनपत को मालूम हो गया कि ये दोनों नकाबपोश कोई साधारण आदमी नहीं हैं, और इनके सामने ताकत का घमण्ड करना वृथा है। वह सोचने लगा-"अफसोस, अब भारी मुसीबत का सामना हुआ चाहता है।"
इतने ही में ‘चोर-चोर’ का गुल मचा और कई मशालों की रोशनी दिखायी दी। यह रोशनी उन सिपाहियों के साथ थी, जो बाग के पहिले दर्जे में रहनेवाले सिपाहियों में से थे, और इस समय वे सब मायारानी की आज्ञानुसार दोनों चोरों को, अर्थात् इन नकाबपोशों को गिरफ्तार करने के लिए यहाँ आये थे। बात-की-बात में वे सब वहाँ पहुँच गये, और उन्होंने देखा कि लौंडियों के घेरे में दो नकाबपोश छाती ऊँची किये खड़े हैं, और उनमें से एक धनपत की कलाई पकड़े हुए है।
इसके पहिले कि सिपाहियों को दोनों नकाबपोशों के साथ किसी तरह के बर्ताव की नौबत आवे, छोटे नकाबपोश ने ऊँची आवाज़में ललकार कर कहा, "भाइयों, तुम लोग यह न समझो कि हम लोग भाग जायँगे, मैं भागने के लिए नहीं आया हूँ, मैं तुम लोगों का दुश्मन नहीं हूँ और न तुम लोगों के दुश्मनों का साथी हूँ, बल्कि तुम्हारा सच्चा दोस्त और खैरखाह हूँ। जिस समय सूर्य भगवान के दर्शन होंगे और मैं अपने चेहरे पर से नकाब उठाऊँगा, तुम लोगों को मालूम हो जायगा कि मैं तुम्हारा पुराना साथी हूँ। इस समय मैं तुम लोगों की वह बेवकूफी जाहिर करने आया हूँ, जिसे तुम लोग खुद नहीं जानते हो। हाय, तुम्हारे प्यारे मालिक राजा गोपालसिंह के गले पर छुरी फिर जाय और तुम लोगों को खबर तक न हो? इससे भी बढ़कर अफसोस की बात तो यह है कि राजा गोपालसिंह को मारनेवाला, उनकी उम्मीदों का खून करने वाला, उनकी रिआया के दिल पर सदमा पहुँचाने वाला, उनकी इज्जत और हुर्मत को बिगाड़नेवाला, उनके धर्म और अर्थ का सत्यानाश करने वाला, दिन-रात तुम्हारे पास रहे, तुम पर हुकूमत करे, तुम्हें बेवकूफ बनावे, और तुम उसका कुछ भी न कर सको! यह मत समझो कि राजा गोपालसिंह को मरे हुए कई वर्ष हो गये, मैं साबित कर दूँगा कि उनके खून से गीली हुई जमीन अभी तक सूखी नहीं है, और अगर तुम मुझसे यह पूछने और यह जानने की इच्छा करोगे कि तुम्हारे प्यारे राजा गोपालसिंह को किसने मारा, या उनका कातिल कौन है तो मैं जरूर उसका भी पता दूँगा और वास्तव में मैं इसी काम के लिए, यहाँ आया भी हूँ।"
छोटे नकाबपोश की इस बात ने सिपाहियों और पहरादेने वाली लौंडियों का दिल हिला दिया। राजा गोपालसिंह की याद ने और इस खबर ने कि-‘उन्हें मरे हुए बहुत दिन नहीं हुए और उनका कातिल इसी जगह रहकर उन पर हुकूमत करता है’ उनके दिलों को बेचैन कर दिया। सभों की आँखों से आँसू की बूँदें जारी हो गयीं, और हर तरफ से आवाज़ आने लगी-"कहो कहो, जल्द कहो! नेकदिल, गरीब-परवर और हमारे हितैषी राजा को मारने वाला कौन है और कहाँ है?" इसके जवाब में छोटे नकाबपोश ने पुनः कहा, "यही कम्बख्त धनपत, जिसे इस समय मेरे साथी ने पकड़ रक्खा है, तुम्हारे राजा का कातिल तथा उसकी इज्जत और हुर्मत को बिगाड़नेवाला है। इस बात से मत डरो कि इसकी मायारानी के दरबार में इज्जत बहुत है, बल्कि आजमाओ और देखो कि यह मर्द है या औरत! मैं सच कहता हूँ कि यह कई वर्ष से तुम लोंगो की आँखों में धूल डालकर अर्थात् औरत बनकर तुम्हारे घर में रहता है और इस राज्य को चौपट कर रहा है, मगर तुम लोगों को इसकी कुछ भी खबर नहीं है। इतना ही नहीं, मैं तुम लोगों से एक बात और कहूँगा, मगर अभी नहीं, जरा ठहरो, घण्टे-भर और गम खाओ, सवेरा होने दो और हम लोगों को इसी जगह रहने देकर और कहीं ले जाने का उद्योग मत करो!"
