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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...

दूसरा भाग

 

पहिला बयान


घण्टा-भर दिन बाक़ी है। किशोरी अपने उसी बाग में जिसका कुछ हाल ऊपर लिख चुके हैं कमरे की छत पर सात-आठ सखियों के बीच में उदास तकिये के सहारे बैठी आसमान की तरफ़ देख रही है। सुगन्धित हवा के झोंके उसे खुश किया चाहते हैं मगर वह अपनी धुन में ऐसी उलझी हुई है कि दीन-दुनिया की ख़बर नहीं है। आसमान पर पश्चिम की तरफ़ लालिमा छायी है। श्याम रंग के बादल ऊपर की तरफ़ उठ रहे हैं, जिनमें तरह-तरह की सूरतें बात-की-बात में पैदा होती और देखते-देखते बदलकर मिट जाती हैं। अभी यह बादल का टुकड़ा खण्ड पर्वत की तरह दिखायी देता था, अभी उसके ऊपर शेर की मूरत नज़र आने लगी, लीजिए, शेर की गर्दन इतनी बूढ़ी कि साफ़ ऊँट की शक्ल बन गयी और लमहे-भर में हाथी का रूप धर सूँड़ दिखाने लगी, उसी के पीछे हाथ में बन्दूक लिए एक सिपाही की शक्ल नज़र आयी लेकिन यह बन्दूक छोड़ने के पहिले खुद ही धुआँ होकर फैल गया।

बादलों की यह ऐयारी इस समय न मालूम कितने आदमी देख-देखकर खुश होते होंगे। मगर किशोरी के दिल की धड़कन इसे देख-देखकर बढ़ती ही जाती है। कभी तो उसका सर पहाड़-सा भारी हो जाता है, कभी माधवी बाघिन की सूरत ध्यान में आती है, कभी बाकरअली शुतुरमुहार की बदमाशी याद आती है, कभी हाथ में बन्दूक लिए हरदम जान लेने को तैयार बाप की याद तड़पा देती है।

कमला को गये कई दिन हुए, आज तक वह लौटकर नहीं आयी, इस सोच ने किशोरी को और भी दुःखी कर रक्खा है। धीरे-धीरे शाम हो गयी, सखियाँ सब पास बैठी ही रहीं मगर सिवाय ठण्डी-ठण्डी साँस लेने के किशोरी ने किसी से बातचीत न की और वे सब भी दम न मार सकीं।

कुछ रात जाते-जाते बादल अच्छी तरह से घिर आये, आँधीं भी चलने लगी। किशोरी छत पर से नीचे उतर आयी और कमरे के अन्दर मसहरी पर जा लेटी, थोड़ी ही देर बाद कमरे के सदर दरवाज़े का पर्दा हटा और कमला अपनी असली सूरत में आती दिखायी पड़ी।

कमला के न आने से किशोरी उदास हो रही थी, उसे देखते ही पलँग पर से उठी, आगे बढ़कर कमला को गले से लगा लिया और गद्दी पर अपने पास ला बैठाया, कुशल-मंगल पूछने के बाद बातचीत होने लगी—

किशोरी : कहो बहिन तुमने इतने दिनों में क्या-क्या काम किया? उनसे मुलाक़ात भी हुई या नहीं?

कमला : मुलाक़ात क्यों न होती? आख़िर मैं गयी थी किसलिए!

किशोरी : कुछ मेरा हाल-चाल भी पूछते थे?

कमला : तुम्हारे लिए तो जान देने को तैयार हैं क्या हाल-चाल भी न पूछेंगे? बस दो ही एक दिन में तुमसे मुलाक़ात हुआ चाहती है।

किशोरी : (खुश होकर) हाँ! तुम्हें मेरी ही कसम, मुझसे झूठ न बोलना!

कमला : क्या तुम्हें विश्वास है कि मैं तुमसे झूठ बोलूँगी?

किशोरी : नहीं नहीं, मैं ऐसा नहीं समझती हूँ, लेकिन इस ख़याल से कहती हूँ कि कहीं दिल्लगी न सूझी हो।

कमला : ऐसा कभी मत सोचना।

किशोरी : ख़ैर यह कहो कि माधवी की क़ैद से उन्हें छुट्टी मिली या नहीं और अगर मिली तो क्योंकर?

