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श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी।
ते पाइ सुर दुर्लभ पददापि परम हम देखत हरी।।
बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे।
जपि नाम तव बिनु श्रम तरहीं भव नाथ सो समरामहे।।3।।

जिन्होंने मिथ्या ज्ञान के अभिमान में विशेषरूपसे मतवाले होकर जन्म-मृत्यु [के भय] को हरनेवाली आपकी भक्ति का आदर नहीं किया, हे हरि ! उन्हें देव-दुर्लभ (देवताओंको भी बड़ी कठिनता से प्राप्त होनेवाले, ब्रह्मा आदिके) पदको पाकर भी हम उस पद से नीचे गिरते देखते हैं। [परन्तु] जो सब आशाओं को छोड़कर आपपर विश्वास करके आपके दास हो रहते हैं, वे केवल आपका नाम ही जपकर बिना ही परिश्रम भवसागरसे तर जाते हैं। हे नाथ ! ऐसे हम आपका स्मरण करते हैं।।3।।

जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी।
नख निर्गता मुनि बंदिता त्रिलोक पावनि सुरसरी।।
ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे।
पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे।।4।।

जो चरण शिवजी और ब्रह्मा जी के द्वारा पूज्य हैं, तथा जिन चरणोंकी कल्याणमयी रज का स्पर्श पाकर [शिव बनी हुई] गौतमऋषि की पत्नी अहल्या तर गयी; जिन चरणों के नखसे मुनियों द्वारा वन्दित, त्रैलोक्यको पवित्र करनेवाली देवनदी गंगाजी निकलीं और ध्वजा, वज्र अकुंश और कमल, इन चिह्नोंसे युक्त जिन चरणोंमें वनमें फिरते समय काँटे चुभ जानेसे घठ्टे पड़ गये हैं; हे मुकुन्द ! हे राम ! हे रमापति ! हम आपके उन्हीं दोनों चरणकमलोंको नित्य भजते रहते हैं।।4।।

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