श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ। पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ।।
सम मानि निरादर आदरही। सब संत सुखी बिचरंति मही।।8।।
सम मानि निरादर आदरही। सब संत सुखी बिचरंति मही।।8।।
वे प्रेम पूर्वक नियम लेकर निरन्तर शुद्ध
हृदय से आपके चरणकमलोंकी सेवा
करते रहते हैं। और निरादर और आदरको समान मानकर वे सब संत सुखी होकर
पृथ्वीपर विचरते हैं।।8।।
मुनि मानस पंकज भृंग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे।।
तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी।।9।।
तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी।।9।।
हे मुनियों के मनरूपी कमलके भ्रमर ! हे
रघुबीर महान् रणधीर एवं अजेय
श्रीरघुवीर ! मैं आपको भजता हूँ (आपकी शरण ग्रहण करता हूँ)। हे हरि ! आपका
नाम जपता हूँ और आपको नमस्कार करता हूँ। आप जन्म-मरणरूपी रोग की महान औषध
और अभिमान के शत्रु हैं।।9।।
गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं।।
रघुनंद निकंदय द्वंद्वधनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं।।10।।
रघुनंद निकंदय द्वंद्वधनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं।।10।।
आप गुण, शील और कृपा के परम स्थान है। आप
लक्ष्मीपति हैं, मैं आपको
निरन्तर प्रणाम करता हूँ। हे रघुनन्दन ! [आप जन्म-मरण सुख-दुःख
राग-द्वेषादि] द्वन्द्व समूहोंका नाश कीजिये। हे पृथ्वीकी पालना करनेवाले
राजन् ! इस दीन जनकी ओर भी दृष्टि डालिये।।10।।
दो.-बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग।।14क।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग।।14क।
मैं आपसे बार-बार यही वरदान मांगता हूँ कि
मुझे आपके चरणकमलोंकी अचलभक्ति
और आपके भक्तोंका सत्संग सदा प्रात हो। हे लक्ष्मीपते ! हर्षित होकर मुझे
यही दीजिये।
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