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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

दूसरा बयान


हरकंचनसिंह के मारे जाने और कुँअर इन्द्रजीतसिंह के गायब हो जाने से लश्कर में हलचल मच गयी। पता लगाने के लिए चारों तरफ़ जासूस भेजे गये। ऐयार लोग भी इधर-उधर फैल गये और फ़साद मिटाने के लिए दिलोजान से कोशिश करने लगे। राजा बीरेन्द्रसिंह से इजाज़त लेकर तेज़सिंह भी रवाना हुए और भेष बदलकर रोहतासगढ़ किले के अन्दर चले गये। किले के सदर दरवाज़े पर पहरे का पूरा इन्तज़ाम था मगर तेज़सिंह की फकीरी सूरत पर किसी ने शक न किया।

साधु की सूरत बने हुए तेज़सिंह सात दिन तक रोहतासगढ़ किले के अन्दर घूमते रहे। इस बीच में उन्होंने हर मोहल्ला, बाज़ार, गली, रास्ता, देवल, धर्मशाला इत्यादि को अच्छी तरह देख और समझ लिया; कई बार दरबार में भी जाकर राजा दिग्विजयसिंह और उनके दीवान तथा ऐयारों की चाल और बातचीत के ढंग पर ध्यान दिया और यह भी मालूम किया कि राजा दिग्विजयसिंह किस-किसको चाहता है, किस-किसकी ख़ातिर करता है, और किस-किसको अपना विश्वासपात्र समझता है। इन सात दिन के बीच में तेज़सिंह को कई बार चोबदार और औरत बनने की भी ज़रूरत पड़ी और अच्छे-अच्छे घरों में घुसकर वहाँ की कैफ़ियत और हालत को भी देख सुन आये। एक दफे तेज़सिंह उस शिवालय में भी गये जिसमें भैरोसिंह और बद्रीनाथ ने ऐयारी की थी या जहाँ से कुँअर कल्याणसिंह को पकड़ ले गये थे।

तेज़सिंह ने उस शिवालय के रहनेवालों तथा पुजेरियों की अजब हालत देखी। जब से कुँअर कल्याणसिंह गिरफ़्तार हुए थे तब से उन लोगों के दिल में ऐसा डर समा गया था कि वे बात-बात में चौंकते और डरते थे, रात में एक पत्ती के खड़कने से भी किसी ऐयार के आने का गुमान होता था, साधु ब्राह्मणों की सूरत से उन्हें घृणा हो गयी थी, किसी सन्यासी, ब्राह्मण साधु को देखा और चट बोल उठे कि ऐयार है, किसी मजदूर को भी अन्दर मन्दिर के आगे खड़ा पाते तो चट उसे ऐयार समझ लेते और जब तक गर्दन में हाथ दे हाते के बाहर न कर देते चैन न लेते। इत्तिफाक़ से आज तेज़सिंह भी साधु की सूरत बने शिवालय में जा डटे। पुज़ारियों ने देखते ही गुल करना शुरू किया कि ऐयार है, ऐयार है, धरो पकड़ो, जाने न पाये’! बेचारे तेज़सिंह बड़ा घबड़ाये और ताज्जुब करने लगे कि इन लोगों को कैसे मालूम हो गया कि हम ऐयार हैं क्योंकि तेज़सिंह को इस बात का गुमान भी न था कि यहाँ के रहनेवाले कुत्ते, बिल्ली को भी ऐयार समझते हैं, मगर यकायकी वहाँ से भाग निकलना भी मुनासिब न समझकर रुके और बोले—

तेज़ : तुम कैसे जानते हो कि हम ऐयार हैं?

एक पुजेरी : अजी हम खूब जानते हैं कि सिवाय ऐयार के कोई दूसरा हमारे सामने आ ही नहीं सकता! अजी तुम्हीं लोग तो हमारे कुँअर साहब को पकड़ ले गये हो या कोई दूसरा? बस बस यहाँ से चले जाओ, नहीं तो कान पकड़के खा जायँगे।

‘‘बस बस, यहाँ से चले जाओ’ इत्यादि सुनते ही तेज़सिंह समझ गये कि ये लोग बेवकूफ हैं, अगर हमारे ऐयार होने का इन्हें विश्वास होता तो ये लोग ‘चले जाओ’ कभी न कहते बल्कि हमे गिरफ़्तार करने का उद्योग करते, बस इन्हें भैरोसिंह और बद्रीनाथ डरा गये हैं और कुछ नहीं।

तेज़सिंह खड़े सोच ही रहे थे कि इतने में एक लँगड़ा भिखमंगा हाथ में ठीकरा लिए लाठी टेकता वहाँ आ पहुँचा और पुजेरी जी की जय-जयकार मनाने लगा। सूरत देखते ही पुजेरी चिल्ला उठा और बोला, ‘‘लो देखो, एक दूसरा ऐयार भी आ पहुँचा, अबकी शैतान लँगड़ा बनकर आया है, जानता नहीं कि हम लोग बिना पहिचाने न रहेंगे, भाग नहीं तो सर तोड़ डालूँगा!’’

