श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
श्री सहित दिनकर बंस भूषन काम बहु छबि सोहई।
नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई।।
मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे।
अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे।।2।।
नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई।।
मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे।
अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे।।2।।
श्रीसीताजी सहित सूर्यवंश के विभूषण
श्रीरामजीके शरीर में अनेकों कामदेवों
छवि शोभा दे रही है। नवीन जलयुक्त मेघोंके समान सुन्दर श्याम शरीरपर
पीताम्बर देवताओंके के मन को मोहित कर रहा है मुकुट बाजूबंद आदि बिचित्र
आभूषण अंग अंग में सजे हुए है। कमल के समान नेत्र हैं, चौड़ी छाती है और
लंबी भुजाएँ हैं; जो उनके दर्शन करते हैं, वे मनुष्य धन्य हैं।।2।।
दो.-वह सोभा समाज सुख कहत न बनइ खगेस।
बरनहिं सारद सेष श्रुति सो रस जान महेस।।12क।।
बरनहिं सारद सेष श्रुति सो रस जान महेस।।12क।।
हे पक्षिराज गरुड़जी ! वह शोभा, वह समाज और
वह सुख मुझसे कहते नहीं बनता।
सरस्वतीजी, शेषजी और वेद निरन्तर उसका वर्णन करते हैं, और उसका रस (आनन्द)
महादेवजी ही जानते हैं।।2(क)।।
भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम।
बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम।।12ख।।
बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम।।12ख।।
सब देवता अलग-अलग स्तुति करके
अपने–अपने लोक को चले गये। तब
भाटों का रूप धारण करके चारों वेद वहाँ आये जहाँ श्रीरामजी थे।।12(ख)।।
प्रभु सर्बग्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान।
लखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान।।12ग।।
लखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान।।12ग।।
कृपानिधान सर्वज्ञ प्रभुने [उन्हें पहचानकर]
उनका बहुत ही आदर किया। इसका
भेद किसी ने कुछ भी नहीं जाना। वेद गुणवान करने लगे।।12(ग)।।
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