चन्द्रकान्ता सन्तति - 3
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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...
ग्यारहवाँ बयान
मायारानी ने राजा गोपालसिंह को मारने के लिए जैसे ही खंजर उठाया वैसे ही नागर ने फुर्ती से उसकी कलाई पकड़ ली और कहा—
नागर : ठहरो ठहरो, जल्दी न करो, आखिर ये लोग तुम्हारे कब्जे में तो आ ही चुके हैं और अब किसी तरह छूटकर नहीं जा सकते, फिर बिना अच्छी तरह विचार किये जल्दी करने की क्या अवश्यकता है, क्या जाने सोचने-विचारने से कुछ विशेष लाभ की सूरत ध्यान में आवे।
माया : (रुककर) तुम्हारा कहना ठीक है, परन्तु यदि दुश्मन कब्जे में आ जाय तो उसके मारने में विलम्ब करना कदापि उचित नहीं है। इसी (गोपालसिंह) को जब मैंने कैद किया था तो इसके मारने के विषय में सोच-विचार करते-करते वर्षों बिताये और अन्त में उस विलम्ब का क्या नतीजा निकला, सो देख ही रही हो उस विलम्ब ही के कारण आज मैं फकीरनी होकर भी (गला भर आने के कारण रुककर) आज ईश्वर ने मुझपर कृपा की है और दुश्मनों को मेरे कब्जे में कर दिया है, फिर इनके मारने में देर तथा सोच-विचार करने का ताज्जुब नहीं कि वही नतीजा हो जो पहिले हो चुका है।
नागर : ठीक है, और मैं भी इसी में प्रसन्न हूँ कि जहाँ तक शीघ्र हो सके, ये लोग मार डाले जाँय। अहा, कमलिनी के सहित गोपालसिंह का फँस जाना क्या कम खुशी की बात है, और फिर साथ ही इन दोनों के बेईमान भूतनाथ का भी...
माया : (बात काटकर) आ फँसना, जिसने मेरे साथ सख्त दगा की थी, कम खुशी की बात नहीं है।
नागर : बेशक, परन्तु मैं इन कमबख्तों की जान ले लेने में विशेष विलम्ब करने के लिए नहीं कहती, हाँ, इतनी देर तक रुक जाने के लिए अवश्य कहती हूँ, जितनी देर में हम लोग इस बात को बखूबी सोच लें कि इन दुष्टों को मारने के बाद इस सुरंग का भेद मालूम न होने पर भी, हम लोग यहाँ से निकल जा सकेंगे या नहीं?
माया : क्यों, क्या हम लोगों को यहाँ से निकल जाने में किसी तरह की रुकावट हो सकती है? क्या हम लोगों ने भूतनाथ और देवीसिंह की बातें उस समय अच्छी तरह नहीं सुनीं, जिस समय दोनों ऐयार सुरंग उतर चुके थे, क्या उसी रीति से सुरंग का दरवाज़ा न खुल सकेगा, जिस रीति से बन्द किया गया है?
नागर : इन बातों का ठीक-ठीक जवाब मैं नहीं दे सकती, बल्कि इन्हीं बातों पर विचार करने के लिए कुछ देर तक ठहरने को कहती हूँ।
माया : (खंजर म्यान में रखकर और कुछ सोचकर) अच्छा अच्छा, कुछ देर तक ठहर जाने में कोई हर्ज नहीं है, इन सभों की बेहोशी यकायक दूर नहीं हो सकती, चलो पहिले उस दरवाज़े को खोलकर देखें कि खुलता है या नहीं।
इतना कहकर नागर को साथ लिये हुए मायारानी सुरंग के दरवाज़े की तरफ बढ़ी। जब उस लोहे के खम्भे के पास पहुँची, जिस पर वह गड़ारीदार पहिया था, जिसे घुमाकर भूतनाथ ने सुरंग का दरावाजा बन्द किया था तो रुकी और नागर की तरफ देखकर बोली, "इसी पहिए को घुमाकर भूतनाथ ने दरवाज़ा बन्द किया था।"
नागर : जी हैँ, अब इसी को उलटा घुमाकर देखना चाहिए कि दरवाज़ा खुलता है या नहीं।
माया : अच्छा तुम ही इस पहिए को घुमाओ।
नागर ने उस पहिए को कई दफे उलटा घुमाया और बखूबी घूम गया, इसके बाद दोनों औरतें यह देखने के लिए सीढ़ी पर चढ़ीं कि दरवाज़ा खुला या नहीं, मगर दरवाज़ा ज्यों-का-त्यों बन्द था। मायारानी को बहुत ताज्जुब हुआ और वह घबरानी-सी होकर नीचे उतर आयी और नागर की तरफ देखकर बोली, "तुम्हारा सोचना ठीक निकला।"
नागर : इसी से मैंने आपको रोका था, यदि आप जोश में आकर इन सभों को मार डालतीं तो फिर हम लोग भी इस सुरंग में मर-मिटते।
माया : बेशक-बेशक। (कुछ सोचकर) अच्छा एक बार उधर चलकर देखना चाहिए, जिधर से यह गोपालसिंह आया है, शायद उधर का दरवाज़ा खुला हो।
नागर : चलिए देखिए, शायद कुछ काम निकले, मगर ताज्जुब नहीं कि लौटने तक इन लोगों की बेहोशी जाती रहे।
माया : हाँ, ऐसा हो सकता है। अच्छा तो इन लोगों के हाथ-पैर करके बाँध देना चाहिए जिससे यदि बेहोशी जाती भी रहे तो कुछ कर न सकें।
नागर ने उन सभों को अच्छी तरह गौर से देखा, जो उस जगह बेहोश पड़े थे। भूतनाथ और देवीसिंह के कमर में कमन्द मौजूद थे, उन्हें खोल लिया और दोनों ने मिलकर उन्हीं कमन्दों से भूतनाथ, देवीसिंह, कमलिनी, लाडिली और गेपालसिंह के हाथ-पैर बेरहमी के साथ खूब कसकर बाँध दिये और इसके बाद दोनों औरतें उसी तरफ चलीं, जिधर से कमलिनी और लाडिली को साथ लिये राजा गोपालसिंह आये थे।
