श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
जातरूप मनि रचित अटारीं। नाना रंग रुचिर गच ढारीं।।
पुर चहुँ पास कोट अति सुंदर। रचे कँगूरा रंग रंग बर।।2।।
पुर चहुँ पास कोट अति सुंदर। रचे कँगूरा रंग रंग बर।।2।।
[दिव्य] स्वर्ण और रत्नों से भरी हुई
अटारियाँ हैं। [मणि-रत्नोंकी] अनेक
रंगोंकी सुन्दर ढली हुई फर्शे हैं। नगर के चारों ओर अत्यन्त सुन्दर परकोटा
बना है, जिसपर सुन्दर रंग-बिरंगे कँगूरे बने हैं।।2।।
नव ग्रह निकर अनीक बनाई। जनु घेरी अमरावति आई।।
महि बहु रंग रचित गच काँचा। जो बिलोकि मुनिबर मन नाचा।।3।।
महि बहु रंग रचित गच काँचा। जो बिलोकि मुनिबर मन नाचा।।3।।
मानो नवग्रहों ने बड़ी भारी सेना बनाकर
अमरावती को आकर घेर लिया हो। पृथ्वी
(सड़कों) पर अनेकों रंगों के (दिव्य) काँचों (रत्नों) की गच बनायी (ढाली)
गयी है, जिसे देखकर श्रेष्ठ मुनियोंके भी मन नाच उठते हैं।।3।।
धवल धाम ऊपर नभ चुंबत। कलस मनहुँ रबि ससि दुति निंदत।।
बहु मनि रचित झरोखा भ्राजहिं। गृह गृह प्रति मनि दीप बिराजहिं।।4।।
बहु मनि रचित झरोखा भ्राजहिं। गृह गृह प्रति मनि दीप बिराजहिं।।4।।
उज्ज्वल महल ऊपर आकाशको चूम (छू) रहे हैं।
महलों पर के कलश [अपने दिव्य
प्रकाशसे] मानो सूर्य, चन्द्रमाके प्रकाशकी भी निन्दा (तिरस्कार) करते
हैं। [महलोंमें] बहुत-सी मणियोंसे रचे हुए झऱोखे सुशोभित हैं और घर-घरमें
मणियोंके दीपक शोभा पा रहे हैं।।4।।
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