लोगों की राय

चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: author_hindi

Filename: views/read_books.php

Line Number: 21

निःशुल्क ई-पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

पाँचवाँ बयान


कुँअर इन्द्रजीतसिंह, नाहरसिंह और तारसिंह को साथ लिये घर आये और अपने छोटे भाई से सब हाल कहा। वे भी सुनकर बहुत उदास हुए और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। दोनों कुमार बड़े ही तरद्दुद में पड़े। अगर तारासिंह को पता लगाने के लिए भेजें तो गया में कोई ऐयार न रह जायगा और अगर यह बात उनके पिता सुनें तो बहुत रंज हों, जिसका ख़याल उन्हें सबसे ज़्यादे था। दोपहर दिन चढ़े तक दोनों भाई बड़े ही तरद्दुद में पड़े रहे, दोपहर बाद उनका तरद्दुद कुछ कम हुआ जब पण्डित बद्रीनाथ, भैरोसिंह और जगन्नाथ ज्योतिषी वहाँ आ मौजूद हुए तीनों के पहुँचने से दोनों कुमार बहुत खुश हुए और समझे कि अब हमारा काम अटका न रहेगा।

कुँअर इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह, तारासिंह, पण्डित बद्रीनाथ, भैरोसिंह और ज्योतिषीजी ये सब बाग़ की बारहदरी में एकान्त समझकर चले गये और बातचीत करने लगे।

आनन्द : लीजिए साहब अब तो दुश्मन लोग यहाँ भी बहुत-से हो गये

ज्योतिषी : कोई हर्ज़ नहीं।

इन्द्र : भैरोसिंह, पहिले तुम अपना हाल कहो, यहाँ से जाने के बाद क्या हुआ?

भैरो : मुझे तो रास्ते ही में मालूम हो गया कि किशोरी वहाँ नहीं है।

इन्द्र : यह हाल मुझे भी मालूम था।

भैरो : ठीक है, वह आदमी आपके पास भी आया होगा जिसने मुझे ख़बर दी थी।

इन्द्र : ख़ैर तब क्या हुआ?

भैरो : फिर भी मैं वहाँ चला गया (बद्रीनाथ और ज्योतिषीजी की तरफ़ इशारा करके) और इन लोगों के साथ मिलकर काम करने लगा। ये लोग दो सौ बहादुरों के साथ वहाँ पहिले से मौजूद थे। आख़िर नतीजा यह हुआ कि दीवान अग्निदत्त और दो-तीन उसके साथी गिरफ़्तार करके चुनार भेज दिये गये। माधवी का पता नहीं कि वह कहाँ गयी, वहाँ की रिआया सब अग्निदत्त से रंज थी, इसलिए राजगृही अपने कब्ज़े में कर लेना हम लोगों को बहुत ही सहज हुआ। अब उन्हीं दो सौ आदमियों के साथ पन्नालाल को वहाँ छोड़ आया हूँ।

बद्री : आप यहाँ का हाल कहिए सुना है यहाँ बड़े-बड़े बेढब मामले हो गये हैं?

इन्द्र : यहाँ का हाल भैरोसिंह की जुबानी आपने सुना ही होगा, इसके बाद आज रात को एक अजीब बात हो गयी।

तारासिंह ने रात-भर का कुल हाल उन लोगों से कहा जिसे सुन वे लोग बहुत ही तरद्दुद में पड़ गये।

इन लोगों की बातचीत हो ही रही थी कि एक चोबदार ने आकर अर्ज़ किया कि ‘अखण्डनाथ बाबाजी बाहर खड़े हैं और यहाँ आया चाहते हैं’। अखण्डनाथ नाम सुन ये लोग सोचने लगे कि कौन हैं और कहाँ से आये हैं? आख़िर इन्द्रजीतसिंह ने उन्हें अपने पास बुलाया और सूरत देखते ही पहिचान लिया।

पाठक, ये अखण्डनाथ बाबाजी वही हैं जो रामशिला के सामने फल्गू के बीच भयानक टीले पर रहते थे, जिनके पास माधवी जाती थी, तथा जिन्होंने उस समय किशोरी की जान बचायी थी जब खँडहर में उसकी छाती पर सवार हो भीमसेन खंजर उसके कलेजे में भोंका ही चाहता था और जिसका हाल ऊपर के तीसरे बयान में हम लिख आये हैं! इन बाबाजी को तारासिंह भी पहिचानते थे क्योंकि कल रात को यह भी इन्द्रजीतसिंह के साथ ही थे।

इन्द्रजीतसिंह ने उठकर बाबाजी को प्रणाम किया। इनको उठते देख सब लोग भी उठ खड़े हुए। कुमार ने अपने पास बाबाजी को बैठाया और ऐयारों की तरफ़ देखके कहा, ‘‘इन्हीं का हाल मैं कह चुका हूँ, इन्होंने ही उस खँडहर में किशोरी की जान बचायी थी।’’

बाबा : जान बचानेवाला तो ईश्वर है मैं क्या कर सकता हूँ। ख़ैर, यह तो कहिए उस मामले के बाद की भी आपको ख़बर है कि क्या हुआ?