मायारानी और नागर मोमबत्ती की रोशनी में स्याह पत्थर को बचाती हुई उस दरवाज़े के पास पहुँची, जिसे खोलकर राजा गोपालसिंह आये थे। यह वही दरवाज़ा था, जिसमें अक्षरों वाले कील जड़े हुए थे, और किसी अनजान आदमी से इसका खुलना बिल्कुल ही असम्भव था। मायारानी ने इसको खोलने का बहुत कुछ उद्योग किया मगर कुछ काम न चला। लाचार होकर उसने तरद्दुद और घबराहट की निगाह नागर पर डाली।
नागर : मेरा सोचना बहुत ठीक निकला, यदि वे लोग मार डाले जाते तो निःसन्देह हम दोनों की मौत भी इसी सुरंग में हो जाती।
माया : सच है, मगर अब क्या करना चाहिए? जहाँ तक मैं सोचती हूँ इसके जवाब में तुम यही कहोगी कि इनमें से किसी को होश में लाकर जिस तरह बन पड़े दरवाज़ा खोलने की तरकीब मालूम करनी चाहिए।
नागर : जी हाँ, क्योंकि इसके सिवाय कोई दूसरी बात ध्यान में नहीं आती।
माया : खैर, यदि ऐसा हो भी जाय अर्थात् इन पाँचों में से किसी को होश में लाने और डराने धमकाने से दरवाज़ा खुलने का भेद मालूम हो जाय तो फिर क्या किया जायगा? मैं समझती हूँ कि तुम यही कहोगी कि दरवाज़े का भेद मालूम होने के बाद इन पाँचों को कत्ल कर देना चाहिए।
नागर : नहीं मेरी राय यह नहीं है, बल्कि मैं इन लोगों को उस समय तक कैद में रखना मुनासिब समझती हूँ, जब तक कि रिक्तगन्थ और अजायबघर की ताली जो तुमने भूतनाथ को दे दी है, अपने कब्जे में न आ जाय।
माया : ओफ़! मैं वास्तव में सैकड़ों आफतों में घिरी हुई हूँ। (कुछ सोचकर) खैर, कोई चिन्ता नहीं है, देखो तो क्या होता है, मैं इन लोगों को जीता कदापि न छोड़ूँगी। (रुककर) हाँ, जरा ठहरो इन पाँचों में से किसी को होश में लाने के पहिले सभों की तलाशी अच्छी तरह ले लेना चाहिए, ताज्जुब नहीं कि रिक्तगन्थ और अजायबघर की ताली भी इन लोगों में से किसी के पास हो।
नागर : हाँ मुमकिन है कि वे दोनों चीज़ें उन लोगों के पास हों, अच्छा चलो सबके पहिले यही काम किया जाय।
नागर को साथ लिये हुए मायारानी फिर उस जगह पहुँची, जहाँ गोपालसिंह और भूतनाथ वगैरह बेहोश पड़े थे। हम ऊपर लिख आये हैं कि राजा गोपालसिंह और भूतनाथ के पास जो तिलिस्मी खंजर था, वह मायारानी ले चुकी है। एक खंजर उसने अपने पास रक्खा और दूसरा नागर को दे दिया।
नागर को साथ लिये हुए मायारानी फिर उस जगह पहुँची, जहाँ गोपालसिंह भूतनाथ वगैरह बेहोश पड़े थे। हम ऊपर लिख आये हैं कि राजा गोपालसिंह और भूतनाथ के पास जो तिलिस्मी खंजर था, वह मायारानी ले चुकी है। एक खंजर अपने पास रक्खा और दूसरा नागर को दे दिया। अब उसने सबसे पहिले भूतनाथ के बटुए की तलाशी ली, मगर उसमें कोई चीज़ ऐसी न निकली जो मायारानी के काम की होती है। यद्यपि तरह-तरह की दवाओं और मसालों से भरी हुई कई खूबसूरत डिबियाएँ नजर आयी, मगर उनका गुण न मालूम होने के कारण मायारानी के लिए वे बिल्कुल ही बेकार थीं। जब बटुए में से अपने मतलब की कोई चीज़ न पायी, तो कमर और कपड़ों के जेब इत्यादि अच्छी तरह टटोले, मगर उससे भी कुछ काम न चला, अन्त में उदास होकर वह राजा गोपालसिंह की तरफ लौटी और उनकी तलाशी लेने लगी।
ऊपर का बयान पढ़ने से पाठकों को मालूम हो ही चुका होगा कि अजायबघर की ताली जो मायारानी ने भूतनाथ को दी थी, वह राजा गोपालसिंह ने भूतनाथ से ले ली थी। इस समय वही अजायबघर की ताली जो राजा गोपालसिंह के पास थी, जो तलाशी लेने के समय मायारानी के हाथ लगी। ताली पाकर वह बहुत खुश हुई और नागर की तरफ देखकर बोली—
"लीजिए अजायबघर की ताली तो मिल गयी। अब कोई परवाह नहीं, यद्यपि मुझे मालूम हो चुका है कि मेरी फौज मुझसे बिगड़ गयी, मेरा दीवान मुझसे दुश्मनी करने को तैयार है, तुम्हारे मकान का भेद बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों को मालूम हो चुका है और इस सबब से मुझे रहने के लिए कोई ठिकाना नहीं है मगर अब अजायबघर की यह ताली मिल जाने से, मुझे बहुत कुछ भरोसा हो गया। मैं अब खुशी से दारोगा वाले बँगले में रहकर अपने दुश्मनों से बदला ले सकती हूँ, फौजी सिपाहियों के दिल से शक दूर करके, अपना रोआब जमा सकती हूँ और उन्हें ठीक करके अपने ढर्रे पर ला सकती हूँ। कम्बख्त दीवान को भी सजा देना कोई बड़ी बात नहीं है, इसके सिवाय तिलिस्मी खंजर की बदौलत मुश्किल-से-मुश्किल काम सहज में ही कर सकूँगी!"