कमला : इन्द्रजीतसिंह को माधवी ने उसी पहाड़ी के बीचोंबीच मकान में रक्खा था, जिसमें पारसाल मुझे और तुम्हें दोनों की आँखों में पट्टी बाँध कर ले गयी थी।

किशोरी : बड़े बेढब ठिकाने छिपा रक्खा था।

कमला : मगर वहाँ भी उनके ऐयार लोग पहुँच गये!

किशोरी : भला वे लोग क्यों न पहुँचेंगे, हाँ तब क्या हुआ?

कमला : (किशोरी की सखियों और लौंडियों की तरफ़ देख के) तुम लोग जाओ अपना काम करो।

किशोरी : हाँ, अभी काम नहीं है, फिर बुलावेंगे तो आना।

सखियों और लौंडियों के चले जाने पर कमला ने देर-तक बातचीत करने के बाद कहा...

‘‘माधवी का और अग्निदत्त दीवान का हाल भी चालाकी से इन्द्रजीतसिंह ने जान लिया, आजकल उनके कई ऐयार वहाँ पहुँचे हुए हैं, ताज्जुब नहीं कि दस-पाँच दिन में वे लोग उस राज्य ही को गारत कर डालें।’’

किशोरी : मगर तुम तो कहती हो कि इन्द्रजीतसिंह वहाँ से छूट गये!

कमला : हाँ, इन्द्रजीतसिंह तो वहाँ से छूट गये मगर उनके ऐयारों ने अभी तक माधवी का पीछा नहीं छोड़ा, इन्द्रजीतसिंह के छुड़ाने का बन्दोबस्त तो उनके ऐयारों ही ने किया था मगर आखीर मे मेरे ही हाथ से उन्हें छुट्टी मिली। मैं उन्हें चुनार पहुँचाकर तब यहाँ आयी हूँ और जो कुछ मेरी जुबानी उन्होंने तुम्हें कहला भेजा है उसे कहना तथा उनकी बात मानना ही मुनासिब समझती हूँ।

किशोरी : उन्होंने क्या कहा है?

कमला : यों तो वे मेरे सामने बहुत कुछ बक गये मगर असल मतलब उनका यही है कि तुम चुपचाप चुनार उनके पास बहुत जल्द पहुँच जाओ।

किशोरी : (देर तक सोचकर) मैं तो अभी चुनार जाने को तैयार हूँ मगर इसमें बड़ी हँसाई होगी।

कमला : अगर तुम हँसाई का ख़याल करोगी तो बस हो चुका, क्योंकि तुम्हारे माँ-बाप इन्द्रजीतसिंह के पूरे दुश्मन हो रहे हैं, जो तुम चाहती हो उसे वे खुशी से कभी मंजूर न करेंगे। आख़िर जब तुम अपने मन की करोगी तभी लोग हँसेंगे, ऐसा ही है तो इन्द्रजीतसिंह का ध्यान दिल से दूर करो या फिर बदनामी कबूल करो।

किशोरी : तुम सच कहती हो, एक-न-एक दिन बदनामी होती ही है क्योंकि इन्द्रजीतसिंह को मैं किसी तरह भूल नहीं सकती। आख़िर तुम्हारी क्या राय है?

कमला : सखी, मैं तो कहूँगी कि अगर तुम इन्द्रजीतसिंह को नहीं भूल सकतीं तो उनसे मिलने के लिए इससे बढ़कर कोई दूसरा मौक़ा तुम्हें न मिलेगा। चुनार में जाकर बैठ रहोगी तो कोई भी तुम्हारा कुछ न बिगाड़ सकेगा, आज कौन ऐसा है जो महाराज बीरेन्द्रसिंह से मुकाबला करने का साहस रखता हो? तुम्हारे पिता अगर ऐसा करते हैं तो यह उनकी भूल है। आज सुरेन्द्रसिंह के ख़ानदान का सितारा बड़ी तेज़ी से आसमान पर चमक रहा है और उनसे दुश्मनी का दावा करना अपने को मिट्टी में मिला देना है।

किशोरी : ठीक है, मगर इस तरह वहाँ चले जाने से इन्द्रजीतसिंह के बड़े लोग कब खुश होंगे?