इन्द्रजीत : कुछ भी नहीं, हम लोग इस समय इसी सोच-विचार में पड़े हैं।

बाबा : अच्छा तो फिर मुझसे सुनिये। दो औरतें और जो उस मकान में थीं, उनका हाल तो मुझे मालूम नहीं कि किशोरी की खोज में कहाँ गयीं, मगर किशोरी का हाल मैं खूब जानता हूँ।

बाबाजी की बातों ने सभों का दिल अपनी तरफ़ खैंच लिया और सब लोग एकाग्र होकर उनकी बातें सुनने लगे। बाबाजी ने यों कहना शुरू किया— ‘‘नाहरसिंह से जब कुमार लड़ रहे थे उस समय भीमसने के साथियों को जो उसी जगह छिपे हुए थे मौका मिला और वे लोग किशोरी को लेकर शिवदत्तगढ़ की तरफ़ भागे, मगर ले न जा सके क्योंकि रास्ते ही में रोहतासगढ़* के राजा के ऐयार लोग छिपे हुए थे, जिन लोगों ने लड़कर किशोरी को छीन लिया और रोहतासगढ़ ले गये। किशोरी की खूबसूरती का हाल सुनकर रोहतासगढ़ के राजा ने इरादा कर लिया था कि अपने लड़के के साथ उसे ब्याहेगा और बहुत दिन से उसके ऐयार लोग किशोरी की धुन में लगे हुए भी थे। अब मौका पाकर वे लोग अपना काम कर गये। अगर आप लोग जल्द उसके छुड़ाने की फ़िक्र न करेंगे तो बेचारी के बचने की उम्मीद जाती रहेगी। लड़-भिड़कर रोहतासगढ़ के किले का फतह करना बहुत मुश्किल है, चाहे फौज और दौलत में आप लोग बढ़ के क्यों न हों मगर पहाड़ के ऊपर उस आलीशान किले के अन्दर घुसना बड़ा ही कठिन है मगर फिर भी चाहे जो हो आप लोग हिम्मत न हारें। किशोरी का ख्याल चाहे न भी हो मगर यह सोचकर कि आपके समीप का यह मज़बूत किला आप ही के योग्य है, ज़रूर मेहनत करना चाहिए। ईश्वर आपको विजय देगा और जहाँ हो सकेगा मैं भी आपकी मदद करूँगा।’’ (* रोहतासगढ़ बिहार इलाके में मशहूर मुकाम है यह किला एक पहाड़ के ऊपर है। उस ज़माने में इस किले की लम्बाई-चौड़ाई लगभग दस कोस की होगी। बड़े-बड़े राजा लोग भी इसके फतह करने का हौसला नहीं कर सकते थे। आजकल यह इमारत बिल्कुल टूट-फूट गयी है तो भी देखने योग्य है।)

बाबाजी की जुबानी सब हाल सुनकर कुँअर इन्द्रजीतसिंह बहुत प्रसन्न हुए। एक तो किशोरी का पता लगाने की खुशी, दूसरे रोहतासगढ़ के राजा से भारी लड़ाई लड़कर जवानी का हौसला निकालने और मशहूर किले पर अपना दखल ज़माने की खुशी से वे गद्गद हो गये और जोश भरी आवाज़ में बाबाजी से बोले—

इन्द्रजीतसिंह : बड़े-बड़े वीरों की आत्माएँ स्वर्ग से झाँककर देखेंगी कि रोहतासगढ़ की लड़ाई कैसी होती है और किस तरह हम लोग उस किले को फतह करते हैं। रोहतासगढ़ का हाल हम बखूबी जानते हैं, मगर बिना कोई सबब हाथ लगे ऐसा इरादा नहीं कर सकते थे।

बाबा : अच्छा एक लोटा जल मँगाइए।

तुरत जल आया। बाबाजी ने अपनी दाढ़ी नोंचकर फेंक दी और मुँह धो डाला। अब तो सभों ने पहिचान लिया कि ये देवीसिंह हैं।

