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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

तीसरा बयान


तेज़सिंह के लौट आने से राजा बीरेन्द्रसिंह बहुत खुश हुए और उस समय तो उनकी खुशी और भी ज़्यादे हो गयी जब तेज़सिंह ने रोहतासगढ़ आकर अपनी कार्रवाई करने का खुलासा हाल कहा। रामानन्द की गिरफ़्तारी का हाल सुनकर हँसते-हँसते लोट गये मगर साथ इसके यह सुनकर कि कुँअर इन्द्रजीतसिंह का पता रोहतासगढ़ में नहीं लगता बल्कि मालूम होता है कि रोहतासगढ़ में नहीं हैं, राजा बीरेन्द्रसिंह उदास हो गये। तेज़सिंह ने उन्हें हर तरह से समझाया और दिलासा दिया। थोड़ी देर बाद तेज़सिंह ने अपने दिल की वे सब बातें कहीं जो वे किया चाहते थे, बीरेन्द्रसिंह ने उनकी राय बहुत पसन्द की और बोले—

बीरेन्द्र : तुम्हारी कौन-सी ऐसी तरकीब है जिसे मैं पसन्द नहीं कर सकता। हाँ, यह कहो कि इस समय अपने साथ किस ऐयार को ले जाओगे?

तेज़ : मुझे तो इस समय कई ऐयारों की ज़रूरत थी मगर यहाँ केवल चार मौजूद हैं और बाक़ी सब कुँअर इन्द्रजीतसिंह का पता लगाने गये हैं, ख़ैर कोई हर्ज़ नहीं! पण्डित बद्रीनाथ को तो इसी लश्कर में रहने दीजिए, उन्हें किसी दूसरी जगह भेजना मैं मुनासिब नहीं समझता क्योंकि यहाँ बड़े ही चालाक और पुराने ऐयार का काम है, बाक़ी ज्योतिषीजी, भैरो और तारा को मैं अपने साथ ले जाऊँगा।

बीरेन्द्र : अच्छी बात है, इन तीनों से तुम्हारा काम बखूबी चलेगा।

तेज़ : जी नहीं, मैं तो तीनों ऐयारों को अपने साथ नहीं रक्खा चाहता बल्कि भैरो और तारा को तो वहाँ का रास्ता दिखाकर वापस कर दूँगा, इसके बाद वे दोनों थोड़े से लड़ाकों को मेरे पास पहुँचाकर फिर आपको या कुँअर आनन्दसिंह को लेकर मेरे पास आवेंगे, तब वह सब कार्रवई की जायगी जो मैं आपसे कह चुका हूँ।

बीरेन्द्र : और यह दारोग़ा वाली किताब तो तुम ले आये हो क्या होगी?

तेज़ : इसे फिर अपने साथ ले जाँऊगा और मौका मिलने पर शुरू से आखीर तक पढ़ जाऊँगा, यही तो एक चीज़ हाथ लगी है।

बीरेन्द्र : बेशक उम्दा चीज़ है, (किताब तेज़सिंह के हाथ से लेकर) रोहतासगढ़ तहख़ाने का कुछ हाल इससे तुम्हें मालूम हो जायगा बल्कि इसके अलावे वहाँ का और भी बहुत कुछ भेद मालूम होगा।

तेज़ : जी हैँ, इसमें दारोग़ा ने रोज़-रोज का हाल लिखा है, मैं समझता हूँ वहाँ ऐसी-ऐसी और भी कई किताबें होंगी जो इसके पहिले के दारोग़ाओं के हाथ से लिखी गयी होंगी।

बीरेन्द्र : ज़रूर होंगी, और इससे उस तहख़ाने के ख़जाने का भी पता लगता है।

तेज़ : लीजिए अब वह ख़ज़ाना भी हमीं लोगों का हुआ चाहता है! अब हमें यहाँ देर न करके बहुत जल्द वहाँ पहुँचना चाहिए, क्योंकि दिग्विजयसिंह मुझे और दारोग़ा को अपने पास बुला गया था, देर हो जाने पर वह फिर तहख़ाने में आवेगा और किसी को न देखेगा तो सब काम ही चौपट हो जायगा।

बीरेन्द्र : ठीक है अब तुम जाओ देर मत करो।

कुछ जलपान करने के बाद ज्योतिषीजी, भैरोसिंह और तारासिंह को साथ लिये हुए तेज़सिंह वहाँ से रोहतासगढ़ की तरफ़ रवाना हुए और दो घण्टे दिन रहते ही तहख़ाने में जा पहुँचे। अभी तक तेज़सिंह रामानन्द की सूरत में थे। तहख़ाने का रास्ता दिखाने के बाद भैरोसिंह और तारासिंह को तो वापिस कर दिया और ज्योतिषीजी को अपने पास रक्खा। अपकी दफे तहख़ाने से बाहर निकलनेवाले दरवाज़े में तेज़सिंह ने ताला नहीं लगाया, उन्हें केवल खटकों पर बन्द रहने दिया।

