श्रीरामचरितमानस (उत्तरकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
दो.-पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेंटे हृदय लगाइ।।
लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ।।5।।
लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ।।5।।
फिर प्रभु हर्षित होकर शत्रुघ्नजीको हृदय से
लगाकर उनसे मिले। तब
लक्ष्मणजी और भरतजी दोनों भाई परम प्रेम से मिले।।5।।
चौ.-भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे। दुसह बिरह संभव दुख मेटे।।
सीता चरन भरत सिरु नावा। अनुज समेत परम सुख पावा।।1।।
सीता चरन भरत सिरु नावा। अनुज समेत परम सुख पावा।।1।।
फिर लक्ष्मणजी शत्रुघ्न जी से गले लगकर मिले
औऱ इस प्रकार विरहसे उत्पन्न
दुःखका नाश किया। फिर भाई शत्रुघ्नजीसहित भरतजीने सीताजीके चरणोंमें सिर
नवाया और परम सुख प्राप्त किया।।1।।
प्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी। जनित बियोगबिपति सब नासी।।
प्रेमातुर सब लोग निहारी। कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी।।2।।
प्रेमातुर सब लोग निहारी। कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी।।2।।
प्रभुको देखकर अयोध्यावासी सब हर्षित हुए।
वियोगसे उत्पन्न सब दुःख नष्ट
हो गये। सब लोगों को प्रेमविह्लय [और मिलनेके लिये अत्यन्त आतुर] देखकर
खरके शत्रु कृपालु श्रीरामजीने एक चमत्कार
किया।।2।।
अमित रूप प्रगटे तेहि काला। जथाजोग मिले सबहि कृपाला।।
कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी। किए सकल नर नारि बिसोकी।।3।।
कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी। किए सकल नर नारि बिसोकी।।3।।
उसी समय कृपालु श्रीरामजी असंख्य रूपों में
प्रकट हो गये और सबसे [एक ही साथ] यथायोग्य मिले। श्रीरघुवीरने कृपाकी
दृष्टिसे देखकर सब नर-नारियों को
शोकसे रहित कर दिया।।3।।
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