छोटे नकाबपोश की इस दूसरी बात ने रंग और भी चोखा कर दिया। चारों तरफ सिपाहियों और लौंडियों में गुरचूँ-गुरचूँ और कानाफूसी होने लगी। किसी के आँखों से आँसू जारी था, किसी की गर्दन शर्म से नीची हो रही थी, किसी ने अफसोस से अपना हाथ अपने कलेजे पर रख लिया था, कोई ठुड्डी पकड़कर सोच रहा था, और कोई दाँत पीस-पीसकर धनपत की तरफ देख रहा था। यद्यपि रात का समय था, मगर उन मशालों की रोशनी बखूबी हो रही थी, जो मायारानी के सिपाहियों के साथ थे और इस सबब से वहाँ की हर एक चीज़ साफ़ दिखायी दे रही थी। सिपाहियों ने धनपत का चेहरा गौर से देखा और उसमें बहुत फर्क पाया। खौफ़ और तरद्दुद ने धनपत को अधमुआ कर दिया था और उसका रंग जर्द हो रहा था। दोनों नकाबपोशों ने जब देखा कि इस समय सिपाहियों के दिलों में जोश बखूबी पैदा हो गया है और वे लोग सब्र करना पसन्द न करेंगे तो आपुस में कुछ इशारा करने के बाद, छोटे नकाबपोश ने धनपत की साड़ी का ऊपरी भाग फुर्ती से खैंच लिया और उसकी चोली फाड़ डाली, इसके साथ ही दो बनावटी गेंद बाहर गिर पड़े और उसकी सूरत से मर्दानापन झलकने लगा। अब तो मायारानी के सिपाहियों को पूरे दर्जे पर क्रोध चढ़ आया और उन्हें निश्चय हो गया कि उनके मालिक राजा गोपालसिंह, इसी कम्बख्त के सबब से मारे गये हैं। पहरा देनेवाली जितनी औरते थीं, सब ताज्जुब में आकर एक-दूसरे की सूरत देखने लगीं और उधर सिपाहियों ने पास पहुँचकर धनपत को घेर लिया तथा उसकी दुर्गत करने लगे। ऐसी अवस्था में दोनों नकाबपोश धनपत को छोड़कर अलग जा खड़े हुए। सिपाहियों ने बारी-बारी से धनपत से प्रश्न करना शुरू किया, मगर उसकी अवस्था इस लायक न थी कि वह किसी के प्रश्न का उत्तर देता। बहुत कुछ सोचने-विचारने के बाद यह राय पक्की हुई कि धनपत को राजदीवान के पास ले चलना चाहिए और इसी के साथ-साथ इन दोनों नकाबपोशों को भी उन्हीं के सामने पेश करना उचित होगा।
सिपाही लोग, जिस समय धनपत के विषय में सोच-विचार कर रहे और क्रोध में भरे हुए थे, दोनों नकाबपोश जो धनपत को छोड़कर अलग हो गये थे, थोड़ी देर के लिए बिल्कुल बेफिक्र और लापरवाह हो गये थे, मगर इस समय जब यह राय पक्की हुई कि धनपत के साथ-ही-साथ उन दोनों को भी दीवान साहब के पास ले चलना चाहिए, तो उन दोनों की खोज करने लगे, मगर वे दोनों नकाबपोश मौका पाकर ऐसा गायब हुए कि उनकी झलक तक न दिखायी दी।
एक बोला, "अजी इसी जगह तो थे!" दूसरे ने कहा, "यह तो हम भी जानते हैं, मगर यह तो बताओ वे चले कहाँ गये?" तीसरे ने कहा, "भाई वे दोनों भागनेवाले तो हैं नहीं, इसी जगह कहीं छिपकर हम लोगों का तमाशा देखते होंगे!" इत्यादि तरह-तरह की बातें सब लोग आपुस में करने लगे और दोनों नकाबपोशों को चारों तरफ ढूँढ़ने लगे, लेकिन वे दोनों वहाँ थे कहाँ, जो पता लगता! आखिर