नागर : ठीक है, अच्छा देखिए शायद रिक्तगन्थ भी इन लोगों में से किसी के पास हो।
मायारानी ने फिर तलाशी लेना शुरू किया। गोपालसिंह के बैग कमलिनी, लाडिली और देवीसिंह की भी तलाशी ली, मगर रिक्तगन्थ (खून से लिखी किताब) का पता न लगा और न कोई ऐसी चीज़ ही मिली जो मायारानी के मतलब की होती। आखिर लाचार होकर यह निश्चय किया कि भूतनाथ को होश में लाकर डरा-धमकाकर दरवाज़ा खोलने की तरकीब जाननी चाहिए। मायारानी की आज्ञानुसार नागर ने अपने बटुए में से लखलखा निकाला और भूतनाथ को सुँघाने के लिए आगे बढ़ी ही थी कि सुरंग के सिरे पर (जिधर से भूतनाथ और देवीसिंह के पीछे-पीछे मायारानी और नागर आयी थीं) रोशनी दिखायी दी। नागर ने भूतनाथ को लखलखा सुँघाने के लिए जो हाथ बढ़ाया था, रोक लिया, लखलखे की डिबिया जमीन पर रख तिलिस्मी खंजर म्यान से निकाल लिया और अपने हाथ की मोमबत्ती बुझाकर मायारानी से बोली, "देखिए, मैंने मोमबत्ती बुझाकर अँधेरा कर दिया, अब इधर, उधर मत हटिए, कहीं ऐसा न हो कि स्याह पत्थर पर पैर पड़ जाय। और आप भी तिलिस्मी खंजर अपने हाथ में ले लीजिए, ताज्जुब नहीं कि यह आनेवाला हम लोगों का दुश्मन हो और बीरेन्द्रसिंह का कोई ऐयार हो।"
माया : (तिलिस्मी खंजर के कब्ज़े पर हाथ रखके) यद्यपि तुमने मोमबत्ती बुझा दी है, मगर उस आनेवाली की नजर पहिले इस रोशनी पर पड़ चुकी होगी। (गौर से देखकर) मगर मुझे तो मालूम होता है कि यह हमारे दारोगा साहब हैं, जिन्हें हम लोग बाबाजी भी कहते हैं।
नागर : शक तो मुझे भी होता है। (रुककर) हाँ, अब वे कई कदम आगे बढ़ आये हैं, इससे उनकी दाढ़ी और जटा साफ़ दिखायी दे रही है। ठीक है निःसन्देह यह दारोगा साहब ही हैं! न मालूम राजा बीरेन्द्रसिंह की कैद से क्योंकर निकल आये। इनका छूट आना हम लोगों के लिए बहुत अच्छा हुआ!
माया : बेशक, इनके छूटकर चले आने से मुझे खुशी होती, अगर वे इस समय यहाँ न आते, क्योंकि गोपालसिंह के बारे में मैंने लोगों को जो कुछ धोखा दिया है, इसकी खबर इन्हें भी नहीं है, इसलिए ताज्जुब नहीं कि गोपालसिंह को यहाँ देखकर दारोगा साहब जोश में आ जाये और मुझसे थुक्काफजीहत करने के लिए तैयार हो जायँ, क्योंकि उनके दिल में राजा की बहुत मुहब्बत थी। ओह इस समय इनका यहाँ आना बहुत ही बुरा हुआ। खैर, तू होशियार रहियो। इस तिलिस्मी खंजर का गुण इन्हें मालूम न होने पाये और न गोपालसिंह के बारे में कुछ—
नागर : बहुत अच्छा, मैं कुछ न बोलूँगी। लीजिए, अब वे बहुत पास आ गये। बेशक, दारोगा साहब ही हैं, अब अगर हम भी मोमबत्ती जला लें तो कोई हर्ज नहीं।
माया : कोई हर्ज नहीं।
ऊपर लिखी बातें मायारानी और नागर में बहुत चुपके और जल्दी के साथ हुईं। नागर ने मोमबत्ती जलायी और इसके बाद दोनों औरतें आगे बढ़ी अर्थात् दारोगा की तरफ बढ़ीं। दारोगा ने भी इन लोगों को पहिचाना और जब वह मायारानी के पास पहुँचा तो हँसकर बोला, "ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि मैं राजा बीरेन्द्रसिंह के कब्जे से निकलकर चला आया और तुमको राजी-खुशी अपने सामने देख रहा हूँ।"
माया : (बनावटी हँसी के साथ) आपके छूट आने की मुझे हद्द से ज्यादे खुशी हुई। इधर थोड़े दिनों से मैं तरह-तरह की मुसीबतों में पड़ रही हूँ, जिसकी कुछ भी आशा न थी और यह सब आपके न रहने से ही हुआ।
दारोगा : हाँ, मुझे भी बहुत-सी बातों का पता लगा है। इस समय जब मैं अपने बंगले में पहुँचा तो वहाँ लीला और कई लौंडियों को पाया। बहुत-सा हाल तो वहाँ लीला की जुबानी मालूम हुआ और यह भी उससे सुना कि टीले पर दो आदमियों को आते देखकर मायारानी और नागर भी उसी तरफ गयी हैं। यही सुनकर मैं भी इस सुरंग में आया हूँ, नहीं तो मुझे यहाँ आने की कोई जरूरत न थी।
माया : जी हाँ, मैं बीरेन्द्रसिंह के ऐयार भूतनाथ और देवीसिंह के पीछे-पीछे यहाँ आयी। इस सुरंग का भेद मुझे कुछ भी मालूम न था और आपने भी इस विषय में आजतक कुछ नहीं कहा था, भूतनाथ ने सुरंग का दरवाज़ा खोला और उसके पीछे-पीछे छिपकर, मैं यहाँ तक तो चली आयी, मगर यहाँ से किसी तरह निकल नहीं सकती हूँ, क्योंकि भूतनाथ ने सुरंग के अन्दर आकर दरवाज़ा बन्द कर दिया था, और अब मुझसे वह दरवाज़ा किसी तरह हीं खुल रहा है। ईश्वर ने बड़ी कृपा की, जो इस समय आपको यहाँ भेज दिया, चलिए पीछे हटिए, पहिले मुझे दरवाज़ा खोलने की तरकीब बता दीजिए तो और कुछ बातचीत होगी!
दारोगा : (हँसकर) अब तो मैं आ ही चुका हूँ, तुम क्यों घबराती हो? पहिले यह बताओ कि वे दोनों ऐयार कहाँ हैं, जिनके पीछे-पीछे तुम यहाँ आयी थीं?