पाठक, रामशिला पहाड़ी के सामने भयानक टीले पर रहने वाले बाबाजी देवीसिंह का मिला आप भूले न होंगे और आपको यह भी याद होगा कि देवीसिंह से बाबाजी ने कहा था कि ‘कल इस स्थान को हम छोड़ देंगे’। इस बाबाजी के जाने के बाद देवीसिंह ही उनकी सूरत में उस गद्दी पर जा बिराजे और जो कुछ काम किया आप जानते ही हैं। उस दिन बाबाजी की सूरत में देवीसिंह ही थे जिस दिन माधवी ने मिलकर कहा था कि ‘हमारी मदद के लिए भीमसेन आ गया है’। असली बाबजी भी उस पहाड़ी पर देवीसिंह से मिल चुके हैं, जहाँ हमने लिखा है कि एक ही सूरत के दो बाबाजी इकट्ठा हुए हैं और उन्हीं बाबाजी की जुबानी रोहतासगढ़ का मामला देवीसिंह ने सुना था।

देवीसिंह ने अपना अपना बिल्कुल हाल दोनों कुमारों से कहा और आखीर में बोले, ‘‘अब रोहतासगढ़ पर हम ज़रूर चढ़ाई करेंगे।’’

इन्द्र : बहुत अच्छी बात है, हम लोगों का हौसला तो तभी दिखायी देगा! हाँ यह तो कहिए नाहरसिंह के साथ कैसा बर्ताव किया जाय?

देवी : कौन नाहरसिंह?

इन्द्र : उस खँडहर में जो मुझसे लड़ा था! बड़ा ही बहादुर है। उसने प्रण कर रक्खा था कि जो मुझे जीतेगा उसी का मैं ताबेदार हो जाऊँगा। अब उसने भीमसेन का साथ छोड़ दिया और हम लोगों के साथ रहने को तैयार है।

देवी : ऐसे बहादुर पर ज़रूर मेहरबानी करनी चाहिए मगर आज हम उसे आजमावेंगे। आप उसके लिए एक मकान दे दें और हर तरह के आराम का बन्दोबस्त कर दें।

इन्द्रजीत : बहुत अच्छा।

कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने उसी समय नाहरसिंह को अपने पास बुलाया और बड़ी मेहरबानी के साथ पेश आये। एक मकान देकर अपने सेनापति की पदवी उसे दी और भीमसेन को क़ैद में रखने का हुक़्म दिया।

अपने ऊपर कुमार की इतनी मेहरबानी देखकर नाहरसिंह बहुत प्रसन्न हुआ। कुछ देर तक बातें करता रहा, तब सलाम करके अपने ठिकाने पर गया और सेनापति के काम को ईमानदारी के साथ पूरा करने का उद्योग करने लगा।

आधी रात जा चुकी है। चारों तरफ़ सन्नाटा छाया हुआ है। गलियों और सड़कों पर चौकीदारों के ‘जागते रहियो, होशियार रहियो’’ पुकारने की आवाज़ आ रही है। नाहर सिंह अपने मकान में पलँग पर लेटा हुआ कोई किताब देख रहा है और सिरहाने शमादान जल रहा है।

नाहरसिंह के हाथ में श्रुति-स्मृति या पुराण की कोई पुस्तक नहीं है, उसके हाथ में तस्वीरों की एक किताब है जिसके पन्ने वह उलटता है और एक-एक तस्वीर को देर तक बड़े गौर से देखता है। इन तस्वीरों में बड़े-बड़े राजाओं और बहादुरों की मशहूर लड़ाइयों का नक्शा दिखाया गया है और पहलवानों की बहादुरी और दिलावरों की दिलावरी का खाका उतारा हुआ है जिसे देख-देखकर बहादुर नाहरसिंह की रगें जोश मारती हैं और वह चाहता है कि ऐसी लड़ाइयों में हमें भी कभी हौसला निकालने का मौका मिले।

तस्वीरें देखते-देखते बहुत देर हो गयी और नाहरसिंह की नींद-भरी आँखें भी बन्द होने लगीं। आख़िर उसने किताब बन्द करके एक तरफ़ रख दी और थोड़ी ही देर बाद गहरी नींद में सो गया।

इस मकान के किसी कोने में एक आदमी न मालूम कब का छिपा हुआ था जो नाहरसिंह को सोता जानकर उस कमरे में चला आया और पलँग के पास खड़ा हो उसे गौर से देखने लगा। इस आदमी को हम नहीं पहिचानते क्योंकि यह मुँह पर नकाब डाले हुए है। थोड़ी देर बाद अपनी जेब से उसने एक पुड़िया निकाली और एक चुटकी बुकनी की नाहरसिंह की नाक के पास ले गया। साँस के साथ धूरा दिमाग़ में पहुँचा और वह छींक मारकर बेहोश हो गया।

उस आदमी ने अपनी कमर से एक रस्सी खोली और नाहरसिंह के हाथ पैर मज़बूती से बाँधकर उसे होशियार करने के बाद तलवार खैंच मुँह पर से नकाब हटा सामने खड़ा हो गया। होश में आते ही नाहरसिंह ने अपने को बेबस और हाथ में नंगी तलवार लिये महाराज शिवदत्त को सामने मौजूद पाया।

शिव : क्यों, नाहरसिंह, एक नाजुक समय में हमारे लड़के का साथ छोड़ देना और उसे दुश्मनों के हाथ में फँसा देना क्या तुम्हें मुनासिब था?