अब तेज़सिंह को पूरा विश्वास हो गया कि ये लोग सिड़ी हो गये हैं, जिसे देखते हैं उसे ही ऐयार समझ लेते हैं। तेज़सिंह वहाँ से लौटे और सोचते हुए खिड़की की राह* दीवार के पार हो जंगल में चले गये कि अब यहाँ के ऐयारों से मिलना चाहिए और देखना चाहिए कि वे कैसे हैं और ऐयारी के फन में कितने तेज़ हैं।(*रोहतासगढ़ किले की बड़ी चहारदीवारी में चारों तरफ़ छोटी-छोटी बहुत-सी खिड़कियाँ थीं जिनमें लोहे के मज़बूत दरवाज़े लगे रहते थे और दो सिपाही बराबर पहरा दिया करते थे। फकीर, मोहताज और गरीब रिआया अक्सर उन खिड़कियों (छोटे दरवाजों) की राह जंगल में से लकड़ियाँ चुनने या जंगली फल तोड़ने या ज़रूरी काम के लिए बाहर जाया करते थे, मगर चिराग जलते ही ये खिड़कियाँ बन्द कर दी जाती थीं।)

इस किले के अन्दर गाँजा पिलानेवालों की कई दूकानें थीं जिन्हें यहाँ वाले ‘अड्डा’ कहा करते थे। चिराग जलने के बाद ही से गँजेड़ी लोग वहाँ जमा होते जिन्हें अड्डे का मालिक गाँजा बनाकर पिलाता और उनसे एवज में पैसे वसूल करता। वहाँ तरह-तरह की गप्पें उड़ा करती थीं जिनसे शहर-भर का हाल झूठ-सच मिला-जुला लोगों को मालूम हो जाया करता था।

शाम होने के पहिले ही तेज़सिंह जंगल से लौटे, लकड़हारों के साथ-साथ वैरागी के भेष में किले के अन्दर दाखिल हुए और सीधे अड्डे पर चले गये जहाँ गँजेड़ी दम पर दम लगाकर धूएँ का गुबार बाँध रहे थे। यहाँ तेज़सिंह का बहुत कुछ काम निकला और उन्हें मालूम हो गया कि महाराज के यहाँ केवल दो ऐयार हैं, एक का नाम रामानन्द, दूसरे का नाम गोविन्दसिंह है। गोविन्दसिंह तो कुँअर कल्याण सिंह को छुड़ाने के लिए चुनार गया हुआ है, बाक़ी रामानन्द यहाँ मौजूद है।

दूसरे दिन तेज़सिंह ने दरबार में जाकर रामानन्द को अच्छी तरह देख लिया और निश्चय कर लिया कि आज रात को इसी के साथ ऐयारी करेंगे क्योंकि रामानन्द का ढाँचा तेज़सिंह से बहुत कुछ मिलता था और यह भी जाना गया था कि महाराज सबसे ज़्यादे रामानन्द को मानते और अपना विश्वासपात्र समझते हैं।

आधी रात के समय तेज़सिंह सन्नाटा देख रामानन्द के मकान में कमन्द लगाकर चढ़ गये। देखा कि धुर ऊपरवाले बंगले में रामानन्द मसहरी के ऊपर पड़ा खर्राटे ले रहा है; दरवाज़े पर पर्दे की जगह पर जाल लटक रहा है जिसमें छोटी-छोटी घण्टियाँ बँधी हुई हैं। पहिले तो तेज़सिंह ने उसे एक मामूली पर्दा समझा मगर ये तो बड़े ही चालाक और होशियार थे, यकायक पर्दे पर हाथ डालना मुनासिब न समझकर उसे गौर से देखने लगे। जब मालूम हुआ कि नालायक ने इस जालदार पर्दे में बहुत-सी घण्टियाँ लटका रक्खी हैं तो समझ गये कि यह बड़ा ही बेवकूफ है, समझता है कि इन घण्टियों के लटकाने से हम बचे रहेंगे, इस घर में जब कोई पर्दा हटाकर आवेगा तो घण्टियों की आवाज़ से हमारी आँख खुल जायगी, मगर यह नहीं समझता कि ऐयार लोग बुरे होते हैं।