इस समय मायारानी की विचित्र अवस्था थी। वह मुँह से बातें तो कर रही थी, मगर दिल में यह सोच रही थी, किसी तरह राजा गोपालसिंह का भेद इनसे छिपाना चाहिए, जिसमें बाबाजी (दारोगा) को यह न मालूम हो कि मैंने वर्षों से गोपालसिंह को कैद कर रक्खा था, मगर इसके बचाव की कोई सूरत ध्यान में नहीं आती थी। वह अपने उछलते हुए कलेजे को दबाने की कोशिश कर रही थी, मगर वह किसी तरह दम नहीं लेता था। उसके चेहरे पर भी खौफ और तरद्दुद की निशानी पायी जाती थी, जो उस समय और भी ज्यादे हो गयी जब बाबाजी ने यह कहा—"वे दोनों ऐयार कहाँ हैं, जिनके पीछे-पीछे तुम यहाँ आयी थी?" आखिर लाचार होकर मायारानी ने बातें बनाकर अपना काम निकालना चाहा और अपने को अच्छी तरह सँभालकर बातचीत करने लगी।
माया : (पीछे की तरफ इशारा करके) वे दोनों ऐयार उधर पड़े हुए हैं। मैंने अपनी हिकमत से उन्हें बेहोश करके छोड़ दिया है। केवल वे दोनों ही नहीं, बल्कि कमलिनी और लाडिली भी मय एक ऐयार के मेरे फन्दे मे आ पड़ी हैं, जिनसे यकायक इसी सुरंग में मुलाकात हो गयी थी।
बाबा : (चौंककर) कमलिनी और लाडिली!
माया : जी हाँ, शायद आपने अभी तक सुना नहीं कि लाडिली भी कमलिनी से मिल गयी।
बाबा : ओफ़! यह खबर मुझे क्योंकर मिल सकती थी, क्योंकि मैं ऐसे तहखाने में कैद था, जहाँ हवा का जाना भी मुश्किल हो सकता था। खैर, चलो मैं जरा उन ऐयारों की सूरत तो देखूँ।
अब बाबाजी उस तरफ बढ़े, जहाँ राजा गोपालसिंह, कमलिनी, लाडिली और दोनों ऐयार बेहोश पड़े थे? बाबाजी के पीछे-पीछे मायारानी और नागर भी स्याह पत्थरों को बचाती हुई उसी तरफ बढ़ीं। वहाँ की जमीन में बनिस्बत सुफेद पत्थरों के स्याह पत्थर की पटरियाँ (सिल्ली) बहुत कम चौड़ी थीं। यद्यपि बाबाजी से मायारानी डरती-दबती और साथ इसके इज्जत और कदर भी करती थी, परन्तु इस समय उसकी अवस्था में फर्क पड़ गया था। वह धड़कते हुए कलेजे के साथ चुपचाप बाबाजी के पीछे जा रही थी, मगर अपना दाहिना हाथ तिलिस्मी खंजर के कब्जे पर, जो अब उसकी कमर में था, इस तरह रक्खे हुए थी, जैसे उसे म्यान से निकालकर काम में लाने को तैयार है। शायद इसका सबब यह हो कि वह बाबाजी पर वार करने का इरादा रखती थी, क्योंकि उसे निश्चय था कि राजा गोपालसिंह को देखते ही बाबाजी बिगड़ खड़े होंगे और एक भेद का, मलामत करेंगे। साथ ही इसके बाबाजी की चाल भी बेफिक्री की न थी, वह कनखियों से आगे-पीछे अगल-बगल देखते जाते थे, और हर तरह से चौकन्ने मालूम पड़ते थे।
जब बाबाजी उन लोगों के पास पहुँचे तो मोमबत्ती की रोशनी में एक-एक को अच्छी तरह देखने लगे। जब उनकी निगाह राजा गोपालसिंह पर पड़ी, तो वे चौंके और मायारानी की तरफ देखकर बोले, "हैं, यह क्या मामला है! मैं अपनी आँखों के सामने किसे बेहोश पड़ा देख रहा हूँ!!"
माया : (लड़खड़ाई आवाज़ से) इसी के बारे में मैंने कहा था कि एक ऐयार भी आ फँसा है!
बाबा : ओफ ये राजा गोपालसिंह हैं, जिन्हें मरे कई वर्ष हो गये, नहीं नहीं, मरा हुआ आदमी कभी लौटकर नहीं आता। (कुछ रुककर) यद्यपि दुःख या रंज के सबब से इनकी सूरत में फर्क पड़ गया है, परन्तु मेरे पहिचानने में फर्क नहीं है। बेशक, यह हमारे मालिक राजा गोपालसिंह ही हैं, जिनकी नेकियों ने लोगों को अपना ताबेदार बना लिया था, जिनकी बुद्धिमानी और मिलनसारी प्रसिद्ध थी, और जिसके सबब से इनकी ताबेदारी में रहना लोग अपनी इज्जत समझते थे! ओफ, तुमने इनके बारे में हम लोगों को धोखा दिया! यद्यपि तुम्हारी बुरी चाल-चलन को मैं खूब जानता था और जानबूझकर कई कारणों से तरह दिये जाता था, मगर मुझे यह खबर न थी कि उस चाल-चलन की हद यहाँ तक पहुँच चुकी है! (गोपालसिंह की नब्ज देखकर) शुक्र है, शुक्र है कि मैं अपने मालिक को जीता पाता हूँ।
माया : बाबाजी आप जल्दी न कीजिए और बिना समझे-बूझे अपनी बातों से मुझे दुःख न दीजिए। जो मैं कहती हूँ उसे मानिए और विश्वास कीजिए कि यह बीरेन्द्रसिंह का ऐयार है और राजा की सूरत बनकर कई दिनों से रिआया को भड़का रहा है। इसकी खबर मुझे बहुत पहिले लग चुकी थी कि एक ऐयार राजा की सूरत बनकर लोगों को भड़काने के लिए आया है, जो कोई उसका सिर काटकर मेरे पास लावेगा, उसे एक लाख रुपया इनाम दूँगी। इत्तिफाक ही से यह कम्बख्त मेरे हाथ आ फँसा है।
बाबा : (कुछ सोचकर) शायद ऐसा ही हो, मगर तुमने तो कहा था कि मैं भूतनाथ और देवीसिंह के पीछे-पीछे इस सुरंग में आयी हूँ, फिर ये लोग तुम्हें कैसे मिले? क्या ये लोग पहिले ही से सुरंग में मौजूद थे?