कमला : नहीं नहीं, ऐसा मत सोचो, क्योंकि तुम्हारी और इन्द्रजीतसिंह की मुहब्बत का हाल वहाँ किसी से छिपा नहीं है। सभों लोग जानते हैं कि इन्द्रजीतसिंह तुम्हारे बिना जी नहीं सकते, फिर उन लोगों को इन्द्रजीतसिंह की कितनी मुहब्बत है यह तुम खुद जानती हो, अस्तु ऐसी दशा में वे लोग तुम्हारे जाने से कब नाखुश हो सकते हैं। दूसरे, दुश्मन की लड़की अपने घर में आ जाने से वे लोग अपनी जीत समझेंगे। मुझे महारानी चन्द्रकान्ता ने खुद कहा था कि जिस तरह बने तुम समझा-बुझाकर किशोरी को ले आओ, बल्कि उन्होंने अपनी ख़ास सवारी का रथ और कई लौंडी गुलाम भी मेरे साथ भेजे हैं!

किशोरी : (चौंककर) क्या उन लोगों को अपने साथ लायी हो!

कमला : हाँ, जब महारानी चन्द्रकान्ता की इतनी मुहब्बत तुम पर देखी तभी तो मैं भी वहाँ चलने के लिए राय देती हूँ।

किशोरी : अगर ऐसा है तो मैं किसी तरह रुक नहीं सकती, अभी तुम्हारे साथ चली चलूँगी मगर देखो सखी तुम्हें बराबर मेरे साथ रहना पड़ेगा।

कमला : भला मैं कभी तुम्हारा साथ छोड़ सकती हूँ!

किशोरी : अच्छा तो यहाँ किसी से कुछ कहना सुनना तो है नहीं?

कमला : किसी से कुछ कहने की ज़रूरत नहीं, बल्कि तुम्हारी इन सखियों और लौंडियों को भी कुछ पता न लगना चाहिए जिनको मैंने इस समय यहाँ से हटा दिया है।

किशोरी : वह रथ कहाँ खड़ा है?

कमला : इसी बगलवाली आम की बारी में रथ और चुनार से आये हुए लौंडी, गुलाम सब मौजूद हैं।

किशोरी : ख़ैर चलो देखा जायगा, राम मालिक हैं।

किशोरी को साथ ले कमला चुपके से कमरे के बाहर निकली और पेड़ों में छिपती हुई बाग से निकलकर बहुत जल्द उस आम की बारी में जा पहुँची जिसमें रथ और लौंडी गुलामों के मौजूद रहने का पता दिया था। वहाँ किशोरी ने कई लौंडी गुलामों और उस रथ को भी मौजूद पाया जिसमें बहुत तेज़ चलने वाले ऊँचे काले रंग के नागौरी बैलों की जोड़ी जुती हुई थी। किशोरी और कमला दोनों सवार हुईं और रथ तेज़ी के साथ रवाना हुआ।

इधर घण्टा-भर बीत जाने पर भी जब किशोरी ने अपनी सखियों और लौंडियों को आवाज़ न दी तब वे लाचार होकर बिना बुलाये उस कमरे में पहुँचीं जिसमें कमला और किशोरी को छोड़ गयी थीं मगर वहाँ दोनों मे से किसी को भी मौजूद न पाया। घबराकर इधर-उधर ढूँढ़ने लगीं, कहीं पता न चला। तमाम बाग छान डाला पर किसी की सूरत दिखायी न पड़ी। सभों में खलबली मच गयी मगर क्या हो सकता था!

आधी-रात तक कोलाहाल मचा रहा। उस समय कमला भी वहाँ आ मौजूद हुई। सभों ने उसे चारों तरफ़ से घेर लिया और पूछा, ‘‘हमारी किशोरी कहाँ है?’’

कमला : यह क्या मामला है जो तुम लोग इस तरह घबड़ा रही हो? क्या किशोरी कहीं चली गयीं?

एक : चली नहीं गयीं तो कहाँ हैं? तुम उन्हें कहाँ छोड़ आयीं?

कमला : क्या किशोरी को मैं अपने साथ ले गयी थी जो मुझसे पूछती हो? वह कब से गायब हैं?

एक : पहर-भर से तो हम लोग ढूँढ़ रही हैं! तुम दोनों इसी कमरे में बातें कर रही थीं, हम लोगों को हट जाने के लिए कहा, फिर न मालूम क्या हुआ कहाँ चली गयीं।

कमला : बस बस, अब मैं समझ गयी, तुम लोगों ने धोखा खाया, मैं तो अभी चली ही आती हूँ। हाय, यह क्या हुआ! बेशक दुश्मन अपना काम कर गये और हम लोगों को आफ़त में डाल गये। हाय, अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, किससे पूछूँ कि मेरी प्यारी किशोरी को कौन ले गया।

 

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