नाहर : जब तक बहादुर इन्द्रजीतसिंह ने मुझ पर फतह नहीं पायी तब तक मैं बराबर तुम्हारे लड़के का साथी रहा, जब कुमार ने मुझे जीत लिया तो अपने कौल के मुताबिक मैंने उनकी ताबेदारी कबूल कर ली। मेरे कौल को तो तुम भी जानते ही थे!

शिव : जो कुछ तुमने किया है उसकी सजा देने के लिए इस समय मैं मौजूद हूँ।

नाहर : ख़ैर ईश्वर की मर्जी।

शिव : अब भी अगर तुम हमारा साथ देना मंजूर करो तो छोड़ सकता हूँ।

नाहर : यह नहीं हो सकता ऐसे बहादुर का साथ छोड़ तुम्हारे ऐसे बेईमान का संग करना मुझे मंजूर नहीं!

शिव : (डपटकर और तलवार उठाकर) क्या तुम्हें अपनी जान देना मंजूर है?

नाहर : खुशी से मंजूर है मगर मालिक का संग छोड़ना कबूल नहीं है?

शिव : देखो मैं फिर तुम्हें समझाता हूँ, सोचो और मेरा साथ दो!

नाहर : बस बहुत बकवाद करने की ज़रूरत नहीं, जो कुछ तुम कर सको कर लो। मैं ऐसी बातें नहीं सुनना चाहता।

शिवदत्त ने बहुत कुछ समझाया और डराया, धमकाया मगर बहादुर नाहरसिंह की नीयत न बदली। आख़िर लाचार होकर शिवदत्त ने अपने हाथ से तलवार दूर फेंक दी और नाहरसिंह की पीठ ठोंककर बोला—

‘‘शाबाश बहादुर! तुम्हारे ऐसे जवाँमर्द का दिल अगर ऐसा न होगा तो किसका होगा? मैं शिवदत्त नहीं हूँ, कुमार का ऐयार देवीसिंह हूँ, तुम्हें आज़माने के लिए आया था!’’

इतना कहकर उन्होंने नाहरसिंह की मुश्कें खोल दीं और वहाँ से फौरन चले गये। देवीसिंह ने यह हाल दोनों कुमारों से कहकर नाहरसिंह की तारीफ़ की मगर बहादुर नाहरसिंह ने अपनी ज़िन्दगी-भर इस आज़माने का हाल किसी से न कहा।

दूसरे दिन देवीसिंह चुनार चले गये और कह गये कि रोहतासगढ़ की चढ़ाई का बन्दोबस्त करके मैं बहुत जल्द आऊँगा।

यह जानकर कि किशोरी को रोहतासगढ़वाले ले गये हैं कुँअर इन्द्रजीतसिंह की बेचैनी हद से ज़्यादे बढ़ गयी। दम-भर के लिए भी आराम करना मुश्किल हो गया, दो ही पहर में सूरत बदल गयी। किसी का बुलाना या कुछ पूछना उन्हें जहर-सा मालूम पड़ने लगा। इनकी ऐसी हालत देख भैरोसिंह से रहा न गया, निराले में बैठ उन्हें समझाने लगा।

इन्द्र : तुम्हारे समझाने से मेरी हालत किसी तरह बदल नहीं सकती और किशोरी की जान का ख़तरा जो मुझे लगा हुआ है किसी तरह कम नहीं हो सकता!

भैरो : किशोरी को अगर शिवदत्तगढ़वाले ले जाते तो बेशक उसकी जान का खतरा था, क्योंकि शिवदत्तरंज के मारे बिना उसकी जान लिये न रहता, मगर अब तो वह रोहतासगढ़ के राजा के कब्ज़े में है और वह अपने लड़के से उसकी शादी किया चाहता है, ऐसी हालत में किशोरी की जान का दुश्मन वह क्योंकर हो सकेगा?

इन्द्र : अगर ज़बर्दस्ती किशोरी की शादी कर दी गयी तब क्या होगा?