दारोग़ा वाले रोज़नामचे के पढ़ने से तेज़सिंह को बहुत-सी बातें मालूम हो गयीं जिसे यहाँ लिखने की कोई ज़रूरत नहीं, समय-समय पर आप ही मालूम हो जायगा, हाँ उनमें से एक बात यहाँ लिख देना ज़रूरी है। जिस दालान में दारोग़ा रहता था उसमें एक खम्भे के साथ लोहे की एक तार बँधी हुई थी जिसका दूसरा सिरा छत में सूराख करके ऊपर की तरफ़ निकाल दिया गया था। तेज़सिंह को किताब पढ़ने से मालूम हुआ कि इस तार को खैंचने या हिलाने से वह घण्टा बोलेगा जो ख़ास दिग्विजयसिंह के दीवानख़ाने में लगा हुआ है क्योंकि उस तार का दूसरा सिरा उसी घण्टे से बँधा है। जब किसी तरह की ज़रूरत की मदद पड़ती थी तब दारोग़ा उस तार को छेड़ता था। उस दालान के बगल की एक कोठरी के अन्दर भी एक बड़ा-सा घण्टा लटकता था जिसके साथ बँधी हुई लोहे की तार का दूसरा हिस्सा महाराज के दीवानख़ाने में था। महाराज भी जब तहख़ाने वालों को होशियार किया चाहते थे या और कोई ज़रूरत पड़ती थी तो ऊपर लिखी रीति से वह तहख़ाने वाला घण्टा भी बजाया जाता और यह काम केवल महाराज का था क्योंकि तहख़ाने का हाल बहुत गुप्त था, तहख़ाना कैसा है और उसके अन्दर क्या होता है यह हाल सिवाय ख़ास-ख़ास आठ-दस आदमियों के और किसी को भी न मालूम था, इसके भेद मन्त्र की तरह गुप्त रक्खे जाते थे।

हम ऊपर लिख आये हैं कि असली रामानन्द को ऐयार समझकर महाराज दिग्विजयसिंह तहख़ाने में ले आये और लौटकर जाती समय नकली रामानन्द अर्थात् तेज़सिंह और दारोग़ा को कहते गये कि तुम दोनों फुरसत पाकर हमारे पास आना।

महाराज के हुक़्म की तामील न हो सकी क्योंकि दारोग़ा को क़ैद कर तेज़सिंह अपने लश्कर में ले गये और ज़्यादे हिस्सा दिन का उधर ही बीत गया था जैसा कि हम ऊपर लिख आये हैं। जब तेज़सिंह लौटकर तहख़ाने में आये तो ज्योतिषीजी को बहुत-सी बातें समझायीं और उन्हें दारोग़ा बनाकर गद्दी पर बैठाया, उसी समय सामने की कोठरियों में से खटके की आवाज़ आयी। तेज़सिंह समझ गये कि महाराज आ रहे हैं, ज्योतिषीजी को तो लिया दिया और कहा कि ‘तुम हाय-हाय करो, मैं महाराज से बातचीत करूँगा’। थोड़ी देर के बाद महाराज उस तहख़ाने में उसी राह से पहुँचे जिस राह से तेज़सिंह को साथ लाये थे।

महा : (तेज़सिंह की तरफ़ देखकर) रामानन्द, तुम दोनों को हम अपने पास आने का हुक़्म दे गये थे, क्यों नहीं आये, और इस दारोग़ा को क्या हो गया जो हाय हाय कर रहा है।

तेज़ : महाराज इन्हीं के सबब से तो आना नहीं हुआ। यकायक बेचारे के पेट में दर्द पैदा हो गयी, बहुत-सी तरकीबें करने के बाद अब कुछ आराम हुआ है।

महा : (दारोग़ा के हाल पर अफ़सोस करने के बाद) उस ऐयार का कुछ हाल मालूम हुआ?

तेज़ : जी नहीं, उसने कुछ भी नहीं बताया, ख़ैर क्या हर्ज़ है, दो एक दिन में पता लग ही जायगा। ऐयार लोग ज़िद्दी तो होते ही हैं।

थोड़ी देर बाद महाराज दिग्विजयसिंह वहाँ से चले गये। महाराज के जाने के बाद तेज़सिंह भी तहख़ाने के बाहर हुए और महाराज के पास गये। दो घण्टे तक हाज़िरी देकर शहर में गश्त करने के बहाने से बिदा हुए। पहर रात से कुछ ज़्यादे बीत गयी थी कि तेज़सिंह फिर महाराज के पास गये और बोले—

तेज़ : मुझे जल्द लौट आते देख महाराज ताज्जुब करते होंगे मगर एक ज़रूरी ख़बर देने के लिए आना पड़ा।

महा : वह क्या?

तेज़ : मुझे पता है कि मेरी गिरफ़्तारी के लिए कई ऐसार आये हुए हैं, महाराज होशियार रहें। अगर रात-भर मैं उनके हाथ से बच गया तो कल ज़रूर कोई तर्कीब करूँगा, यदि फँस गया तो ख़ैर।

महा : तो आज रात-भर तुम यहीं क्यों नहीं रहते?

तेज़ : क्या उन लोगों के ख़ौफ़ के बिना कुछ कार्रवाई किये अपने को छिपाऊँ? यह नहीं हो सकता।

महा : शाबाश, ऐसा ही मुनासिब है, ख़ैर जाओ जो होगा देखा जायगा।

तेज़सिंह घर की तरफ़ लौटे, रामानन्द के घर की तरफ़ नहीं बल्कि अपने लश्कर की तरफ़। उन्होंने इस बहाने अपनी जान बचायी और चलते हुए। सवेरे जब दरबार में रामानन्द न आये, महाराज को विश्वास हो गया कि बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों ने उन्हें फँसा लिया।


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