श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
तब हनुमंत नाइ पद माथा। कहे सकल रघुपति गुन गाथा।।
कहु कपि कबहुँ कृपाल गोसाईं। सुमिरहिं मोहि दास की नाईं।।8।।
कहु कपि कबहुँ कृपाल गोसाईं। सुमिरहिं मोहि दास की नाईं।।8।।
तब हनुमान् जी ने भरत जी के चरणों में मस्तक
नवाकर श्रीरघुनाथजी की सारी
गुणगाथा कही। [भरतजीने पूछा-] हे हनुमान् ! कहो, कृपालु स्वामी
श्रीरामचन्द्रजी कभी मुझे अपने दास की तरह याद भी करते हैं ?।।8।।
छं.-निज दास ज्यों रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर्यो।
सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकि तन चरनन्हि पर्यो।।
रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो।
काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंध सो।।
सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकि तन चरनन्हि पर्यो।।
रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो।
काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंध सो।।
रघुवंश के भूषण श्रीरामजी क्या कभी अपने
दासकी भाँति मेरा स्मरण करते रहे
हैं ? भरतजी के अत्यन्त नम्र वचन सुनकर हनुमान् जी पुलकित शरीर होकर उनके
चरणोंपर गिर पड़े [और मन में विचारने लगे कि] जो चराचर के स्वामी हैं वे
श्रीरघुवीर अपने श्रीमुख से जिनके गुणसमूहों का वर्णन करते हैं, वे भरतजी
ऐसे विनम्र, परम पवित्र और सद्गुणों के समुद्र क्यों न हों ?
दो.-राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात।
पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदय समात।।2क।।
पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदय समात।।2क।।
[हनुमान् जी ने कहा-] हे नाथ ! आप श्रीरामजी को
प्राणों के समान प्रिय हैं,
हे तात ! मेरा वचन सत्य है। यह सुनकर भरत जी बार-बार मिलते हैं, हृदय
हर्ष समाता नहीं है।।2(क)।।
सो.- भरत चरन सिरु नाइ तुरित गयउ कपि राम पहिं।
कही कुसल सब जाइ हरषि चलेउ प्रभु जान चढ़ि।।2ख।।
कही कुसल सब जाइ हरषि चलेउ प्रभु जान चढ़ि।।2ख।।
फिर भरत जी के चरणों में सिर नवाकर हनुमान्
जी तुरंत ही श्रीरामजी के पास
[लौट] गये और जाकर उन्होंने सब कुशल कही। तब प्रभु हर्षित होकर विमान पर
चढ़कर चले।।2(ख)।।
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