श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
तब प्रभु भूषन बसन मगाए। नाना रंग अनूप सुहाए।।
सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए। बसन भरत निज हाथ बनाए।।3।।
सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए। बसन भरत निज हाथ बनाए।।3।।
तब प्रभु ने अनेकों रंग के अनुपम और सुन्दर
गहने-कपड़े मँगवाये। सबसे पहले
भरतजी ने अपने हाथ से सँवारकर सुग्रीवको वस्त्राभूषण पहनाये।।3।।
प्रभु प्रेरित लछिमन पहिराए। लंकापति रघुपति मन भाए।।
अंगद बैठ रहा नहिं डोला। प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला।।4।।
अंगद बैठ रहा नहिं डोला। प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला।।4।।
फिर प्रभु की प्रेरणा से लक्ष्मणजीने
विभीषणको गहने-कपड़े पहनाये, जो
श्रीरघुनाथजी के मनको बहुत ही अच्छे लगे। अंगद बैठे ही रहे, वे अपनी जगह
से हिलेतक नहीं। उनका उत्कट प्रेम देखकर प्रभुने उनको नहीं बुलाया।।4।।
दो.-जामवंत नीलादि सब पहिराए रघुनाथ।
हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ।।17क।।
हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ।।17क।।
जाम्बवान् और नील आदि सबको श्रीरघुनाथजीने
स्वयं भूषण-वस्त्र पहनाये। वे
सब अपने हृदयों में श्रीरामचन्द्रजीके रूपको धारण करके उनके चरणोंमें
मस्तक नवाकर चले।।17(क)।।
तब अंगद उठि नाइ सिरु सजल नयन कर जोरि।
अति बिनीत बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रस बोरि।।17ख।।
अति बिनीत बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रस बोरि।।17ख।।
तब अंगद उठकर सिर नवाकर, नेत्रोंमें जल भरकर
और हाथ जोड़कर अत्यन्त विनम्र
तथा मानो प्रेमके रसमें डुबोये हुए (मधुर) वचन बोले।।17(ख)।।
चौ.-सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिंधो। दीन दयाकर आरत बंधो।
मरती बेर नाथ मोहि बाली। गयउ तुम्हारेहि कोछें घाली।।1।।
मरती बेर नाथ मोहि बाली। गयउ तुम्हारेहि कोछें घाली।।1।।
हे सर्वज्ञ ! हे कृपा और सुख के समुद्र ! हे
दीनों पर दया करनेवाले ! हे
आर्तोंके बन्धु ! सुनिये। हे नाथ ! मरते समय मेरा पिता बालि मुझे आपकी ही
गोदमें डाल गया था !।।1।।
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