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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

दसवाँ बयान


राजा गोपालसिंह तथा कमलिनी और लाडिली को हम देवमन्दिर में छोड़ आये हैं। वे तीनों भूतनाथ के आने की उम्मीद में देर तक देवमन्दिर में रहे, मगर जब भूतनाथ न आया तो लाचार होकर कमलिनी ने गोपालसिंह से कहा—

कमलिनी : मालूम होता है कि भूतनाथ किसी काम में फँस गया। खैर, अब हम लोगों को यहाँ व्यर्थ बैठे रहना उचित नहीं, क्योंकि अभी बहुत कुछ काम करना बाकी है।

गोपाल : ठीक है, मगर जहाँ तक मैं समझता हूँ तुम्हारे करने योग्य इस समय कोई काम नहीं हैं, क्योंकि दोनों कुमार तिलिस्म के अन्दर जा ही चुके हैं, और बिना तिलिस्म तोड़े अब उनका बाहर निकलना कठिन है, हाँ, कमबख्त मायारानी के विषय में बहुत कुछ करना है, सो उनके लिए मैं अकेला काफी हूँ, इसके अतिरिक्त और जो कुछ काम है, उसे ऐयार लोग बखूबी कर सकते हैं।

कमलिनी : आपकी बातों से पाया जाता है कि मेरे यहाँ रहने की अब कोई आवश्यकता नहीं।

गोपाल : बेशक, मेरे कहने का यही मतलब है।

कमलिनी : अच्छा तो मैं लाडिली को साथ लेकर अपने घर* जाती हूँ, उधर ही से रोहतासगढ़ पर ध्यान रक्खूँगी। (*वही तिलिस्मी मकान जो तालाब के अन्दर है।)

गोपाल : हाँ, तुम्हें वहाँ अवश्य जाना चाहिए क्योंकि किशोरी और कामिनी भी उसी मकान में पहुँचा दी गयी हैं, उनसे जब तक न मिलोगी, तब तक वे बेचैन रहेंगी, इसके अतिरिक्त कई, कैदियों को भी तुमने वहाँ भेजवाया है, उनकी भी खबर लेनी चाहिए।

कमलिनी : अच्छा थोड़ी देर तक भूतनाथ की राह और देख लीजिए।

आधी रात बीत जाने के बाद तीनों आदमी वहाँ से रवाना हुए। पहिले उस गोल खम्भे के पास आये जो कमरे के बीचोबीच में था और जिस पर तरह-तरह की मूरतें बनी हुई थीं। राजा गोपालसिंह ने एक मूरत पर हाथ रखकर जोर से दबाया, साथ ही एक छोटी-सी खिड़की अन्दर जाने के लिए दिखायी दी। दोनों सालियों को साथ लिये हुए गोपालसिंह उस खिड़की के अन्दर घुस गये। जहाँ नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। यद्यपि उसके अन्दर एकदम अँधेरा था, मगर तीनों आदमी अन्दाज से उतरते चले गये, जब नीचे एक कोठरी में पहुँचे तो गोपालसिंह ने मोमबत्ती जलायी। मोमबत्ती जलाने का सामान उसी कोठरी में एक आले पर रक्खा हुआ था, जिसे अँधेरे में ही गोपालसिंह ने खोज लिया था। वह कोठरी लगभग दस हाथ के चौड़ी और इतनी ही लम्बी होगी। चारों तरफ दीवार में चार दरवाज़े बने हुए थे और छत में दो जंजीरें लटक रही थीं। गेपालसिंह ने एक जंजीर हाथ से पकड़कर खींची, जिससे गोल खम्भे वाला दरवाज़ा बन्द हो गया, जिस राह से तीनों नीचे उतरे थे। इसके बाद गोपालसिंह उत्तर तरफ वाली दीवार के पास गये और दरवाज़ा खोलने का उद्योग करने लगे। उस दरवाज़े में ताँबे की सैकड़ों कीलें गड़ी हुई थीं और हर कील के मुँह पर उभड़ा हुआ एक-एक अक्षर बना हुआ था। यह दरवाज़ा उसी सुरंग में जाने के लिए था, जो दारोगावाले बंगले के पीछेवाले टीले तक पहुँची हुई थी, या जिस सुरंग के अन्दर भूतनाथ और देवीसिंह का जाना ऊपर के बयान में हम लिख आये हैं। गोपालसिंह ने दरवाज़े में लगी हुई कीलों को दबाना शुरू किया। पहिले उस कील को दबाया, जिसके सिरे पर ‘हे’ अक्षर बना हुआ था, इसके बाद ‘र’ अक्षर की कील को* वही तिलिस्मी मकान को तालाब के अन्दर है। दबाया, फिर ‘म’ और ‘ब’ अक्षर के कील को दबाया ही था कि दरवाज़ा खुल गया और दोनों साथियों को साथ लिये हुए गोपालसिंह उसके अन्दर चले गये तथा भीतर जाकर हाथ के जोर से दरवाज़ा बन्द कर दिया। इस दरवाज़े के पिछली तरफ भी वे ही बातें थीं, जो बाहर थीं अर्थात् भीतर से भी उसमें वैसी ही कीलें जड़ी हुई थीं। भीतर चार-पाँच कदम जाने के बाद सुरंग की जमीन स्याह और सुफेद पत्थर से बनी हुई मिली और उसी जगह गोपालसिंह, कमलिनी और लाडिली ने पत्थरों को बचाना शुरू किया, अर्थात् सुफेद पत्थरों पर पैर रखते हुए रवाना हुए और दो घण्टे तक बराबर चले जाने के बाद उस जगह पहुँचे जहाँ भूतनाथ और देवीसिंह खड़े थे। ये लोग भी ठीक उसी समय वहाँ पहुँचे, जब मायारानी की चलायी हुई गोली में से जहरीला धुआँ निकलकर सुंरग में फैल चुका था और दोनों ऐयार बेहोशी के असर से झूम रहे थे। कमलिनी, लाडिली तथा राजा गोपालसिंह इस धुएँ से बिल्कुल बेखबर और उन्हें इस बात का गुमान भी न था कि मायारानी ने इस सुरंग में पहुँचकर तिलिस्मी गोली चलायी है, क्योंकि गोली चलाने के बाद तुरन्त ही मायारानी ने अपने हाथ की मोमबत्ती बुझा दी थी।

