चन्द्रकान्ता सन्तति - 1
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चन्द्रकान्ता सन्तति - 1 पुस्तक का ई-संस्करण...
पन्द्रहवाँ बयान
अब इस जगह थोड़ा-सा हाल इस राज्य का और साथ ही इसके माधवी का भी लिख देना ज़रूरी है।
किशोरी की माँ अर्थात् शिवदत्त की रानी दो बहिनें थीं। एक जिसका नाम कलावती था शिवदत्त के साथ ब्याही थी, और दूसरी मायावती गया के राजा चन्द्रदत्त से ब्याही थी। इसी मायावती की लड़की यह माधवी थी जिसका हाल हम ऊपर लिख आये हैं।
माधवी को दो वर्ष की छोड़कर उसकी माँ मर गयी थी, मगर माधवी का बाप चन्द्रदत्त होशियार होने पर माधवी को गद्दी देकर मरा था। अब आप समझ गये होंगे कि माधवी और किशोरी दोनों आपुस में मौसेरी बहिनें थीं।
माधवी का बाप चन्द्रदत्त बहुत ही शौक़ीन और ऐयाश आदमी था। अपनी रानी को जान से ज़्यादे मानता था, ख़ास राजधानी गयाजी छोड़कर प्रायः राजगृह में रहा करता था जो गया से दो मंजिल पर एक बड़ा भारी मशहूर तीर्थ है। यह दिलचस्प और खुशनुमा पहाड़ी उसे कुछ ऐसी भायी कि साल में दस महीने इसी जगह रहा करता। एक आलीशान मकान भी बनवा लिया। यह खुशनुमा और दिलचस्प ज़मीन जिसमे कुमार इन्द्रजीतसिंह बेबस पड़े हैं और कुदरती तौर पर पहिले की ही बनी हुई थी मगर इसमे आने-जाने का रास्ता और यह मकान चन्द्रदत्त ही ने बनवाया था।
माधवी के माँ-बाप दोनों ही शौक़ीन थे। माधवी को अच्छी शिक्षा देने का उन लोगों को ज़रा भी ध्यान न था। वह दिन-रात लाड़-प्यार ही में पला करती थी और एक खूबसूरत और चंचल दाई की गोद में रहकर अच्छी बातों के बदले हावभाव ही सीखने में खुश रहती थी, इसी सबब से इसका मिज़ाज लड़कपन से ही खराब हो रहा था। बच्चों की तालीम पर यदि माँ-बाप ध्यान न दे सकें तो मुनासिब है कि उन्हें किसी ज़्यादे उम्र-वाली और नेकचलन दाई की गोद में दे दें, मगर माधवी के माँ-बाप को इसका कुछ भी ख़याल न था और आख़िर इसका नतीजा बहुत ही बुरा निकला।
माधवी के समय में इस राज्य में तीन आदमी मुखिया थे, बल्कि यों कहना चाहिए इस राज्य का आनन्द ये ही तीनों ले रहे थे और तीनों दोस्त एकदिल हो रहे थे। इनमें से एक तो दीवान अग्निदत्त था, दूसरा कुबेरसिंह सेनापति, और तीसरा धर्मसिंह जो शहर की कोतवाली करता था।
अब हम अपने किस्से की तरफ़ झुकते हैं और उस तालाब पर पहुँचते हैं जिसमे एक नौजवान औरत को पकड़ने के लिए योगिनी और बनचरी कूदी थीं। आज इस तालाब पर हम अपने कई ऐयारों को देखते हैं जो आपुस में बातचीत और सलाह करके कोई भारी आफ़त मचाने की तरकीब जमा रहे हैं।
पण्डित बद्रीनाथ, भैरोसिंह और तारासिंह तालाब के ऊपर पत्थर के चबूतरे पर बैठे यों बातचीत कर रहे हैं-
भैरो : कुमार को वहाँ से निकाल ले आना तो कोई बड़ी बात नहीं है।
तारा : मगर उन्हें भी तो कुछ सज़ा देना चाहिए जिनकी बदौलत कुमार इतने दिनों से तकलीफ उठा रहे हैं।
भैरो : ज़रूर, बिना सजा दिये जी कब मानेगा?
बद्री : जहाँ तक हम समझते हैं कलवाली राय बहुत अच्छी है।
भैरो : उससे बढ़कर कोई राय नहीं हो सकती, ये लोग भी क्या कहेंगे कि किसी से काम पड़ा था!
बद्री : यहाँ तो बस ललिता और तिलोत्तमा ही शैतानी की जड़ हैं, सुनते हैं उनकी ऐयारी भी बहुत बढ़ी-चढ़ी है।
तारा : पहिले उन्हीं दोनों की ख़बर ली जायेगी।
भैरो : नहीं-नहीं, इसकी कोई ज़रूरत नहीं। उन्हें गिरफ़्तार किये बिना ही हमारा काम चल जायगा, व्यर्थ कई दिन बरबाद करने का मौक़ा नहीं है।
तारा : हाँ यह ठीक है, हमें उसकी इतनी ज़रूरत भी नहीं है, और क्या ठिकाना जब तक हम लोग अपना काम करें, तब तक वे चाची के फन्दे में आ फँसे।
भैरो : बेशक ऐसा ही होगा, क्योंकि उन्होंने कहा भी था कि तुम लोग इस काम को करो तब तक बन पड़ेगा तो मैं ललिता और तिलोत्तमा को भी फाँस लूँगा।
बद्री : ख़ैर जो होगा देखा जायेगा, अब हम लोग अपने काम में क्यों देर कर रहे हैं?
भैरो : देर की ज़रूरत क्या है। उठिए, हाँ पहिले अपना-अपना शिकार बाँट लीजिए।
बद्री : दीवान साहब को मेरे लिए छोड़िए।
भैरो : हाँ, आपका उनका वज़न बराबर है, अच्छा मैं सेनापति की ख़बर लूँगा।
तारा : तो वह चाण्डाल कोतवाल मेरे बाँटे पड़ा! ख़ैर यही सही!
भैरो : अच्छा अब यहाँ से चलो।
ये तीनों ऐयार वहाँ से उठे ही थे कि दाहिनी तरफ़ से छींक की आवाज़ आयी!
बद्री : धत्तेरे की, क्या तेरे छींकने का कोई दूसरा समय न था?
तारा : क्या आप छींक से डर गये?
बद्री : मैं छींक से नहीं डरा मगर छींकनेवाले से जी खटकता है।
भैरो : हमारे काम में विघ्न पड़ता दिखायी देता है।
बद्री : इस दुष्ट को पकड़ा चाहिए, बेशक यह चुपके-चुपके हमारी बातें सुनता रहा।
तारा : छींक नहीं बदमाशी है!
बद्रीनाथ ने इधर-उधर बहुत ढूँढ़ा मगर छींकनेवाले का पता न लगा।
लाचार तरद्दुद ही में तीनों वहाँ से रवाना हुए।
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