तेज़सिंह ने अपने बटुए में से कैंची निकाली और बहुत सम्हालकर पर्दे में से एक-एक करके घण्टी काटने लगे। थोड़ी ही देर में सब घण्टियों को काट के किनारे कर दिया और पर्दा हटाकर अन्दर चले गये। रामानन्द अभी तक खर्राटे ले रहा था। तेज़सिंह ने बेहोशी की दवा उसके नाक के आगे की, हलका धूरा साँस लेते ही दिमाग़ में चढ़ गया, रामानन्द को एक छींक आयी जिससे मालूम हुआ कि अब बेहोशी इसे घण्टों तक होश में न आने देगी।

तेज़सिंह ने बटुए में से एक अस्तुरा निकालकर रामानन्द की दाढ़ी और मूँछ मूँड ली और उसके बाल हिफ़ाजत से अपने बटुए में रखकर उसी रंग की दूसरी दाढ़ी और मूँछ उसे लगा दी जो उन्होंने दिन ही में किले के बाहर जंगल में तैयार की थी। तेज़सिंह इतने ही काम के लिए रामानन्द के मकान पर गये थे और इसे पूरा कर कमन्द के सहारे नीचे उतर आये तथा धर्मशाला की तरफ़ रवाना हुए।

तेज़सिंह जब वैरागी साधु के के भेष में रोहतासगढ़ किले के अन्दर आये थे तो उन्होंने धर्मशाला* के पास एक बैठकवाले के मकान में छोटी-सी कोठरी किराये पर ले ली थी और उसी में रहकर अपना काम करते थे। उस कोठरी का एक दरवाज़ा सड़क की तरफ़ था जिसमें लाता लगाकर उसकी ताली ये अपने पास रखते थे, इसलिए उस कोठरी में आने-जाने के लिए उनको दिन और रात एक समान था। (*रोहतासगढ़ में एक ही धर्मशाला थी।)

रामानन्द के मकान से जब तेज़सिंह अपना काम करके उतरे उस वक्त पहर-भर रात बाक़ी थी। धर्मशाला के पास अपनी कोठरी में गये और सवेरा होने के पहिले ही अपनी सूरत रामानन्द की-सी बना और वही दाढ़ी और मूँछ जो मुड़ लाये थे दुरुस्त करके खुद लगा कोठरी के बाहर निकले और शहर में गश्त लगाने लगे, सवेरा होते तक राजमहल की तरफ़ रवाना हुए और इत्तिला कराकर महाराज के पास पहुँचे।

हम ऊपर लिख आये हैं कि रोहतासगढ़ के रामानन्द और गोविन्द सिंह केवल दो ही ऐयार थे। इन दोनों के बारे में इतना लिख देना ज़रूरी है कि इन दोनों में से गोविन्द सिंह तो ऐयारी के फन में बहुत ही तेज़ और होशियार था और वह दिन रात वही काम करता था। रामानन्द भी ऐयारी का फन अच्छी तरह जानता था मगर उसे अपनी दाढ़ी और मूँछ बहुत प्यारी थी। इसीलिए ऐयारी के वे ही काम करता था जिसमें दाढ़ी और मूँछ मुड़ाने की ज़रूरत न पड़े और इसलिए महाराज ने भी उसे दीवान का काम दे रक्खा था। इसमें भी कोई शक नहीं कि रामानन्द बहुत ही खुशदिल, मसखरा और बुद्धिमान था और उसने अपनी तदबीर से महाराज का दिल अपनी मुट्ठी में कर लिया था।

रामानन्द की सूरत बने हुए तेज़सिंह महाराज के पास पहुँचे, मामूल से बहुत पहिले रामानन्द को आते देख महाराज ने समझा कि कोई नयी ख़बर लाया है।

महारा : आज तुम बहुत सवेरे आये! क्या कोई नयी ख़बर है?

रामा (खाँसकर) महाराज, हमारे यहाँ कल तीन मेहमान आये हैं। महा : कौन-कौन?

रामा : एक तो खाँसी जिसमें मुझे बहुत ही तंग कर रक्खा है, दूसरे कुँअर आनन्दसिंह, तीसरे उनके चार ऐयार जो आज ही कल में किशोरी को यहाँ से निकाल ले जाने का दावा रखते हैं।

महा : (हँसकर) मेहमान तो बड़े नाज़ुक हैं। इनकी ख़ातिर का भी कोई इन्तज़ाम किया गया है या नहीं?