भैरो : हाँ अगर ऐसा हो तो ज़रूर रंज होगा, ख़ैर आप चिन्ता न करिए, ईश्वर चाहेगा तो पाँच ही सात दिन में कुल बखेड़ा तै करे देता हूँ।

इन्द्र : क्या किशोरी को वहाँ से ले आओगे!

भैरो : रोहतासगढ़ के किले में घुसकर किशोरी को निकाल लाना तो दो-तीन दिन का काम नहीं, इसके अतिरिक्त क्या रोहतासगढ़ का किला ऐयारों से खाली होगा?

इन्द्र : फिर तुम पाँच-सात दिन में क्या करोगे?

भैरो : कोई काम ऐसा ज़रूर करूँगा जिससे किशोरी की शादी रुक जाय।

इन्द्र : वह क्या?

भैरो : जिस तरह बनेगा वहाँ के राजकुमार कल्याणसिंह को पकड़ लाऊँगा, जब हम लोगों का फैसला हो जायगा, तब छोड़ दूँगा।

इन्द्र : हाँ अगर करो हो जाय तो क्या बात है!

भैरो : आप चिन्ता न कीजिए। मैं अभी यहाँ से रवाना होता हूँ, मगर आप किसी से मेरे जाने का हाल न कहियेगा।

इन्द्र : क्या अकेले जाओगे?

भैरो : जी हाँ।

इन्द्र : वाह! कहीं फँस जाओ तो मैं तुम्हारी राह ही देखता रह जाऊँ, कोई ख़बर देने वाला भी नहीं।

भैरो : ऐसी उम्मीद न रखिए।

कुँअर इन्द्रजीतसिंह से वादा करके भैरोसिंह रोहतासगढ़ की तरफ़ रवाना हुए, मगर भैरोसिंह का अकेले रोहतासगढ़ जाना इन्द्रजीतसिंह को न भाया। उस समय तो भैरोसिंह की ज़िद्द से चुप हो रहे मगर उसके जाने के बाद कुमार ने सब हाल पण्डित बद्रीनाथ से कहकर दोस्त की मदद के लिए जाने का हुक़्म दिया। हुक़्म पाते ही पण्डित बद्रीनाथ भी रोहतासगढ़ रवाना हुए और रास्ते ही में भैरोसिंह से जा मिले।

दो रोज़ चलकर ये दोनों आदमी रोहतासगढ़ पहुँचे* और पहाड़ के ऊपर चढ़ किले में दाखिल हुए। यह बहुत बड़ा किला पहाड़ पर निहायत खूबी का बना हुआ था और इसी के अन्दर शहर भी बसा था जो बड़े-बड़े सौदागरों महाजनों व्यापारियों और जौहरियों के कारबार से अपनी चमक-दमक दिखा रहा था। इस शहर की खूबी और सजावट का हाल इस जगह लिखने की कोई ज़रूरत नहीं मालूम होती और इतना समय भी नहीं है, हाँ मौके पर दो-चार दफे पढ़कर इसकी खूबी का हाल पाठक मालूम कर लेंगे। इस किले के अन्दर एक छोटा किला और भी था जिसमें महाराजा और उनके आपसवाले रहा करते थे और लोगों में वह महल के नाम से मशहूर था। (* राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द ने अपनी किताब जान-जहाँनुमा में लिखा है—‘‘आरे से करीब पचहत्तर मील के दक्खिन पश्चिम को झुकता हुआ हज़ार फीट ऊँचे पहाड़ के ऊपर एक बड़ा ही मज़बूत किला, ‘‘रोहतासगढ़’’ जिसका असल नाम ‘रोहताशम’’ है दस मील मुरब्बः की वसअत में सोन नदी के बाएँ किनारे पर उजाड़ पड़ा हुआ है। उसमें जाने के वास्ते सिर्फ़ एक ही रास्ता दो कोस की चढ़ाई का तंग-सा बना है बाक़ी सब तरफ़ वह पहाड़ जंगल और नदियों से ऐसा घिरा हुआ है कि किसी तौर से वहाँ आदमी का गुजर नहीं हो सकता। उस किले के अन्दर दो मन्दिर अगले ज़माने के अभी मौजूद हैं बाक़ी सब इमारतें, महल, बाग़, तालाब वग़ैरह जिनका अब सिर्फ़ निशान-भर रह गया है मुसलमान बादशाहों के बनाये हुए हैं।’’

(ग्रन्थकर्ता)—मगर अकबर के ज़माने में जो ‘बिहार’ का हाल लिखा गया है उससे मालूम होता है कि यह मुकाम मुसलमानों की अमलदारी के पहिले से बना हुआ है।)