खोजते-ढूँढ़ते सुबह हो गयी और इतनी ही देर में इस आश्चर्यजनक घटना की खबर जादू की तरह हवा के साथ मिलकर दूर-दूर तक फैल गयी। इस समय मायारानी के सिपाही बिल्कुल ही स्वतंत्र और खुदराय बल्कि बागियों की तरह हो रहे थे। बहुत खोजने और ढूँढ़ने पर भी उन्हें जब दोनों नकाबपोशों का पता न लगा, तब लाचार होकर कम्बख्त धनपत को घसीटते हुए, वे बाग के बाहर की तरफ रवाना हुए।
जब इन बातों की खबर मायारानी को पहुँची तो वह बहुत ही घबरायी। अपनी तथा धनपत की जान से ना उम्मीद होकर सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए? इस समय उसकी सूरत से उसके दिल का बहुत कुछ पता लगता था। उसका चेहरा जर्द और पलकें नीचे की तरफ झुकी हुई थीं। कभी-कभी उसके बदन में कम्प हो जाता और कभी आँखें चंचल होकर सुर्ख हो जातीं। मगर थोड़ी ही देर बाद होंठ काँपने लगे और आँखों की सुर्खी बढ़ जाने के साथ ही उसका चेहरा भी लाल हो गया, जिसे देखते ही वे लौंडियाँ, जो उसके सामने मौजूद थीं, समझ गयीं कि अब उसे हद दर्जे का क्रोध चढ़ आया है। कुछ सोच-विचारकर मायारानी बोल उठी, "इस समय इन कमबख्तों को समझाने-बुझाने का उद्योग करना वृथा समय नष्ट करना है, दूसरे मैं तिलिस्म की रानी ही क्या ठहरी जो इन थोड़े से कम्बख्तों को काबू में न कर सकी या इन थोड़े सिपाहियों को आज्ञा भंग करने की सजा न दे सकी!" इतना कहते ही मायारानी अपने स्थान से उठी और दीवानखाने में से होती हुई, उस कोठरी में जा पहुँची, जहाँ से बाग के तीसरे दर्जे में जाने का वह रास्ता था, जिसका जिक्र हम उस समय कर आये हैं, जब पागल बने हुए तेजसिंह मायारानी की आज्ञानुसार हरनामसिंह द्वारा बाग के तीसरे दर्जे में पहुँचाये गये थे।
मायारानी कोठरी के अन्दर गयी। वहाँ एक दूसरी कोठरी में जाने के लिए एक दरवाज़ा था, उस दरवाज़े को खोलकर दूसरी कोठरी में गयी। वहाँ एक छोटा-सा कूँआ था, जिसमें उतरने के लिए जंजीर लगी हुई थी। वह इस कूएँ के अन्दर उतर गयी और एक लम्बे-चौड़े स्थान में पहुँची, जहाँ बिल्कुल ही अन्धकार था। मायारानी टटोलती हुई एक कोने की तरफ चली गयी, और वहाँ उसने कोई पेंच घुमाया, जिसके साथ ही उस स्थान में बखूबी रोशनी हो गयी और वहाँ की हर-एक चीज़ साफ़ -साफ़ दिखायी देने लगी। यह रोशनी शीशे के एक गोले में से निकल रही थी जो छत के साथ लटक रहा था। यह स्थान जिसे एक लम्बा-चौड़ा दालान या चारों तरफ दीवार होने के कारण, कमरा कहना चाहिए अद्भुत चीज़ों और तरह-तरह के कल-पुर्जों से भरा हुआ था। बीच में कतार बाँधकर चौबीस खम्भे संगमर्मर के खड़े थे और हर दो खम्भों के ऊपर एक-एक महराबदार पत्थर चढ़ा हुआ था, जिसे मामूली तौर पर आप बिना दरवाज़े का फाटक कह सकते हैं। इन महराबी पत्थरों के बीचोबीच बड़े-बड़े घण्टे लटक रहे थे और हरएक घण्टे के नीचे एक गड़ारीदार पहिया था।
