श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)
A PHP Error was encounteredSeverity: Notice Message: Undefined index: author_hindi Filename: views/read_books.php Line Number: 21 |
निःशुल्क ई-पुस्तकें >> श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड) |
वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
जब कहू कै देखहिं बिपती। सुखी भए मानहुँ जग नृपती।।
स्वारथ रत परिवार बिरोधी। लंपट काम लोभ अति क्रोधी।।2।।
स्वारथ रत परिवार बिरोधी। लंपट काम लोभ अति क्रोधी।।2।।
और जब किसीकी विपत्ति देखते हैं, तब ऐसे सुखी
होते हैं मानो जगत् भर के राजा हो गये हों। वे स्वार्थपरायण, परिवाखालोंके
विरोधी काम और लोभके कारण
लंपट और अत्यन्त क्रोधी होते हैं।।2।।
मातु पिता गुर बिप्र मानहिं। आपु गए अरु धालहिं आनहिं।।
करहिं मोह बस द्रोह परावा। संत संग हरि कथा न भावा।।3।।
करहिं मोह बस द्रोह परावा। संत संग हरि कथा न भावा।।3।।
वे माता, पिता, गुरु और ब्राह्मण किसी को
नहीं मानते। आप तो नष्ट हुए ही
रहते हैं, [साथ ही अपने संगसे] दूसरोंको भी नष्ट करते हैं। मोहवश दूसरोंसे
द्रोह करते हैं। उन्हें संतोंका संग अच्छा लगता है, न भगवान् की कथा ही
सुहाती है।।3।।
अवगुन सिंधु मंदमति कामी। बेद बिदूषक परधन स्वामी।।
बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा। दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा।।4।।
बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा। दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा।।4।।
वे अवगुणों के समुद्र, मन्दबुद्धि, कामी
(रागयुक्त), वेदोंके निन्दक और
जबर्दस्ती पराये धनके स्वामी (लूटनेवाले) होते हैं। वे दूसरों से द्रोह तो
करते ही हैं; परन्तु ब्राह्मण-द्रोह विशेषतासे करते हैं। उनके हृदय में
दम्भ और कपट भरा रहता है, परन्तु वे [ऊपरसे] सुन्दर वेष धारण किये रहते
हैं।।4।।
दो.-ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेताँ नाहिं।
द्वापर कछुक बृंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं।।40।।
द्वापर कछुक बृंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं।।40।।
ऐसे नीच और दुष्ट मनुष्य सत्ययुग और
त्रेता में नहीं होते द्वापर में थोड़े-से होगें और कलियुगमें तो इनके झुंड-के-झुंड होंगे।।40।।
चौ.-पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।
निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर।।1।।
निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर।।1।।