श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
असरन सरन बिरदु संभारी। मोहि जनि तजहु भगत हितकारी।।
मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता।।2।।
मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता।।2।।
अतः हे भक्तों के हितकारी ! अपना अशरण-शरण
विरद (बाना) याद करके मुझे
त्यागिये नहीं। मेरे तो स्वामी, गुरु, माता सब कुछ आप ही हैं आपके
चरणकमलोंको छोड़कर मैं कहाँ जाऊँ ?।।2।।
तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा। प्रभु तजि भवन काज मम काहा।।
बालक ग्यान बुद्धि बल हीना। राखहु सरन नाथ जन दीना।।3।।
बालक ग्यान बुद्धि बल हीना। राखहु सरन नाथ जन दीना।।3।।
हे महाराज ! आप ही विचार कर कहिये, प्रभु
(आप) को छोड़कर घर में मेरा क्या
काम है ? हे नाथ ! इस ज्ञान, बुद्धि और बल से हीन बालक तथा दीन सेवकको
शरणमें रखिये।।3।।
नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ। पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ।।
अस कहि चरन परेउ प्रभु पाहीं। अब जनि नाथ कहहु गृह जाही।।4।।
अस कहि चरन परेउ प्रभु पाहीं। अब जनि नाथ कहहु गृह जाही।।4।।
मैं घर की सब नीची-से-नीची सेवा करूँगा और
आपके चरणकमलोंको देख-देखकर
भवसागरसे तर जाऊँगा। ऐसा कहकर वे श्रीरामजीके चरणोंमें गिर पड़े [और
बोले-] हे प्रभो ! मेरी रक्षा कीजिये ! हे नाथ ! अब यह न कहिये कि तू घर
जा।।4।।
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