इस पहाड़ पर छोटे झरने और तालाब बहुत हैं। ऊपर जाने के लिए केवल एक ही राह है और वह भी बहुत बारीक। उसके चारों तरफ़ घना जंगल इस ढंग का है कि ज़रा भी आदमी चूका और राह भूलकर कई दिन तक भटकने की नौबत आयी दुश्मनों का और किसी तरह से इस पहाड़ पर चढ़ना बहुत ही मुश्किल है और वह बारीक राह भी इस लायक नहीं कि पाँच-सात आदमी से ज़्यादे एक साथ चढ़ सकें। भेष बदले हुए हमारे दोनों ऐयार रोहतासगढ़ पहुँचे और वहाँ की रंगत देखकर समझ गये कि इस किले को फतह करने में बहुत मुश्किल पड़ेगी।

भैरोसिंह और पण्डित बद्रीनाथ मथुरिया चौबे बने हुए रोहतासगढ़ में घूमने और एक-एक चीज़ को अच्छी तरह देखने लगे। दोपहर के समय एक शिवालय पर पहुँचे जो बहुत ही खूबसूरत और बड़ा बना हुआ था, सभामण्डप इतना बड़ा था कि सौ-डेढ़-सौ आदमी अच्छी तरह उसमें बैठ सकते थे। उसके चारों तरफ़ खुलासा सहन था जिस पर कई ब्राह्मण और पुज़ारी बैठे धूप सेंक रहे थे। उन्हीं लोगों के पास जाकर हमारे दोनों ऐयार खड़े हो गये और गरजकर बोले—‘‘जै जमुना मैया की!

पुजेरियों ने हमारे दोनों चौबों को ख़ातिरदारी से बैठाया और बातचीत करने लगे।

एक पुजेरी : कहिए चौबेजी कब आना हुआ?

बद्री : बस अभी चले ही तो आते हैं महाराज! पहाड़ पर चढ़ते-चढ़ते थक गये, गला सूख गया, कृपा कर सिल-लुढ़िया दो तो भंग छने और चित्त ठिकाने हो

पुजेरी : लीजिए, सिल-लुढ़िया लीजिए, मसाला लीजिए, चीनी लीजिए, खूब भंग छानिए।

भैरो : भंग मसाला तो हमारे साथ है आप ब्राह्मणों का क्यों नुकसान करें।

पुजेरी : नहीं नहीं, हमारा कुछ नहीं है, यहाँ सब चीज़ें महाराज के हुक़्म से मौजूद रहती हैं, ब्राह्मण परदेशी जो कोई आवे सभों को देने का हुक़्म है।

बद्री : वाह वाह, तब क्या बात है! लाइए फिर महाराज की जयजयकार मनावें!

पुजेरी ने इन दोनों को सब सामान दिया और इन दोनों ने भंग बनायी, आप भी पी और पुजेरियों को भी पिलायी। दोनों ऐयारों ने बातचीत और मसखरेपन से वहाँ के पुजेरियों को अपने बस में कर लिया। बड़े पुजेरी बहुत प्रसन्न हुए और बोले, ‘‘चौबेजी महाराज, बड़े भाग्य से आप लोगों के दर्शन हुए हैं। आप लोग दो-चार रोज़ यहाँ ज़रूर रहिए! इसी जगह आपको महाराजकुमार से भी मिलावेंगे और आप लोगों को बहुत कुछ दिलावेंगे। हमारे महाराजकुमार बहुत ही हँसमुख नेक और बुद्धिमान हैं। आप उन्हें देख बहुत प्रसन्न होंगे!’’

बद्री : बहुत खूब महाराज, आप लोगों की इतनी कृपा है तो हम ज़रूर रहेंगे और आपको महाराजकुमार से भी मिलेंगे वे यहाँ कब आते हैं?

पुजेरी : प्रातः और सायंकाल दोनों समय यहाँ आते हैं और इसी मन्दिर में सन्ध्या पूजा करते हैं!

भैरो : तो आज भी उनके दर्शन होंगे?

पुजेरी : अवश्य!

यह मन्दिर किले की दीवार के पास ही था। इसके पीछे की तरफ़ एक छोटी-सी लोहे की खिड़की थी जिसकी राह से लोग किले के बाहर जंगल में जा सकते थे। पुजेरी के हुक़्म से भंग पीने के बाद दोनों ऐयार उसी राह से जंगल में गये और मैदान होकर लौट आये, पुजेरी लोग भी उसी राह से जंगल मैदान गये।

