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श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड)

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

रावण हनुमान-युद्ध, रावण का माया रचना, भगवान राम द्वारा माया नाश



देखा श्रमित बिभीषनु भारी।
धायउ हनूमान गिरि धारी॥
रथ तुरंग सारथी निपाता।
हृदय माझ तेहि मारेसि लाता।

विभीषणको बहुत ही थका हुआ देखकर हनुमान जी पर्वत धारण किये हुए दौड़े। उन्होंने उस पर्वतसे रावणके रथ, घोड़े और सारथिका संहार कर डाला और उसके सीनेपर लात मारी॥१॥

ठाढ़ रहा अति कंपित गाता।
गयउ बिभीषनु जहँ जनत्राता॥
पुनि रावन कपि हतेउ पचारी।
चलेउ गगन कपि पूँछ पसारी॥

रावण खड़ा रहा, पर उसका शरीर अत्यन्त काँपने लगा। विभीषण वहाँ गये जहाँ सेवकोंके रक्षक श्रीरामजी थे। फिर रावणने ललकारकर हनुमानजीको मारा। वे पूँछ फैलाकर आकाशमें चले गये।। २॥

गहिसि पूँछ कपि सहित उड़ाना।
पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना।
लरत अकास जुगल सम जोधा।
एकहि एकु हनत करि क्रोधा।

रावणने पूँछ पकड़ ली, हनुमानजी उसको साथ लिये हुए ऊपर उड़े। फिर लौटकर महाबलवान् हनुमानजी उससे भिड़ गये। दोनों समान योद्धा आकाशमें लड़ते हुए एक दूसरेको क्रोध करके मारने लगे॥३॥

सोहहिं नभ छल बल बहु करहीं।
कज्जलगिरि सुमेरु जनु लरहीं।
बुधि बल निसिचर परइ न पारयो।
तब मारुतसुत प्रभु संभारयो।

दोनों बहुत-से छल-बल करते हुए आकाशमें ऐसे शोभित हो रहे हैं मानो कज्जलगिरि और सुमेरु पर्वत लड़ रहे हों। जब बुद्धि और बलसे राक्षस गिराये न गिरा तब मारुति श्रीहनुमानजीने प्रभुको स्मरण किया॥४॥

छं०- संभारि श्रीरघुबीर धीर पचारि कपि रावनु हन्यो।
महि परत पुनि उठि लरत देवन्ह जुगल कहुँ जय जय भन्यो।
हनुमंत संकट देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले।
रन मत्त रावन सकल सुभट प्रचंड भुज बल दलमले।


श्रीरघुवीरका स्मरण करके धीर हनुमानजीने ललकारकर रावणको मारा। वे दोनों पृथ्वीपर गिरते और फिर उठकर लड़ते हैं; देवताओंने दोनोंकी 'जय-जय' पुकारी। हनुमानजीपर सङ्कट देखकर वानर-भालू क्रोधातुर होकर दौड़े। किन्तु रण-मद-माते रावणने सब योद्धाओंको अपने प्रचण्ड भुजाओंके बलसे कुचल और मसल डाला।

दो०- तब रघुबीर पचारे धाए कीस प्रचंड।
कपि बल प्रबल देखि तेहिं कीन्ह प्रगट पाषंड॥९५॥

तब श्रीरघुवीरके ललकारनेपर प्रचण्ड वीर वानर दौड़े। वानरोंके प्रबल दलको देखकर रावणने माया प्रकट की॥९५॥

अंतरधान भयउ छन एका।
पुनि प्रगटे खल रूप अनेका॥
रघुपति कटक भालु कपि जेते।
जहँ तहँ प्रगट दसानन तेते॥

क्षण भरके लिये वह अदृश्य हो गया। फिर उस दुष्टने अनेकों रूप प्रकट किये। श्रीरघुनाथजीकी सेनामें जितने रीछ-वानर थे, उतने ही रावण जहाँ-तहाँ (चारों ओर) प्रकट हो गये॥१॥

देखे कपिन्ह अमित दससीसा।
जहँ तहँ भजे भालु अरु कीसा॥
भागे बानर धरहिं न धीरा।
त्राहि त्राहि लछिमन रघुबीरा॥