माया : हाँ, जब मैं सुरंग में आ चुकी और भूतनाथ तथा देवीसिंह को बेहोश कर चुकी, उसके बाद शायद ये लोग (हाथ का इशारा करके) इस तरफ से यहाँ आ पहुँचे। उस समय बेहोशीवाली बारूद से निकला हुआ धुआँ यहाँ भरा हुआ था, जिसके सबब से ये लोग भी बेहोश होकर लेट गये।
बाबा : बेहोशीवाली बारूद से निकला हुआ धुआँ! क्या तुमने इन लोगों को किसी नयी रीति से बेहोश किया है?
माया : जब मैं दुःखी होकर अपने घर से भागी तो (तिलिस्मी तमंचा और गोली दिखाकर) यह तिलिस्मी तमंचा और गोली निकालकर लेती आयी थी, इसी के जरिए से चलायी हुई तिलिस्मी गोली ने अपना काम किया, आप तो इसका हाल जानते ही हैं।
बाबा : ठीक है, (राजा गोपालसिंह की तरफ देखकर) मगर मैं कैसे कहूँ कि यह बीरेन्द्रसिंह का ऐयार है! अच्छा देखो मैं अभी इसका पता लगाये लेता हूँ।
बाबाजी ने अपने झोले में से एक शीशी निकाली, जिसमें किसी तरह का अर्क था। उस अर्क से अपनी उँगली तर करके राजा गोपालसिंह के गाल में एक तिल का दाग था, लगायी और कुछ ठहरकर कपड़े से पोंछ डाला तथा फिर गौर करने के बाद बोले—
बाबा : नहीं नहीं, यह बीरेन्द्रसिंह के ऐयार नहीं हैं, इन्होंने अपने चेहरे को रँगा नहीं है और न नकली तिल का दाग ही बनाया है! अगर ऐसा होता तो इस दवा के लगाने से छूट जाता। यह बेशक, राजा गोपालसिंह हैं और तुमने इनके बारे में निःसन्देह हम लोगों को धोखा दिया!
माया : ऐसा न समझिए, बीरेन्द्रसिंह के ऐयार लोग अपने चेहरे पर कच्चा रँग नहीं लगाते। अभी हाल ही में तेजसिंह और मेरे ऐयार बिहारीसिंह को धोखा दिया, उसका चेहरा ऐसा रँग दिया था कि हजार उद्योग करने पर भी बिहारीसिंह उसे साफ़ न कर सका। इसका खुलासा हाल आप सुनेंगे तो ताज्जुब करेंगे। बीरेन्द्रसिंह के ऐयार लोग बड़े धूर्त और चालाक हैं!
बाबा : मगर नहीं, मेरी दवा बेकार जानेवाली नहीं है, हाँ, एक बात हो सकती है।
माया : वह क्या?
बाबा : शायद तुमने राजा गोपालसिंह के बारे में हम लोगों को धोखा न दिया हो और खुद ये ही हम लोगों को धोखा देकर कहीं चले गये हों।
माया : नहीं, यह भी नहीं हो सकता।
बाबा : बेशक, नहीं हो सकता। अच्छा मैं इन्हें होश में लाता हूँ, जो कुछ है, इनकी बातचीत से आपही मालूम हो जायगा।
माया : नहीं नहीं, ऐसा न कीजिए, पहिले इन सबों को इसी तरह बेहोश ले जाकर अपने बँगले में कैद कीजिए, फिर जो होगा देखा जायगा।
बाबा : मैं यह बात नहीं मान सकता!
माया : (जोर देकर) मैं जो कहती हूँ, वही करना होगा!
बाबा : कदापि नहीं, मुझे इस विषय में बहुत कुछ शक है और राजा साहब के साथ-ही-साथ मैं कमलिनी और लाडिली को भी होश में लाऊँगा।
इतना सुनते ही मायारानी की हालत बदल गयी, क्रोध के मारे उसके होंठ काँपने लगे, उसकी आँखें लाल हो गयीं और वह तिलिस्मी खंजर म्यान से निकालकर क्रोध-भरी आवाज़ में बाबाजी से बोली, "क्या तुम्हें किसी तरह की शेखी हो गयी है? क्या तुम मेरा हुक्म काट सकते हो? क्या तुम अपने को मुझसे बढ़कर समझते हो? क्या तुम नहीं जानते कि मैं तिलिस्म की रानी हूँ, जो चाहूँ सो कर सकती हूँ, और तुम मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते? लो मैं साफ़ -साफ़ कहे देती हूँ कि बेशक यह गौपालसिंह हैं। धनपत के साथ सुख भोगने और इनको सताकर तिलिस्म के भेद जानने के लिए, मैंने इन्हें कैद कर रक्खा था, मगर कम्बख्त कमलिनी ने इन्हें कैद से छुड़ा दिया। अब मैं तुम्हारे सामने इन सभों का सिर काटकर अपना गुस्सा मिटाऊँगी, और तुम मेरा कुछ भी नहीं कर सकते, अगर ज्यादे सिर उठाओगे तो (खंजर दिखाकर) इसी खंजर से पहिले तुम्हारा काम तमाम करूँगी!"
बाबा : (हँसकर) बस-बस, बहुत उछल-कूद न करो। यद्यपि मैं बुड्ढा हूँ, तथापि तुम दोनों औरतों से किसी तरह हार नहीं सकता। मैं वही करूँगा, जो मेरे जी में आवेगा। यदि तुम इस तिलिस्म की रानी हो तो मैं भी तिलिस्म का दारोगा हूँ, मेरे पास भी बहुत-सी आनूठी चीज़ें हैं, इसके अतिरिक्त तुम मुझसे बिगाड़ करके कुछ फायदा भी नहीं उठा सकतीं और अब तो तुमने साफ़ कबूल कर दिया कि...
माया : (बात काटकर) हाँ हाँ, कबूल दिया और फिर भी कहती हूँ कि तुम्हारे बिना मेरा कुछ हर्ज नहीं हो सकता। तुम्हे अपने दारोगापन की शेखी है तो देखो, मैं अपनी ताकत तुमको दिखाती हूँ!
