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श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।


काम क्रोध मद लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन।।
बयरु अकारन सब काहू सों। जो कर हित अनहित ताहू सों।।3।।

वे काम क्रोध, मद और लोभ के परायण तथा निर्दयी, कपटी, कुटिल और पापों के घर होते हैं। वे बिना ही कारण सब किसी से वैर किया करते हैं। जो भलाई करता है उसके साथ भी बुराई करते हैं।।3।।

झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना।।
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाइ महा अहि हृदय कठोरा।।4।।

उनका झूठा ही लेना और झूठा ही देना होता है। झूठा ही भोजन होता है और झूठा ही चबेना होता है। (अर्थात् वे लेने-देनेके व्यवहारमें झूठका आश्रय लेकर दूसरो का हक मार लेते हैं अथा झूठी डींग हाँका करते हैं कि हमने लाखों रुपये ले लिये, करोड़ों का दान कर दिया। इसी प्रकार खाते है चनेकी रोटी और कहते हैं कि आज खूब माल खाकर आये। अथवा चबेना चबाकर रह जाते हैं और कहते हैं हमें बढ़िया भोजन से वैराग्य है, इत्यादि। मतलब यह कि वे सभी बातों में झूठ ही बोला करते हैं)। जैसे मोर [बहुत मीठा बोलता है, परन्तु उस] का हृदय ऐसा कठोर होता है कि वह महान् विषैले साँपोंको भी खा जाता है। वैसे ही वे भी ऊपर से मीठे वचन बोलते हैं [परन्तु हृदय के बड़े ही निर्दयी होते हैं।।4।।

दो.-पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद।
ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद।।39।।

वे दूसरों से द्रोह करते हैं और परायी स्त्री पराये धन तथा परायी निन्दा में आसक्त रहते हैं। वे पामर और पापमय मनुष्य नर-शरीर धारण किये हुए राक्षस ही हैं।।39।।

चौ.-लोभइ ओढ़न लोभइ डासन। सिस्रोदर पर जमपुर त्रास न।।
काहू की जौं सुनहिं बड़ाई। स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई।।1।।

लोभ ही उनका ओढ़ना और लोभ ही बिछौना होता है (अर्थात् लोभही से सदा घिरे हुए रहते हैं)। वे पशुओं के समान आहार और मैथुनके ही परायण होते हैं, उन्हें यम पुर का भय नहीं लगता। यदि किसीकी बड़ाई सुन पाते हैं, तो वे ऐसी [दुःखभरी] साँस लेते हैं, मानो जूड़ी आ गयी हो।।1।।

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