राजा गोपालसिंह ने वहाँ पहुँचकर भूतनाथ और देवीसिंह को देखा।

कमलिनी ने भूतनाथ को पुकारा मगर बेहोशी का असर हो जाने के कारण उसने कमलिनी की बात का जवाब न दिया, बल्कि देखते-देखते भूतनाथ और देवीसिंह बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। कमलिनी, लाडिली और गोपालसिंह के भी नाक और मुँह में वह धुआँ गया, मगर ये उसे पहिचान न सके और भूत तथा देवीसिंह के बेहोश हो जाने के बाद ही, ये तीनों भी बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े।

आधी घड़ी तक राह देखने के बाद मायारानी और नागरे ने मोमबत्ती जलायी। खुशी-खुशी उन दोनों औरतों ने बेहोशी से बचाने वाली दवा अपने मुँह में रक्खी और स्याह पत्थरों से अपनों को बचाती हुई वहाँ पहुँची, जहाँ कमलिनी, लाडिली, गोपालसिंह, भूतनाथ, और देवीसिंह बेहोश पड़े हुए थे।

अहा, इस समय मायारानी की खुशी का कोई ठिकाना है! इस समय उसकी किस्मत का सितारा फिर से चमक उठा। उसने हँसकर नागर की तरफ देखा और कहा-

माया : क्या अब भी मुझे किसी का डर है?

नागर : आज मालूम हुआ कि आपकी किस्मत बड़ी जबर्दस्त है। अब दुनिया में कोई भी आपका मुकाबला नहीं कर सकता। (भूतनाथ की तरफ देखकर) देखिए, इस बेइमान की कमर में वही तिलिस्मी खंजर है जो कमलिनी ने इसे दिया था। अहा, इससे बढ़कर दुनिया में और क्या अनूठी चीज़ होगी!!

माया : इस कमबख्त ने मुझसे कहा था कि कमलिनी ने गोपालसिंह को भी एक तिलिस्मी खंजर दिया है। (गोपालसिंह को अच्छी तरह देखकर) हाँ हाँ, इसकी कमर में भी वही खंजर है! ताज्जुब नहीं कि कमलिनी और लाडिली की कमर में भी इसका जोड़ा हो। (कमलिनी, लाडिली और देवीसिंह की तरफ ध्यान देकर) नहीं नहीं, और किसी के पास नहीं है। खैर, दो खंजर तो मिले, एक मैं रक्खूँगी और एक तुझे दूँगी। इसमें जो-जो गुण हैं, भूतनाथ की जुबानी सुन ही चुकी हूँ, अच्छा भूतनाथ का खंजर तू ले ले और मैं इसका मैं लेती हूँ।

खुशी-खुशी मायारानी ने पहिले गोपालसिंह की उँगली से वह अँगूठी उतारी, जो तिलिस्मी खंजर की जोड़ की थी, और इसके बाद कमर से खंजर निकालकर अपने कब्जे में किया। नागर ने भी पहिले भूतनाथ के हाथ से अँगूठी उतारकर पहिन ली और तब खंजर पर कब्जा किया। मायारानी ने हँसकर नागर की तरफ देखा और कहा, "अब इसी खंजर से इन पाँचों को इस दुनिया से उठाकर हमेशा के लिए निश्चिन्त होती हूँ!"

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