इतना कहकर मायारानी ने तिलिस्म का खंजर का कब्जा दबाया। उसमें से बिजली की तरह चमक पैदा हुई और कब्जा ढीला किया तो चमक बन्द हो गयी, मगर बाबाजी पर इसका कुछ असर न हुआ, जिससे मायारानी को बड़ा ताज्जुब हुआ। आखिर उसने बेहोश करने की नीयत से तिलिस्मी खंजर बाबाजी के बदन से लगाया, मगर इससे भी कुछ नतीजा न निकला, बाबाजी ज्यों-के-त्यों खड़े रह गये। अब तो मायारानी के ताज्जुब का कोई ठिकाना न रहा और वह घबराकर बाबाजी का मुँह देखने लगी। अगर तिलिस्मी खंजर में से चमक न पैदा होती तो उसे शक होता कि यह तिलिस्मी खंजर शायद वह नहीं है, जिसकी तारीफ भूतनाथ ने की थी, मगर अब वह इस खंजर पर किसी तरह का शक नहीं कर सकती थी।
बाबा : (हँसकर) कहो मेरा घमण्ड वाजिब है या नहीं!
माया : (तिलिस्मी खंजर की तरफ देखकर) शायद इसमें कुछ...
बाबा : (बात काटकर) नहीं नहीं, इस खंजर के गुण में किसी तरह का फर्क नहीं पड़ा। मैं इस खंजर को खूब जानता हूँ। यद्यपि तुम्हारे लिए यह एक नयी चीज़ है, परन्तु मैं अपने (राजा गोपालसिंह की तरफ इशारा करके) इस मालिक की बदौलत इसी प्रकार और गुण के कई खंजर, कटार, तलवार और नेजे देख चुका हूँ, और उनसे काम भी ले चुका हूँ, मगर जब मैं तिलिस्मी कामों में सिद्ध के बराबर हो गया, तब मेरे दिल से ऐसी तुच्छ चीज़ों की कदर और इज्जत जाती रही। तुम देखती हो कि इस खंजर का मुझ पर कुछ भी असर नहीं होता। असल तो यह है कि तुम मेरी ताकत को नहीं जानती हो, तुम्हें नहीं मालूम है कि खाली हाथ रहने पर भी मैं क्या कर सकता हूँ! बस मैं अपनी ताकत का हाल उचित नहीं समझता, परन्तु अफसोस, तुम मुझी को मारने के तैयार हो गयी! खैर, कोई चिन्ता नहीं, आज तक मैं तुम्हारी इज्जत करता रहा, और तुमने जो-कुछ भला-बुरा किया, उसे देखकर भी तरह देता गया, मगर अब देखता हूँ तो तुम...
माया : (बात काटकर) सुनिए सुनिए, आप जो कुछ कहेंगे मैं समझ गयी। मेरी यह नीयत न थी कि आपकी जान लूँ, क्योंकि केवल आपही के भरोसे पर मैं कूद रही हूँ, और आपही के मदद से बड़े-बड़े बहादुरों को मैं कुछ नहीं समझती। यह तो साफ़ जाहिर है कि थोड़े ही दिन में आप और इसी बीच में मेरी यह दुर्दशा हो गयी। मैं आपको पिता के समान मानती हूँ, इसलिए आशा ही कि (हाथ जोड़कर) इस समय जो कुछ मुझसे भूल हो गयी, उसे आप बाल-बच्चों की भूल के समान मानकर क्षमा करेंगे, मगर इस कसूर से मेरा असल मतलब सिर्फ इतना ही था कि किसी तरह राजा गोपालसिंह के मारने पर आपको राजी करूँ।
बाबाजी पर तिलिस्मी खंजर का कुछ भी असर न होते देख मायारानी का कलेजा धड़कने लगा, वह बहुत डरी और उसे विश्वास हो गया कि तिलिस्मी कारखाने में जितना बाबाजी को दखल और जानकारी है, उसका सोलहवाँ हिस्सा भी उसको नहीं है, और उसी के साथ तिलिस्मी चीज़ों से बाबाजी ने बहुत कुछ फायदा भी उठाया है। यह भी उसी फायदे का असर है कि राजा बीरेन्द्रसिंह की कैद से सहज ही में छूट आये और ऐसे अद्भुत तिलिस्मी खंजर को तुच्छ समझते हैं, तथा इसका असर इनपर कुछ भी नहीं होता। अब वह इस बात को सोचने लगी कि उसे बाबाजी से बिगाड़ करना उचित नहीं, बल्कि जिस तरह हो सके उन्हें राजी करना चाहिए, फिर मौका मिलने पर जैसा होगा, देखा जायगा।
ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातें मायारानी तेजी के साथ लोच गयी और उसी सबब से वह अधीनता के साथ बाबाजी से बातें करने लगी। जब अपनी बात खतम करके चुप हो गयी तो बाबाजी ने मुस्कुरा दिया और कुछ सोचकर कहा, "खैर, मैं तुम्हारे इस कसूर को माफ करता हूँ, मगर यह नहीं चाहता कि राजा गोपालसिंह को किसी तरह की तकलीफ हो, जिन्हें मुद्दत के बाद मैं इस अवस्था में देख रहा हूँ।"
माया : तब आपने माफ ही क्या किया? यद्यपि आपको इस बात का रंज है कि मैंने गोपालसिंह के साथ दगा किया और यह भेद आपसे छिपाये रक्खा,मगर आप भी तो जरा पुरानी बातों को याद कीजिए! खास करके उस अँधेरी रात की बात, जिसमें मेरी शादी और पुतले की बदलौवन हुई थी! वह सब कर्म तो आप ही का है! आपही ने मुझे यहाँ पहुँचाया। अब अगर मेरी दुर्दशा होगी तो क्या आप बच जायेंगे? फिर मान लिया जाय कि आप गोपालसिंह को बचा भी लें तो क्या ‘लक्ष्मीदेवी’ का बचके निकल जाना, आपके लिए दुःखदायी न होगा? और जब इस बात की खबर गोपालसिंह को होगी तो क्या वे आप को छोड़ देंगे? बेशक, जो कुछ आज तक मैंने किया है, सब आपही का कसूर समझा जायगा। मैंने इस बात का पता न लग जाय कि दारोगा की करतूत लक्ष्मीदेवी की जगह...