मायारानी ने हरएक महराब को जिस पर मोटे-मोटे अक्षर लिखे हुए थे गौर से देखना शुरू किया और एक महराब के नीचे पहुँचकर खड़ी हो गयी, जिस पर यह लिखा हुआ था—"दूसरे दर्जे का तिलिस्मी दरवाज़ा।" मायारानी ने उस पहिये को घुमाना शुरू किया, जो उस महराब में लटकते हुए घण्टे के नीचे था। पहिया चार-पाँच दफे घूमकर रुक गया, तब मायारानी वहाँ से हटी और यह कहती हुई घूमकर सामने वाली दीवार के पास गयी कि ‘देखें अब वे कम्बख्त क्योंकर बाग के बाहर जाते हैं’! दीवार में नम्बरवार बिना पल्ले की पाँच आलमारियाँ थीं और हरएक आलमारी में चार दर्जे बने हुए थे। पहिली आलमारी में शीशे की सुराहियाँ थीं, दूसरी में ताँबे के बहुत से डिब्बे थे, तीसरी कागज के मुट्ठों से भरी हुई थी, जिन्हें दीमकों ने बर्बाद कर डाला था, चौथी में अष्टधातु की छोटी-छोटी बहुत-सी मूरतें थीं और पाँचवी आलमारी में केवल चार ताम्रपत्र थे, जिनमें खूबसूरत उभड़े हुए अक्षरों में कुछ लिखा हुआ था।
मायारानी उस आलमारी के पास गयी, जिसमें शीशे की सुराहियाँ थीं और एक सुराही उठा ली। शायद उसमें किसी तरह का अर्क था, जिसे थोड़ा-सा पीने के बाद सुराही हाथ में लिये हुए वहाँ से हटी और दूसरी आलमारी के पास गयी, जिसमें ताँबे के डिब्बे थे। एक डिब्बा उठा लिया और वहाँ से रवाना हुई। जिस तरह उसका जाना हम लिख आये हैं, उसी तरह घूमती हुई वह अपने दीवानखाने में पहुँची, जिसके आगे तरह-तरह के खुशनुमा पत्तों वाले खूबसूरत गमले सजाये हुए थे। वहाँ पहुँचकर उसने वह डिब्बा खोला। उसके अन्दर एक प्रकार की बुकनी भरी हुई थी। उसमें से आधी बुकनी अपने हाथ से खूबसूरत गमलों में छिड़कने के बाद, बची हुई आधी बुकनी डिब्बे में लिये हुए वह दीवानखाने की छत पर चढ़ गयी और अपने साथ केवल एक लौंडी को, जिसका नाम लीला था और जो उसकी सब लौंडियों की सरदार थी, लेती गयी। यह सब काम जो हम ऊपर लिख आये हैं, मायारानी ने बड़ी फुर्ती से उसके पहिले ही कर लिया, जब तक कि उसके बागी सिपाही धनपत को लिए हुए बाग के दूसरे दर्जे के बाहर जायँ।
जब मायारानी लीला को साथ लिये हुए दीवानखाने की छत पर चढ़ गयी तब उसने सुराही दिखाकर लीला से कहा, "चिल्लू कर, इसमें से थोड़ा-सा अर्क तुझे देती हूँ, उसे पी जा और उस आफत से बची रह, जो थोड़ी ही देर में यहाँ के रहनेवालों पर आनेवाली है।"
लीला : (हाथ फैलाकर) मैं खूब जानती हूँ कि आपकी मेहरबानी जितनी मुझ पर रहती है, उतनी और किसी पर नहीं।
माया : (लीला की अंजुली में अर्क डालकर) इसे जल्दी पी जा, और जो कुछ मैं कहती हूँ, उसे गौर से सुन।
लीला : बेशक मैं ध्यान देकर सुनूँगी, क्योंकि इस समय आपकी अवस्था बिल्कुल ही बदल रही है, और यह जानने के लिए मेरा जी बहुत बेचैन हो रहा है कि अब क्या किया जायगा?
