श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
मनजात किरात निपातकिए। मृग लोक कुभोग सरेन हिए।।
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे।।4।।
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे।।4।।
कामदेवरूपी भीलने मनुष्यरूपी हिरनों के हृदय
में कुभोग रूपी बाँण मारकर उन्हें गिरा दिया है। हे नाथ ! हे [पाप-तापका
हरण करनेवाले] हरे ! उसे
मारकर विषयरूपी वनमें भूले पड़े हुए इन पामर अनाथ जीवोंकी रक्षा
कीजिये।।4।।
बहुरोग बियोगन्हि लोग हए। भवदंध्रि निरादर के फल ए।।
भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते।।5।।
भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते।।5।।
लोग बहुत-से रोगों और वियोगों (दुःखों) से
मारे हुए हैं। ये सब आपके चरणों
के निरादर के फल हैं। जो मनुष्य आपके चरणकमलोंमें प्रेम नहीं करते, वे
अथाह भव सागर में पड़े रहते हैं।।5।।
अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह कें पद पंकज प्रीति नहीं।।
अवलंब भवंत कथा जिन्ह कें। प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें।।6।।
अवलंब भवंत कथा जिन्ह कें। प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें।।6।।
जिन्हें आपके चरणकमलोंमें प्रीति नहीं है, वे
नित्य ही अत्यन्त दीन, मलीन
(उदास) और दुखी रहते हैं। और जिन्हें आपकी लीला कथा का आधार है, उनको संत
और भगवान् सदा प्रिय लगने लगते हैं।।6।।
नहिं राग न लोभ न मान मदा। तिन्ह कें सम बैभव वा बिषदा।।
एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा।।7।।
एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा।।7।।
उनमें न राग (आसक्ति) है, न लोभ; न मन है, न
मद। उनको सम्पत्ति (सुख) और
विपत्ति (दुःख) समान है। इसीसे मुनि लोग योग (साधन) का भरोसा सदा के लिये
त्याग देते है और प्रसन्नताके साथ आपके सेवक बन जाते हैं।।7।।
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