चन्द्रकान्ता सन्तति - 1
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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...
छठवाँ बयान
इश्क भी क्या बुरी बला है! हाय, इस दुष्ट ने जिसका पीछा किया उसे ख़राब करके छोड़ दिया और उसके लिए दुनिया भर के अच्छे पदार्थ बेकाम और बुरे बना दिये। छिटकी हुई चाँदनी उसके बदन में चिनगारियाँ पैदा करती है, शाम की ठण्डी हवा उसे लू-सी लगती है, खुशनुमा फूलों को देखने से उसके कलेजे में काँटे चुभते हैं, बाग़ की रविशों पर टहलने से पैरों में छाले पड़ते हैं, नरम बिछावन पर पड़े रहने से हड्डियाँ टूटती हैं, और वह करवटें बदलकर भी किसी तरह आराम नहीं ले सकता।
खाना-पीना हराम हो जाता है, मिसरी की डली जहर मालूम होती है, गम खाते-खाते पेट भर जाता है, प्यास बुझाने के लिए आँसू की बूँदें बहुत हो जाती हैं, हज़ार दुःख भोगने पर भी किसी की जुल्फ में उलझी हुई जान को निकल भागने का मौका हाथ नहीं लगता। दोस्तों की नसीहतें जिगर के टुकड़े-टुकड़े करती हैं, जुदाई की आग में कलेजा भुन जाता है, बदन का खून पानी हो जाता है और इसी से उसकी भूख-प्यास दोनों ही जाती रहती हैं। जिसकी सूरत उसकी आँखों में छुपी रहती है, दरो-दीवार में वही दिखायी देता है, स्वप्न में भी इठलाता हुआ वही नज़र आता है। उसकी सुनी हुई बातें रात-दिन कान में गूँजा करती हैं, हँसी के समय दिखायी दिये हुए मोतियों से दाँत गले का हार बन बैठते हैं, भुलाए नहीं भूलते, जादू-भरी चितवनों की याद दिल को उचाट कर देती है, गले में हाथ डालकर ली हुई अँगड़ाई बदन को दबाये देती है, उसकी याद में एक तरफ़ झुके हुए कभी सीधे भी नहीं होने पाते।
वे दिन-रात आँखें बन्द कर हुस्न के बाग़ में टहला करते हैं। ठण्डी साँसें आँधी का काम देती हैं। सूखे पत्ते उड़ाया करते हैं और धीरे-धीरे आप भी ऐसे सूख जाते हैं कि साँस के साथ उड़ जाने की हिम्मत बाँधते हैं, मुहब्बत का गुरु चाबुक लिये हरदम पीछे मौजूद रहता है, बुदबुदाते हुए अपने चेले को कहीं ठहरने नहीं देता और न माशूक के नाम के सिवाय कोई दूसरा शब्द मुँह से निकालने देता है।
आदमी क्या हवा तक ऐसों से दिल्लगी करती है, किवाड़ खटखटा माशूक के आने की याद दिला-दिला चुटकियाँ लेती है, और कभी कान में झुककर कहती है कि मैं उस गली से आयी हूँ, जिसमें तेरा प्यारा रहता है।
बाग़ में टहलने के समय हवा के चपेटों में पड़ी हुई पेड़ों की टहनियाँ हिल-हिल कर अपने पास बुलाती हैं और जब वह पास जाता है हँसी के दो फूल गिराकर चुप हो जाती हैं, जिससे उसका दिल और भी बेचैन हो जाता है और वह दोनों हाथों से कलेजा थामकर बैठ जाता है। उसके प्यारे रिश्तेदार यह हालत देख अफ़सोस करते हैं और उसकी नर्म अँगुलियों को हाथ में लेकर पूछते हैं कि क्या अपनी जुल्फें सँवारने के लिए नाखून बढ़ा रक्खे हैं?
बेचैनी इतनी बढ़ जाती है कि आधे घण्टे तक के लिए भी ध्यान एक तरफ़ नहीं जमता और न एक जगह थोड़ी देर तक आराम के साथ बैठने की मोहलत मिलती है। आँखों में छिपी रहनेवाली नींद न मालूम कहाँ चली जाती है और अपनी जगह टकटकी को जो दम-दम में तरह-तरह की तस्वीरें बनाने और बिगाड़नेवाली है, छोड़ जाती है।
यही हमारे कुँअर इन्द्रजीतसिंह और उनकी प्यारी किशोरी की हालत है, इस समय दोनों एक-दूसरे से दूर पड़े हैं मगर मुहब्बत का भूत रंग-बिरंग की सूरत बन दोनों की आँखों में नाचा करता है और बढ़ती हुई उदासी और बेचैनी को किसी तरह कम नहीं होने देता।
रोहतासगढ़ महल में रहनेवाली जितनी औरते हैं सभों को किशोरी की ख़ातिरदारी का ध्यान रहने पर भी किशोरी की उदासी किसी तरह कम नहीं होती। यद्यपि उसे यहाँ किसी तरह की भी तक़लीफ़ नहीं थी मगर कलेजे को टुकड़े-टुकड़े करनेवाली वह बात एक सायत के लिए भी उसके दिल से नहीं भूलती थी जो उसने यहाँ आने के साथ ही पीठ पर हाथ फेरते हुए महाराज के मुँह से सुनी थी, अर्थात् ‘‘यह तो मेरी पतोहू होने लायक है!’’