माया : मैं अपने भेद तुझसे छिपा नहीं रखती, जो कुछ मैं कर चुकी हूँ तुझे सब मालूम है, केवल दो भेद मैंने तुझसे छिपाये थे, जिनमें से एक तो आज खुल ही गया और एक का हाल मैं तुझसे फिर किसी समय कहूँगी। इन भेदों के विषय में मेरा विश्वास था कि यदि किसी को मालूम हो जायगा तो मेरी जान आफत में फँस जायगी और आखिर वैसा ही हुआ। तू देख ही चुकी है कि दो कम्बख्त नकाबपोशों ने यहाँ पहुँचकर क्या गजब मचा रक्खा है। अब जहाँ तक मैं समझती हूँ, धनपत का भेद छिपा रहना बहुत ही मुश्किल है, और साथ ही इसके कम्बख्त सिपाहियों का मिजाज भी बिगड़ गया है। मान लिया जाय कि अगर मैंने किसी तरह की बुराई की भी तो उनको मेरे खिलाफ होना मुनासिब न था। खैर, सिपाही लोग तो उजड्ड हुआ ही करते हैं, मगर मुझसे बुराई करने का नतीजा कदापि अच्छा न होगा। अफसोस, उन लोगों ने इस बात पर ध्यान न दिया कि आखिर मायारानी तिलिस्म की रानी है। देख, मैंने इस बाग के बाहर जाने का रास्ता बन्द कर दिया, अब उन लोगों की मजाल नहीं कि यहाँ से बाहर जा सकें, बल्कि थोड़ी ही देर में तू देखेगी कि उन लोगों को मैं कैसे हलाल करती हूँ। यह दवा जो मैंने गमलों में छिड़की है, बहुत ही तेज और अपनी महक दूर-दूर तक फैलानेवाली है, इससे बढ़कर बेहोशी की दवा दुनिया में न होगी, और यही उन बदमाशों के साथ जहर का काम करेगी। तू उन सभों के पास जा और उन्हें ऊँच-नीच समझाकर मेरे पास ले आ—या—नहीं, अच्छा देख—खैर, जाने दे—मैं तुझसे एक बात और कहती हूँ—यह तो मैं समझ ही चुकी कि अब मेरी जान जाया चाहती है, मगर तब भी हजारों को मारे बिना मैं न छोड़ूँगी। अफसोस, वे दोनों कम्बख्त नकाबपोश न मालूम कहाँ चले गये। खैर, देखा जायगा—ओफ, (अपनी ठुड्डी पकड़के) मुझे शक है—एक तो उनमें से जरूर—हाँ, जरूर—जरूर—बेशक वही है और होगा, दूसरा भी—मैं समझ गयी, मगर ओफ, उस चीज़ का जाना ही बुरा हुआ। अच्छा अब मैं दूसरे काम की फिक्र करती हूँ, अब तो जान पर खेलना ही पड़ा, एक दफे तो मुझे तुझे छोड़—हाँ, तू मेरा मतलब तो समझ गयी न इस समय मेरी तबीयत—अच्छा तू जा, देख मान जाँय तो ठीक है, नहीं तो आज इस बाग को मैं उन्हीं के खून से तर करूँगी!
इस समय मायारानी की बातें यद्यपि बिल्कुल बेढंगी और बेतुकी थीं, तथापि चालाक और धूर्त लीला उसका मतलब समझ गयी और यह कहती हुई वहाँ से रवाना हुई, "आप चिन्ता न कीजिए, मैं अभी जाकर उन सभों को ठीक करती हूँ, जरा आप अपना मिजाज ठिकाने कीजिए और तिलिस्मी कवच को भी झटपट..."
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