रामाः इसीलिए तो सरकार, मैं आया हूँ। कल दरबार में उनके ऐयार मौजूद थे। सबके पहिले किशोरी का बन्दोबस्त करना चाहिए, उसकी हिफ़ाजत में किसी तरह की कमी न होनी चाहिए।

महा : जहाँ तक मैं समझता हूँ वे लोग किशोरी को तो किसी तरह नहीं ले जा सकते, हाँ बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों को जिस तरह भी हो सके गिरफ़्तार करना चाहिए।

रामा : बीरेन्द्रसिंह के ऐयार तो अब मेरे पंजे से बच नहीं सकते, वे लोग सूरत बदलकर दरबार में ज़रूर आयेंगे, और ईश्वर चाहे तो आज ही किसी को गिरफ़्तार करूँगा, मगर वे लोग बड़े ही धूर्त और चालबाज हैं, प्रायः क़ैदखाने से भी निकल जाया करते हैं।

महा : ख़ैर हमारे तहख़ाने से निकल जायेंगे तो समझेंगे कि चालाक और धूर्त हैं।

महाराज की इतनी ही बातचीत से ही तेज़सिंह को मालूम हो गया कि यहाँ कोई तहख़ाना है जिसमें क़ैदी लोग रक्खे जाते हैं, अब उन्हें यह फ़िक्र हुई कि जहाँ तक हो सके इस तहख़ाने का ठीक-ठीक हाल मालूम करना चाहिए। यह सोच तेज़सिंह ने अपनी लच्छेदार बातचीत में महाराज को ऐसा उलझाया कि मामूली समय से भी आधे घण्टे की देर हो गयी। ऐसा करने से तेज़सिंह का अभिप्राय यह था कि देर होने से असली रामानन्द अवश्य महाराज के पास आवेगा और मुझे देख चौंकेगा, उसी समय मैं अपना काम निकाल लूँगा जिसके लिए उसकी दाढ़ी मूँछ लाया हूँ, और आख़िर तेज़सिंह का सोचना भी ठीक निकला।

तेज़सिंह रामानन्द की सूरत में जिस समय महाराज के पास आये थे उस समय ड्योढ़ी पर जितने सिपाही पहरा दे रहे थे सब बदल गये और दूसरे सिपाही अपनी बारी के अनुसार ड्योढ़ी के पहरे पर मुस्तैद हुए जो इस बात से बिल्कुल ही बेखबर थे कि रामानन्द महाराज से मिलने के लिए महल में गये हैं।

ठीक समय पर दरबार लग गया। बड़े-बड़े ओहदेदार, नायब दीवान, तहसीलदार, मुंशी, मुतसद्दी इत्यादि और मुसाहिब लोग दरबार में आकर जमा हो गये। असली रामानन्द अपनी दीवान की गद्दी पर आकर बैठ गया मगर अपनी दाढ़ी की तरफ़ बिल्कुल ही बेखबर था। उसे तेज़सिंह का मामला कुछ भी मालूम न था, तो भी यह जानने के लिए वह बड़ी ही उलझन में पड़ा हुआ था कि उस दरवाज़े की जालीदार पर्दे में की घण्टियाँ किसने काट डाली थीं। घर-भर के आदमियों से उसने पूछा और पता लगाया मगर पता न लगा, इससे उसके दिल में शक हुआ कि इस मकान में ज़रूर कोई ऐयार आया मगर उसने आकर क्या किया सो नहीं जाना जाता, हाँ मेरे इस ख़याल को उसने ज़रूर मटियामेट कर दिया कि घण्टियाँ लगे हुए जालदार पर्दे के अन्दर मेरे कमरे में चुपके से कोई नहीं आ सकता, उसने बता दिया कि यों आ सकता है। बेशक मेरी भूल थी कि उस पर्दे पर इतना भरोसा रखता था, पर तो क्या खाली यही बताने के लिए वह ऐयार आया था।

इन्हीं सब बातों को सोचता हुआ रामानन्द अपने ज़रूरी कामों से छुट्टी पा दरबारी कपड़े पहिरे बन-ठनकर दरबार की तरफ़ रवाना हुआ बेशक आज उसे कुछ देरी हो गयी थी और वह सोच रहा था कि महाराज दरबार में ज़रूर आ गये होंगे, मगर वहाँ पहुँचकर उसने गद्दी खाली देखी और पूछने से मालूम हुआ कि अभी तक महाराज के आने की कोई ख़बर नहीं। रामानन्द क्या सभों दरबारी ताज्जुब कर रहे थे कि आज महाराज को क्यों देर हुई?