सन्ध्या समय महाराजकुमार भी वहाँ आये और मन्दिर के अन्दर दरवाज़ा बन्द करके घण्टे-भर से ज़्यादे देर तक सन्ध्या-पूजा करते रहे। उस समय केवल एक बड़ा पुजेरी उस मन्दिर में तब तक मौजूद रहा जब तक महाराजकुमार नित्य नेम करते रहे। दोनों ऐयारों ने भी महाराजकुमार को अच्छी तरह देखा मगर पुजेरी जी को कह दिया था कि आज महाराजाकुमार को यह मत कहना कि यहाँ दो चौबे आये हैं, कल सायंकाल को हम लोगों का सामना कराना।

दोनों ऐयारों ने रात-भर उसी मन्दिर में गुज़ारा किया और अपने मसखरेपन से पुजेरी महाशय को बहुत ही प्रसन्न किया, साथ ही इसके उन्हें इस बात का भी विश्वास दिलाया कि इस पहाड़ के नीचे एक बड़े भारी महात्मा आये हुए हैं, आपको उनसे ज़रूर मिलावेंगे, हम लोगों पर उनकी बड़ी ही कृपा रहती है।

सवेरे उठकर इन दोनों ने फिर भंग घोंटकर पी और सभों को पिलाने के बाद उसी खिड़की की राह मैदान गये। दोनों ऐयार तो अपनी धुन में थे, महाराजकुमार को यहाँ से उड़ाने की फ़िक्र सोच रहे थे तथा उसी खिड़की की राह निकल जाने का उन्होंने मौका तजबीजा था, इसलिए मैदान जाते समय इस जंगल को दोनों आदमी अच्छी तरह देखने लगे कि इधर से सीधी सड़क पर निकल जाने का क्योंकर हम लोगों को मौका मिल सकता है। इस काम में उन्होंने दिन-भर बिता दिया और रास्ता अच्छी तरह समझ-बूझकर शाम होते-होते मन्दिर में लौट आये।

पुजेरी : कहिए चौबेजी महाराज! आप लोग कहाँ चले गये थे?

बद्री : अजी महाराज, कुछ न पूछो! ज़रा आगे क्या बढ़ गये बस जहन्नुम में मिल गये। ऐसा रास्ता भूले कि बस हमारा ही जी जानता है।

भैरो : ईश्वर ही की कृपा से इस समय लौट आये नहीं तो कोई उम्मीद यहाँ पहुँचने की न थी।

पुजेरी : राम राम, यह जंगल बड़ा ही भयानक है, कई दफे तो हम लोग इसमें भूल गये हैं और दो-दो दिन तक भटकते ही रह गये हैं, आप बेचारे तो नये ठहरे, आइए, बैठिए कुछ जलपान कीजिए।

भैरो : अजी कहाँ का खाना, कैसा पीना! होश तो ठिकाने ही नहीं हैं, बस भंग पीकर खूब सोवेंगे। घूमते-घूमते ऐसे थके कि तमाम बदन चूर-चूर हो गया। कृपानिधान, आज भी हम लोगों की इत्तिला कुमार से न कीजियेगा, हम लोग मिलाने लायक नहीं हैं, इस समय तो खूब गहरी छनेगी!!

पुजेरी : ख़ैर ऐसा ही सही! (हँसकर) आइए बैठिए तो।

दोनों ऐयारों ने भंग पी और बाक़ी लोगों को भी पिलायी। इसके बाद कुछ देर आराम करके बाज़ार में घूमने-फिरने के लिए गये और अच्छी तरह देख-भालकर लौट आये। सोते समय फिर उन्हीं महात्मा का ज़िक्र पुजेरी से करने लगे जिनसे मिलाने का वादा कर चुके थे और यहाँ तक उनकी तारीफ़ की कि पुजेरीजी उनसे मिलने के लिए जल्दी करने लगे और बोले, ‘‘यह तो कहिए कल आप उनके दर्शन करावेंगे या नहीं?’’

बद्री : ज़रूर, बस कुमार यहाँ से सन्ध्या-पूजा करके लौट जाँय तो चले चलिए, मगर अकेले आप ही चलिए नहीं तो महात्मा बड़ा बिगड़ेंगे कि इतने आदमियों को क्यों ले आये। वह जल्दी किसी से मिलनेवाले नहीं हैं।

पुजेरी : हमें क्या गरज़ पड़ी है जो किसी को साथ ले जाँय, अकेले आपके साथ चलेंगे।

भैरो : बस तभी तो ठीक होगा।

दूसरे दिन जब महाराजकुमार सन्ध्या-पूजा करके लौट गये तो बद्रीनाथ और भैरोसिंह पुजेरी को साथ ले वहाँ से रवाना हुए और पहाड़ के नीचे उतरने के बाद बोले, ‘‘बस अब यहीं बूटी छान लें तब आगे चलें, इसीलिए लुटिया लेता आया हूँ।