इतना कहकर मायारानी चुप हो गयी और बड़े गौर से बाबाजी की तरफ देखने लगी, मानो इस बात का पता लगाना चाहती है कि बाबाजी के दिल पर उसकी बातों का क्या असर हुआ। दारोगा साहब भी मायारानी की बातें सुनकर तरद्दुद में पड़ गये और न मालूम क्या सोचने लगे। थोड़ी देर बाद दारोगा ने सिर उठाया और मायारानी की तरफ देखकर कहा, :अच्छा अब विशेष बातों की कोई जरूरत नहीं है, मैं वादा करता हूँ कि गोपालसिंह के बारे में तुम पर किसी तरह का दबाव न डालूँगा और इससे ज्यादे कुछ न कहूँगा कि इनके मारने का विचार न करे, थोड़े दिनों तक इन्हें कैद ही में रखना आवश्यक है, बल्कि कमलिनी, लाडिली, भूतनाथ और देवीसिंह को भी कैद में रखना चाहिए। हाँ, जब मैं उन आफतों को दूर कर लूँ, जिनके कारण तुम्हें अपना राज्य छोड़ना पड़ा और तुम्हें फिर उसी दर्जे पर पहुँचा दूँ, तब जो तुम्हारे जी में आवे करना। बस बस, इसमें दखल मत दो और जो मैंने कहा है, उसे करो नहीं तो तुम्हें पूरा-पूरा सुख कदापि न मिलेगा!"
माया : खैर, ऐसा ही सही, मगर यह तो कहिए कि इन लोगों को कैद कहाँ कीजिएगा?
बाबा : इसके लिए मेरा बँगला बहुत मुनासिब है।
माया : और मेरे रहने के लिए कौन-सा ठिकाना सोच रक्खा है?
बाबा : वाह, क्या तुम समझती हो कि तुम्हें बहुत दिनों तक अपने राज्य से अलग रहना पड़ेगा? नहीं, दो ही तीन दिन में मैं उन सभों का मुँह काला करूँगा, जो तुम्हारे नौकर होकर तुमसे खिलाफ हो रहे हैं, और तुम्हें फिर उसी दर्जे पर बिठाऊँगा, जिस पर मेरे सामने तुम थीं। हाँ, एक चीज़ के बिना हर्ज जरूर होगा।
माया : वह क्या? शायद आपका मतलब अजायबघर की ताली से है!
बाबा : हाँ, मेरा मतलब अजायबघर की ताली ही से है, क्या तुम अपने महल ही में छोड़ आयी हो?
माया : जी नहीं, वह मेरे पास है, जब मैं लाचार होकर घर से भागी तो एक वही चीज़ थी, जिसे मैं अपने साथ ला सकी।
बाबा : वाह, वाह, यह बड़ी खुशी की बात तुमने कही। अच्छा वह ताली मेरे हवाले करो तो और कुछ बातें होंगी।
माया : (अजायबघर की ताली बाबाजी को देकर) लीजिए तैयार है, अब जहाँ तक जल्द हो सके, यहाँ से निकल चलना चाहिए।
बाबा : हाँ हाँ, मैं भी यही चाहता हूँ, भला यह तो कहो कि यह तिलिस्मी खंजर तुमने कहाँ से पाया?
माया : यह तिलिस्मी खंजर कमलिनी ने भूतनाथ और गोपालसिंह को दिया था, जो इन सभों के बेहोश हो जाने पर मुझे मिला। एक तो मैंने लिया और दूसरा नागर को दे दिया है। मैंने सुना है कि इसी तरह के और भी कई खंजर कमलिनी ने अपने साथियों को बाँटे हैं, मगर मालूम नहीं इस समय वे कहाँ हैं।
बाबा : ठीक है, खैर, यह काम तुमने बहुत ही अच्छा किया कि अजायबघर की ताली अपने साथ लेती आयी, नहीं तो बड़ा हर्ज होता।
माया : जी हाँ।
मायारानी अजायबघर की ताली के बारे में भी दारोगा से झूठ बोली यद्यपि उसने यह ताली भूतनाथ को दे दी और इस समय गोपालसिंह के पास से पायी थी, परन्तु भूतनाथ का नाम लेना उसने उचित न जाना क्योंकि उसने यह ताली भूतनाथ को राजा गोपालसिंह की जान लेने के बदले में दी थी और यह बात बाबाजी से कहना उसे मंजूर न था, इससे वह इस समय बहाना कर गयी।
मायारानी और नागर को साथ लिये हुए, बाबाजी वहाँ से रवाना हुए और उस खम्भे के पास पहुँचे, जिस पर गड़ारीदार पहिया लगा हुआ था। अब मायारानी बड़ी उत्कण्ठा से देखने लगी कि बाबाजी किस तरह से दरवाज़ा खोलते हैं, और इसलिए जब बाबाजी ने गड़ारीदार पहिए को घुमाकर सुरंग का दरवाज़ा खोला तो मायारानी को बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि इसी पहिए को वह कई दफे उलट-फेरकर घुमा चुकी थी, मगर दरवाज़ा नहीं खुला था। मायारानी ने बड़े आग्रह से इसका सबब बाबाजी से पूछा और कहा कि ‘इसी पहिए को मैं पहिले कई दफे घुमा चुकी थी, मगर दरवाज़ा न खुला, इस समय क्योंकर खुल गया’? इसके जवाब में बाबाजी हँसकर बोले, "इसका सबब किसी दूसरे वक्त तुमसे कहूँगा क्योंकि समझाने में बहुत देर लगेगी और पहिले उन कामों को बहुत जल्द कर लेना चाहिए, जिनका करना आवश्यक है।
यह जवाब सुनकर मायारानी चुप हो गयी और यह सोच लिया कि खैर, किसी दूसरे समय इसका पता लग जायगा, क्योंकि इस समय वह बाबाजी से बहुत ही दबी हुई थी और किसी बात में जिद्द करना उचित नहीं समझती थी। उधर बाबाजी ने भी दरवाज़ा खोलने का भेद जान-बूझकर मायारानी से छिपा रक्खा था, क्योंकि उसका भेद खोलना उन्हें मंजूर न था। यद्यपि मायारानी को उसका भेद मालूम न हुआ, मगर हम अपने पाठकों को दरवाज़ा खोलने का भेद बताये देते हैं। लोहे के खम्भें पर जो गराड़ीदार पहिया था, उसके घूमने से दरवाज़ा बन्द हो जाता था, परन्तु खोलने के समय उसे एक बँधे हुए अन्दाज में घुमाना पड़ता था। उस पहिए को इक्कीस दफे बायीं तरफ, इसके बाद बारह दफे दाहिनी तरफ, और नौ दफे बायीं तरफ घुमाने से दरवाज़ा खुलता था। अगर इससे कुछ भी कम या ज्यादे पहिया घूम जाय तो दरवाज़ा नहीं खुलता था। दरवाज़ा खोलते समय बाबाजी ने बड़ी तेजी के साथ गिनकर पहिया घुमाया और मायारानी का उसकी गिनती की तरफ कुछ भी ध्यान न था, इसीलिए वह इस बात को समझ न सकी।