रामानन्द को महाराज बहुत मानते थे, यह उनका मुँहलगा था, इसलिए सभों ने वहाँ जाकर हाल मालूम करने के लिए इसको ही कहा। रामानन्द खुद भी घबराया हुआ था और महाराज का हाल मालूम किया चाहता था, अस्तु थोड़ी देर बैठकर वहाँ से रवाना हुआ और ड्यौढ़ी पर पहुँचकर इत्तिला करवायी।

रामानन्द रूपी तेज़सिंह महाराज से बातें कर रहे थे कि एक ख़ितमदगार आया और हाथ जोड़कर सामने खड़ा हो गया। उसकी सूरत से मालूम होता था कि वह घबराया हुआ है और कुछ कहना चाहता है, मगर मुँह से आवाज़ नहीं निकलती। तेज़सिंह समझ गये कि अब कुछ गुल खिला चाहता है, आख़िर ख़ितमदगार की तरफ़ देखकर बोले—

तेज़ : क्यों, क्या कहना चाहता है?

खिद : मैं ताज्जुब के साथ यह इत्तिला करते डरता हूँ कि दीवान साहब (रामानन्द) ड्यौढ़ी पर हाज़िर हैं।

महा : रामानन्द!

खिद : जी हाँ।

महा : (तेज़सिंह की तरफ़ देखकर) यह क्या मामला है?

तेज़ : (मुस्कुराकर) महाराज, बस अब काम निकला ही चाहता है। मैं जो कुछ अर्ज़ कर चुका वही बात है। कोई ऐयार मेरी सूरत बना आया है और आपको धोखा दिया चाहता है, लीजिए इस कम्बख्त को तो मैं अभी गिरफ़्तार करता हूँ फिर देखा जायगा। सरकार उसे हाज़िर होने का हुक़्म दें, फिर देखें मैं क्या तमाशा करता हूँ। मुझे ज़रा छिप जाने दें, वह आकर बैठ जाय तो मैं उसका पर्दा खोलूँ।

महा : तुम्हारा कहना ठीक है, बेशक कोई ऐयार है, अच्छा तुम छिप जाओ, मैं उसे बुलाता हूँ।

तेज़ : बहुत खूब, मैं छिप जाता हूँ, मगर ऐसा है कि सरकार उसकी दाढ़ी-मूँछ पर खूब ध्यान दें, मैं यकायक पर्दे से निकलकर उसकी दाढ़ी उखाड़ लूँगा क्योंकि नकली दाढ़ी ज़रा ही सा झटका चाहती है।

महा : (हँसकर) अच्छा-अच्छा (ख़ितमदगार की तरफ़ देखकर) देख उससे और कुछ मत कहियो, केवल हाज़िर होने का हुक़्म सुना दे।

तेज़सिंह दूसरे कमरे में आकर छिप रहे और असली रामानन्द धीरे-धीरे वहाँ पहुँचा जहाँ महाराज विराज रहे थे। रामानन्द को ताज्जुब था कि आज महाराज ने देर क्यों लगायी, इससे उनका चेहरा भी कुछ उदास-सा हो रहा था। दाढ़ी तो वही थी जो तेज़सिंह ने लगा दी थी। तेज़सिंह ने दाढ़ी बनाते समय जान-बूझकर कुछ फ़र्क़ डाल दिया था, जिस पर रामानन्द ने तो कुछ ध्यान न दिया मगर वही फ़र्क़ अब महाराज की आँखों में खटकने लगा। जिस निगाह से कोई किसी बहरूपिये को देखता है उसी निगाह से बिना कुछ बोले-चाले महाराज अपने दीवान साहब को देखने लगे। रामानन्द यह देखकर और भी उदास हुआ कि इस समय महाराज की निगाह में अन्तर क्यों पड़ रहा है।

तरद्दुद और ताज्जुब के सबब रामानन्द के चेहरे का रंग जैसे-जैसे बदलता गया तैसे-तैसे उसके ऐयार होने का शक भी महाराज के दिल में बैठता गया। कई सायत बीतने पर भी न तो रामानन्द ही कुछ पूछ सका और न महाराज ही ने उसे बैठने का हुक़्म दिया। तेज़सिंह ने अपने लिए यह मौका अच्छा समझा, झट से बाहर निकल आये और हँसते हुए एक फ़र्शी सलाम उन्होंने रामानन्द को किया। ताज्जुब, तरद्दुद और डर से रामानन्द के चेहरे का रंग उड़ गया और वह एकटक तेज़सिंह की तरफ़ देखने लगा।