यों तो ऊँचे दर्ज़े की औरतों के ज़िद करने से लाचार होकर ज़नाने नज़रबाग़ में किशोरी को टहलना ही पड़ता था मगर वहाँ की कोई चीज़ उस बेचारी के जी को ढाढ़स नहीं दे सकती थी। खिले हुए गुलाब के फूल पर नज़र पड़ते ही वह मुरझा जाती, नर्गिस की तरफ़ देखते ही उसकी शर्मीली आँखें पलकों की चिलमन में छिप जातीं, सरोवर के पास पहुँचते ही वह गम के बोझ से झुक जाती और खुशनुमा फूलों से लदी हुई पेचीली लताएँ उसके सामने पड़कर कुँअर इन्द्रजीतसिंह की सुम्बली जुल्फों की याद दिलातीं, जिसमें उलझी हुई उसकी जान को जीते-जी छूटने की उम्मीद न थी।
रविशों को वह यार की जुदाई का मैदान समझती, छोटे-छोटे रंगीन फूलों से भरे हुए पेड़ों की क्यारियों को वह घना जंगल जानती और गूँजते हुए भौरों की आवाज़ उसके कानों में झिल्ली की झनकार मालूम होती जो जंगल में बिना मौसिम पर ध्यान दिये बारहों महीने बोला और इत्तिफाक से आ पड़े हुए नाजुक बदनों के कलेजों को दहलाया करती है।
नर्म हवा के झोंकों से हिलती हुई रंग-बिरंग की खूबसूरत पत्तियों को देखते ही वह काँप जाती, सुन्दर और साफ़ मोती-सरीखे जल से भरे और बहते हुए बनावटी झरने के पास पहुँचते ही उसका दिल डूब जाता, छूटते हुए फौवारे पर नज़र पड़ते ही कलेजा मुँह को आता और आँखों से टपाटप आँसू की बूँदें गिरने लगतीं, जिन्हें देख तरह-तरह की बोलियों से दिल खुश करनेवाली बाग़ की नाज़ुक चिड़ियों से चुप न रहा जाता और वे बोल उठतीं—‘‘हाय हाय! इस बेचारी का दिल किसी की जुदाई में खून हो गया और वह खून पानी होकर आँखों की राह निकला जाता है।’’
उन कुछ जवान, नाज़ुक और चंचल औरतों को जो किशोरी के साथ रहने पर मुस्तैद की गयी थीं उसकी हालत पर अफ़सोस आता मगर लाचार थीं क्योंकि उन्हें अपनी जान बहुत प्यारी थी।
रात के समय जब किशोरी अपने को अकेली पाती तरह-तरह की बातें सोचा करती। कभी तो वह निकल भागने की तरकीब सोचती मगर अनहोनी जान उधर से ख़याल को लौटाकर अपने प्यारे इन्द्रजीतसिंह की तरफ़ ध्यान लगाती और कहती कि क्या वे मेरी मदद न करेंगे और मुझे यहाँ से न छुड़ावेंगे? नहीं ज़रूर छुड़ावेंगे, मगर कब? जब उन्हें यह ख़बर होगी कि किशोरी फलानी जगह क़ैद है। हाय हाय! कहीं ऐसा न हो कि ख़बर होते-होते तक मुझे यह दुनिया छोड़ देनी पड़े और दिल के अरमान दिल ही में ले जाने पड़ें। नहीं, अगर मेरे साथ जबर्दस्ती की जायगी तो ज़रूर ऐसा करूँगी और सिवाय उसके जिसके ऊपर न्यौछावर हो चुकी हूँ, दूसरे की न कहलाऊँगी, ऐसी नौबत आने के पहिले ही शरीर छोड़ उनसे जा मिलूँगी, कोई ताकत ऐसी नहीं जो ऐसा करने से मुझे रोक सके। हे ईश्वर! क्या तू उन आफ़त के परकाले ऐयारों को यहाँ का रास्ता न बतावेगा जो कुमार के लिए जान तक दे देने को हरदम मुस्तैद रहते हैं?
एक रात वह इसी सोच-विचार में पड़ी थी कि सवेरा हो गया और कमरे के बाहर से एक ऐसी आवाज़ उसके कान में आयी कि वह चौंक पड़ी। उसके फैले हुए ख़याल इकट्ठे हो गये, साथ ही कुछ-कुछ खुशी उसके चेहरे पर झलकने लगी। वह आवाज़ यही थी:—
‘‘यह काम बेशक बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों का है।’’
किशोरी उठ खड़ी हुई और कमरे के बाहर निकलने पर घण्टे ही भर में उसे मालूम हो गया कि कुँअर कल्याणसिंह को बीरेन्द्रसिंह के ऐयार लोग ले भागे।
अब किशोरी को अपने छूटने की कुछ-कुछ उम्मीद हुई और वह दिन-भर इसी ख़याल में डूबी रहने लगी कि देखें इसके आगे क्या होता है।
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