मायारानी और नागर को साथ लिए हुए बाबाजी सुरंग के बाहर निकले तो सवेरा हो चुका था, मगर सूर्य अभी नहीं निकला था। टीले पर से देखा तो चारों तरफ मैदान में सन्नाटा था, इसलिए राय हुई कि इसी समय गोपालसिंह, भूतनाथ, देवीसिंह, कमलिनी और लाडिली को निकाल कर बँगले में पहुँचा देना चाहिए। नागर दौड़ी हुई चली गयी और लीला तथा लौंडियों को बुला लायी और इसके सभों ने मिलकर पाँचों कैदियों को सुरंग से निकालकर दारोगावाले बँगले में पहुँचाया।
अब यह विचार होने लगा कि पाँचों कैदियों को किस जगह कैद करना चाहिए, बाबाजी की राय हुई कि पाँचों कैदियों को अजायबघर की ड्यौढ़ी* में बन्द करना चाहिए, मगर मायारानी ने कुछ सोच-विचारकर कहा कि नहीं इन लोगों को मेगजीन के बगलवाले तहखाने में कैद करना चाहिए। मायारानी की बात सुनकर बाबाजी के होठ फड़कने लगे और माथे पर दो-एक बल पड़ गये, जिससे मालूम होता था कि उनको क्रोध चढ़ आया है, मगर उन्होंने बहाने के साथ दूसरी तरफ देखकर बहुत जल्द अपने को सम्हाला, जिससे सूरत देखकर मायारानी को उनके दिल का हाल कुछ मालूम न हो। बाबाजी को चुप देखकर मायारानी ने फिर टोका और कहा कि कैदियों को मेगजीन के बगलवाले तहखाने में बन्द करना उचित होगा, जिस पर बाबाजी ने हँसकर जवाब दिया, "बहुत अच्छा, जो तुम कहती हो वही होगा।" (*अजायबघर की ड्योढ़ी से उसी कोठरी से मुराद है, जिसमें धनपत और मायारानी को भूतनाथ उस समय ले गया था, जब राजा गोपालसिंह को मारने का वादा किया था। उसी कोठरी में राजा गोपालसिंह की नकली लाश दिखायी गयी थी। देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, आठवाँ भाग, ग्यारहवाँ बयान।)
हम ऊपर लिख आये हैं कि इस मकाने के चारों कोनों में चार कोठरियाँ और चारों तरफ चार दालान हैं। बँगले में जाने के लिए, जो सदर दरवाज़ा है, उसके बायें तरफ वाली कोठरी के नीचे दो तहखाने हैं। एक तो मेगजीन के साथ पुकारा जाता है, और उसमें बारूद तथा छोटी-छोटी कई तोपें रक्खी हुई हैं ; और उसी के साथ सटा हुआ जो दूसरा तहखाना है, उसमें बाबाजी का खजाना रहता रहता है। उसी खजानेवाले तहखाने में कैदियों को कैद करने की राय मायारानी ने दी थी और बाबाजी ने यह बात मंजूर कर ली थी।
बाबाजी उस कोठरी के अन्दर गये। वहाँ दोनों तरफ की दीवारों में दो दरवाज़े थे जिन्हें दोनों तहखानों का दरवाज़ा कहना चाहिए। दाहिनी तरफ के दरवाज़े को किसी गुप्त रीति से बाबाजी ने खोला और नागर, लीला तथा लौंडियों की मदद से पाँचों कैदियों को उनके ऐयारों के बटुए सहित तहखाने में पहुँचाकर बाहर निकल आये और दरवाज़ा बन्द कर दिया। बाहर निकलती समय तहखाने में ताँबे का एक घड़ा भी लेते आये और मायारानी की तरफ देखकर बोले, "अब कैदियों के लिए कुछ खाने-पीने का सामान भी कर देना चाहिए, इसी घड़े में जल और थोड़े-से जंगली फल वहाँ रखवा देता हूँ जो तीन दिन के लिए काफी होगा, फिर देखा जायगा। (लौंडियों की तरफ देखकर) जाओ तुम लोग थोड़े-से फल बहुत जल्द तोड़ लाओ।" आज्ञानुसार लौंडियाँ चारों तरफ चली गयीं और बात-की-बात में बहुत-से फल तोड़कर ले आयीं। एक कपड़े में बाँधकर वही फल और जल से भरा हुआ घड़ा हाथ में लिये हुए बाबाजी फिर उसी तहखाने में उतरे, मगर अबकी दफे किसी को साथ न ले गये, बल्कि अन्दर जाती दफे दरवाज़ा भीतर से बन्द कर लिया और आधी घड़ी से ज्यादे देर के बाद तहखाने से बाहर निकले। मायारानी ने ताज्जुब में आकर पूछा कि ‘आपको तहखाने में इतनी देर क्यों लगी? इसके जवाब में बाबाजी ने कहा कि ‘कैदियों के बटुओं की तलाशी ले रहा था, मगर कोई चीज़ मेरे मतलब की न निकली’।
इस समय मायारानी का चेहरा फतहमन्दी की खुशी से दमक रहा था। उसे केवल इसी बात की खुशी न थी कि उसने राजा गोपालसिंह और अपनी दोनों बहिनों तथा ऐयारों को कैद कर लिया था, बल्कि उसकी खुशी का सबब कुछ और भी था। थोड़ी ही देर पहिले, उसे इस बात का रंज था कि कमबख्त दारोगा ने यकायक पहुँचकर हमारे काम में विघ्न डाल दिया नहीं तो गोपालसिंह तथा कमलिनी और लाडिली को मारकर मैं हमेशा के लिए निश्चिन्त हो जाती, मगर अब उसे इन बातों का रंज नहीं है और यह उसकी मुस्कुराहट से साफ़ जाहिर हो रहा है।
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