ऐयारी भी कठिन काम है। इस फन में सबसे भारी हिस्सा जीवट का है। जो ऐयार जितना डरपोक होगा उतना ही जल्द फँसेगा। तेज़सिंह को देखिए, किस जीवट का ऐयार है कि दुश्मन के घर में घुसकर भी ज़रा नहीं डरता और दिन-दोपहर सच्चे को झूठा बना रहा है! ऐसे समय अगर ज़रा भी उसके चेहरे पर ख़ौफ़ या तरद्दुद की निशानी आ जाय तो ताज्जुब नहीं कि वह खुद फँस जाय!

तेज़सिंह ने रामानन्द को बात करने की भी मोहलत न दी, हँसकर उसकी तरफ़ देखा और कहा, ‘‘क्यों बे! क्या महाराज दिग्विजयसिंह के दरबार को तैंने ऐसा-वैसा समझ रक्खा है! क्या तै यहाँ भी ऐयारी से काम निकालना चाहता है? यहाँ तेरी कारीगिरी न लगेगी, देख तेरी गदहे की-सी मुटाई मैं पचकाता हूँ!’’

तेज़सिंह ने फुर्ती से रामानन्द की दाढ़ी पर हाथ डाल दिया और महाराज को देखाकर एक झटका दिया। झटका तो ज़ोर से दिया मगर इस ढंग से कि महाराज को बहुत हल्का झटका मालूम हो। रामानन्द की नकली दाढ़ी अलग हो गयी।

इस तमाशे ने रामानन्द को पागल-सा बना दिया। उसके दिल में तरह-तरह की बातें पैदा होने लगीं। यह समझकर कि यह ऐयार मुझ सच्चे को झूठा किया चाहता है उसे क्रोध चढ़ आया और वह खंजर निकाल कर तेज़सिंह पर झपटा, पर तेज़सिंह वार बचा गये। महाराज को रामानन्द पर और भी शक बैठ गया। उन्होंने उठकर रामानन्द की कलाई जिसमें खंजर लिये था, मज़बूती से पकड़ ली और एक घूँसा उसेक मुँह पर दिया। ताकतवर महाराज के हाथ का घूँसा खाते ही रामानन्द का सर घूम गया और वह ज़मीन पर बैठ गया। तेज़सिंह ने जेब से बेहोशी की दवा निकाली और जबर्दस्ती रामानन्द को सुँघा दी।

महा : क्यों इसे बेहोश क्यों कर दिया?

तेज़ : महाराज, गुस्से में आया हुआ और अपने फँसा जान यह ऐसार न मालूम कैसी-कैसी बेहुदी बातें बकता, इसलिए इसे बेहोश कर दिया। क़ैदखाने में ले जाने के बाद फिर देखा जायगा।

महा : ख़ैर यह भी अच्छा ही किया, अब मुझसे ताली लो और तहख़ाने में ले जाकर इसे दारोग़ा के सुपुर्द करो।

महाराज की बात सुन तेज़सिंह घबड़ाये और सोचने लगे कि अब बुरी हुई। महाराज से तहख़ाने की ताली लेकर कहाँ जाऊँ? मैं क्या जानूँ तहख़ाना कहाँ है और दारोग़ा कौन है! बड़ी मुश्किल हुई। अगर ज़रा भी नाहीं नुकर करता हूँ तो उल्टी आँचें गले पड़ती हैं। आख़िर कुछ सोच विचारकर तेज़सिंह ने कहा—

तेज़ : महाराज भी साथ चलें तो ठीक है।

महा : क्यों?