पुजेरी : क्या हर्ज़ है, बूटी छान लीजिए।

बद्री : आपके हिस्से की भी बनाऊँ न।

पुजेरी : इस दोपहर के समय क्या बूटी पिलाइयेगा। हमें तो इतनी आदत न थी, आप ही लोगों के सबब दो दिन से खूब पीने में आती है।

बद्री : क्या हर्ज़ है, थोड़ी-सी पी लीजियेगा।

पुजेरी : जैसी आपकी मरजी।

हमारे बहादुर ऐयारों ने एक पत्थर की चट्टान पर भंग घोंटकर पी और नज़र बचा थोड़ी-सी बेहोशी की दवा मिला पुजेरी को भी पिलायी। थोड़ी ही देर में पुजेरी जी महाराज तो चीं बोल गये और गहरी बेहोशी में मस्त हो गये। दोनों ऐयार उन्हें उठाकर ले गये और एक झाड़ी में छिपा आये।

बद्री : अब क्या करना चाहिए?

भैरो : आप यहाँ रहिए मैं उसी तरकीब से कुमार को उठा लाता हूँ।

बद्री : अच्छी बात है, मैं अपने हाथ से पुजेरी की सूरत तुम्हें बनाता हूँ।

भैरो : बनाइए।

पुजेरी : की सूरत बन बद्रीनाथ को उसी जगह छोड़ भैरोसिंह लौटे। सन्ध्या होने के पहिले ही मन्दिर में जा पहुँचे। लोगों ने पूछा, ‘‘कहिए पुजेरी जी, महात्मा से मुलाक़ात हुई या नहीं? और अकेले क्यों लौटे, चौबेजी कहाँ रह गये?’’

नकली पुजेरी ने कहा—‘‘महात्मा से मुलाक़ात हुई। वाह क्या बात है, महात्मा क्या वह तो पूरे सिद्ध हैं! दोनों चौबों को बहुत मानते हैं। उन्हें तो आने न दिया मगर मैं चला आया। अब चौबेजी कल आवेंगे।’’

समय पर महाराजकुमार भी आ पहुँचे और सन्ध्या करने के लिए मन्दिर के अन्दर घुसे। मामूली तौर पर पुजेरी के बदले में नकली पुजेरी अर्थात् भैरोसिंह मन्दिर के अन्दर रहे और कुमार के अन्दर आने पर भीतर से किवाड़ बन्द कर लिया। सन्ध्या करने के समय महाराजकुमार के साथ मन्दिर के अन्दर घुसकर पुजेरी क्या-क्या करते थे यह दोनों ऐयारों ने उनसे बातों-बातों में पहिले ही दरियाफ्त कर लिया था। पुजेरी जी मन्दिर के अन्दर बैठे कुछ विशेष काम नहीं करते थे, केवल पूजा का सामान कुमार के आगे जमा कर देते और एक किनारे बैठे रहते थे। चलती समय प्रसादी में माला कुमार को देते थे और वे उसे सूँघ आँखों से लगा उसे उसी जगह रख चले जाते थे। आज इन सब कामों को हमारे ऐयार पुजेरीजी ने ही पूरा किया।

इस मन्दिर में चारों तरफ़ चार दरवाज़े थे। आगे की तरफ़ तो कई आदमी और पहरे वाले बैठे रहते थे, बायीं तरफ़ के दरवाज़े पर होम करने का कुण्ड बना हुआ था, दाहिने दरवाज़े पर फूलों के कई गमले रक्खे हुए थे, और पिछला दरवाज़ा बिल्कुल सन्नाटा पड़ता था।

मन्दिर के अन्दर दरवाज़ा बन्द करके कुमार सन्ध्या करने लगे। प्राणायाम के समय मौका जानकर नकली पुजेरी ने आशीर्वाद में देनेवाली फूलों की माला में बेहोशी का धूरा मिलाया। जब कुमार चलने लगे पुजेरी ने माला गले में डाली, कुमार ने उसे गले से निकाल सूँघा और माथे से लगाकर उसी जगह रख दिया।

माला सूँघने के साथ ही कुमार का सिर घूमा और वे बेहोश हो कर ज़मीन पर गिर पड़े। भैरोसिंह ने झटपट उनकी गठरी बाँधी और पिछले दरवाज़े की राह बाहर निकल आये, इसके बाद उसी छोटी खिड़की की राह किले के बाहर हो जंगल का रास्ता लिया और दो ही घण्टे में उस जगह जा पहुँचे जहाँ पण्डित बद्रीनाथ को छोड़ गये थे। ये दोनों ऐयार कुमार कल्याणसिंह को ले गायजी की तरफ़ रवाना हुए।


...Prev | Next...

To give your reviews on this book, Please Login