तेज़ : दारोग़ा साहब इस ऐयार को और मुझे देखकर घबड़ायेंगे और उन्हें न जाने क्या-क्या शक पैदा हो। यह पाजी अगर होश में आ जायगा तो दारोग़ा को किसी तरह का शक न होगा।

महा : (हँसकर) अच्छा चलो हम भी चलते हैं।

तेज़ : हाँ महाराज, फिर मुझे पीठ पर ये भारी लाश लादे ताला खोलने बन्द करने में भी मुश्किल होगी।

महाराज ने अपने कमलदान में से ताली निकाली और ख़िदमदगार से एक लालटेन मँगवाकर साथ ले ली।

तेज़सिंह ने रामानन्द की गठरी बाँध पीठ पर लादी। तेज़सिंह को साथ लिये हुए महाराज अपने सोने वाले कमरे में गये और दीवार में जड़ी हुई एक अलमारी का ताला खोला। तेज़सिंह ने देखा कि दीवार पोली है और उस जगह से नीचे उतरने का एक रास्ता है। रामानन्द की गठरी लिये हुए, महाराज के पीछे-पीछे, तेज़सिंह नीचे उतरे, एक दालान में पहुँचने के बाद छोटी-सी कोठरी में जाकर दरवाज़ा खोला और बहुत बड़ी बारहदरी में पहुँचे। तेज़सिंह ने देखा कि बारहदरी के बीचोबीच छोटी-सी गद्दी लगाये एक बूढ़ा बैठा कुछ लिख रहा है जो महाराज को आते देख उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर सामने आया।

महा : दारोग़ा साहब, देखिए आज रामानन्द ने दुश्मन के एक ऐयार को फाँसा है, इसे अपनी हिफ़ाजत में रखिये।

तेज़ : (पीठ से गठरी उतारकर और उसे खोलकर) लीजिए, इसे सम्हाललिए, अब आप जानिए।

दारोग़ा : (ताज्जुब से) क्या यह दीवान साहब की सूरत बनाकर आया था?

तेज़ : जी हाँ, इसने मुझी को फजूल समझा।

महा : (हँसकर) ख़ैर चलो, अब दारोग़ा साहब इसका बन्दोबस्त कर लेगें।

तेज़ : महाराज, यदि आज्ञा हो तो मैं ठहर जाऊँ और इस नालायक को होश में लाकर अपने मतलब की कुछ बातों का पता लगाऊँ, सरकार को भी अटकने के लिए मैं कहता परन्तु दरबार का समय बिल्कुल निकल जाने और दरबार न करने से रिआया के दिल में तरह-तरह के शक पैदा होंगे और आजकल ऐसा न होना चाहिए।

महा : तुम ठीक कहते हो, अच्छा मैं जाता हूँ, अपनी ताली साथ लिये जाता हूँ और ताला बन्द करता जाता हूँ, तुम दूसरी राह से दारोग़ा के साथ आना। (दारोग़ा की तरफ़ देखकर) आप भी आइयेगा और अपना रोज़नामचा लेते आइयेगा।

तेज़सिंह को उसी जगह छोड़ महाराज चले गये। रामानन्द रूपी तेज़सिंह को लिये हुए दारोग़ा साहब अपनी गद्दी पर आये और अपनी जगह तेज़सिंह को बैठाकर आप नीचे बैठे। तेज़सिंह ने आधे घण्टे तक दारोग़ा को अपनी बातों में खूब ही उलझाया और इसके बाद यह कहते हुए उठे कि, ‘‘अच्छा अब इस ऐयार को होश में लाकर मालूम करना चाहिए कि यह कौन है’’ और ऐयार के पास आये। अपने जेब में हाथ डाल लखलखे की डिबिया खोजने लगे, आख़िर बोले, ‘‘ओफ ओह, लखलखे की डिबिया तो दीवान-खाने में ही भूल आये, अब क्या किया जाय?’’

दारोग़ा : मेरे पास लखलखे की डिबिया है, हुक़्म हो तो लाऊँ?

तेज़ : लाइए मगर आपके लखलखे से यह होश में न आवेगा क्योंकि जो बेहोशी की दवा इसे दी गयी वह मैंने नये ढंग से बनायी है और उसके लिए लखलखे का नुसखा भी दूसरा है, ख़ैर लाइए तो सही शायद काम चल जाय।

‘बहुत अच्छा ’’ कहकर दारोग़ा साहब लखलखा लेने चले गये, इधर निराला पाकर तेज़सिंह ने दूसरी डिबिया जेब से निकाली जिसमें लाल रंग की कोई बुकनी थी, एक चुटकी रामानन्द के नाक में साँस के साथ चढ़ा दी और निश्चिन्त होकर बैठे अब सिवा तेज़सिंह के दूसरे का बनाया लखलखा उसे कब होश में ला सकता है, हाँ दो एक रोज़ तक पड़े रहने पर वह आप-से-आप चाहे भले ही होश में आ जाय।

दम भर में दारोग़ा साहब लखलखे की डिबिया लिये आ पहुँचे, तेज़सिंह ने कहा, ‘‘बस आप ही सुँघाइए और देखिए इस लखलखे से कुछ काम निकलता है या नहीं।’’

दारोग़ा साहब ने लखलखे की डिबिया बेहोश रामानन्द के नाक से लगायी पर क्या असर होना था, लाचार तेज़सिंह का मुँह देखने लगे।

तेज़ : क्यों व्यर्थ मेहनत करते हैं, मैं पहिले ही कह चुका हूँ कि इस लखलखे से काम नहीं चलेगा। चलिए महाराज के पास चलें, इसे यों ही रहने दीजिए, अपना लखलखा लेकर फिर लौटेंगे तो काम चलेगा।

दारोग़ा : जैसी मर्जी, इस लखलखे से तो काम नहीं चलता।

दारोग़ा साहब ने रोज़नामचे की किताब बगल में दाबी और तालियों का झब्बा और लालटेन हाथ में लेकर रवाना हुए। एक कोठरी में घुसकर दारोग़ा साहब ने दूसरा दरवाज़ा खोला, ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ नज़र आयीं। ये दोनों ऊपर चढ़ गये और दो-तीन कोठरियों से घुसते हुए एक सुरंग में पहुँचे। दूर तक चले जाने के बाद इनका सर छत से अड़ा। दारोग़ा ने एक सूराख में ताली लगायी और खटका दबाया, एक पत्थर का टुकड़ा अलग हो गया और ये दोनों बाहर निकले। तेज़सिंह ने अपने को एक कब्रिस्तान में पाया।

इस सन्तति के तीसरे भाग के चौदहवें बयान में हम इस कब्रिस्तान का हाल लिख चुके हैं। इसी राह से कुँअर आनन्दसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह उस तहख़ाने में गये थे। इस समय हम जो हाल लिख रहे हैं वह कुँअर आनन्दसिंह के तहख़ाने में जाने के पहिले का है, सिलसिला मिलाने के लिए फिर पीछे की तरफ़ लौटना पड़ा। तहख़ाने के हर एक दरवाज़े में पहिले ताला लगा रहता था मगर जब से तेज़सिंह ने इसे अपने कब्ज़े में कर लिया (जिसका हाल आगे चलकर मालूम होगा) तब से ताला लगाना बन्द हो गया, केवल खटकों पर कार्रवाई रह गयी।

तेज़सिंह ने चारों तरफ़ निगाह दौड़ाकर देखा और मालूम किया कि इस जंगल में जासूसी करते हुए कई दफे आ चुके हैं और इस कब्रिस्तान में भी पहुँच चुके हैं मगर जानते नहीं थे कि यह कब्रिस्तान क्या है और किस मतलब से बना हुआ है। अब तेज़सिंह ने सोच लिया कि हमारा काम चल गया, दारोग़ा साहब को इसी जगह फँसाना चाहिए जाने न पावें।

तेज़: दारोग़ा साहब, हक़ीक़त में तुम बड़े ही जूतीखोर हो।

दारोग़ा : (ताज्जुब से तेज़सिंह का मुँह देख) मैंने क्या कसूर किया है जो आप गाली दे रहे हैं? ऐसा तो कभी नहीं हुआ था!!

तेज़ : फिर मेरे सामने गुर्राता है! कान पकड़ के उखाड़ लूँगा!!

दारोग़ा : आज तक महाराज ने भी कभी मेरी ऐसी बेइज्जती नहीं की थी।

तेज़सिंह ने दारोग़ा को एक लात ऐसी मारी कि बेचारा धम्म से ज़मीन पर गिर पड़ा। तेज़सिंह उसकी छाती पर चढ़ बैठे और बेहोशी की दवा जबर्दस्ती नाक में ठूँस दी। बेचारा दारोग़ा बेहोश हो गया। तेज़सिंह ने दारोग़ा की कमर से और अपनी कमर से भी चादर खोली और उसी में दारोग़ा की गठरी बाँध, ताली का गुच्छा और रोज़नामचे की किताब भी उसी में रख पीठ पर लाद तेज़ी के साथ अपने लश्कर की तरफ़ रवाना हुए तथा दोपहर दिन चढ़ते-चढ़ते राजा बीरेन्द्रसिंह के खेमे में जा पहुँचे। पहिले तो रामानन्द की सूरत देख बीरेन्द्रसिंह चौंके मगर जब बँधे हुए इशारे से तेज़सिंह ने अपने को ज़ाहिर किया तो वे बहुत खुश हुए।


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