वानरोंने अपरिमित रावण देखे। भालू और वानर सब जहाँ-तहाँ (इधर-उधर) भाग चले। वानर धीरज नहीं धरते। हे लक्ष्मणजी ! हे रघुवीर ! बचाइये, बचाइये, यों पुकारते हुए वे भागे जा रहे हैं॥ २॥

दहँ दिसि धावहिं कोटिन्ह रावन।
गर्जहिं घोर कठोर भयावन॥
डरे सकल सुर चले पराई।
जय के आस तजहु अब भाई॥

दसों दिशाओंमें करोड़ों रावण दौड़ते हैं और घोर, कठोर भयानक गर्जन कर रहे हैं। सब देवता डर गये और ऐसा कहते हुए भाग चले कि हे भाई! अब जयकी आशा छोड़ दो!॥ ३॥

सब सुर जिते एक दसकंधर।
अब बहु भए तकहु गिरि कंदर।।
रहे बिरंचि संभु मुनि ग्यानी।
जिन्ह जिन्ह प्रभुमहिमा कछु जानी॥

एक ही रावणने सब देवताओंको जीत लिया था, अब तो बहुत-से रावण हो गये हैं। इससे अब पहाड़की गुफाओंका आश्रय लो (अर्थात् उनमें छिप रहो)। वहाँ ब्रह्मा, शम्भु और ज्ञानी मुनि ही डटे रहे, जिन्होंने प्रभुकी कुछ महिमा जानी थी॥४॥

छं०- जाना प्रताप ते रहे निर्भय कपिन्ह रिपु माने फुरे।
चले बिचलि मर्कट भालु सकल कृपाल पाहि भयातुरे॥
हनुमंत अंगद नील नल अतिबल लरत रन बाँकुरे।
मर्दहिं दसानन कोटि कोटिन्ह कपट भू भट अंकुरे॥

जो प्रभुका प्रताप जानते थे, वे निर्भय डटे रहे। वानरोंने शत्रुओं (बहुत-से रावणों) को सच्चा ही मान लिया। [इससे] सब वानर-भालू विचलित होकर 'हे कृपालु ! रक्षा कीजिये' [यों पुकारते हुए] भयसे व्याकुल होकर भाग चले। अत्यन्त बलवान् रणबाँकुरे हनुमानजी, अंगद, नील और नल लड़ते हैं और कपटरूपी भूमिसे अंकुरकी भाँति उपजे हुए कोटि-कोटि योद्धा रावणोंको मसलते हैं।

दो०- सुर बानर देखे बिकल हँस्यो कोसलाधीस।
सजि सारंग एक सर हते सकल दससीस॥९६॥

देवताओं और वानारोंको विकल देखकर कोसलपति श्रीरामजी हँसे और शार्ङ्गधनुषपर एक बाण चढ़ाकर [मायाके बने हुए] सब रावणोंको मार डाला॥९६।।

प्रभु छन महुँ माया सब काटी।
जिमि रबि उएँ जाहिं तम फाटी॥
रावनु एकु देखि सुर हरषे।
फिरे सुमन बहु प्रभु पर बरषे॥

प्रभुने क्षणभरमें सब माया काट डाली। जैसे सूर्यके उदय होते ही अन्धकारकी राशि फट जाती है (नष्ट हो जाती है)। अब एक ही रावणको देखकर देवता हर्षित हुए और उन्होंने लौटकर प्रभुपर बहुत-से पुष्प बरसाये॥१॥

भुज उठाइ रघुपति कपि फेरे।
फिरे एक एकन्ह तब टेरे॥
प्रभु बलु पाइ भालु कपि धाए।
तरल तमकि संजुग महि आए।

श्रीरघुनाथजीने भुजा उठाकर सब वानरोंको लौटाया। तब वे एक दूसरेको पुकार पुकारकर लौट आये। प्रभुका बल पाकर रीक्ष-वानर दौड़ पड़े। जल्दीसे कूदकर वे रणभूमिमें आ गये॥२॥

अस्तुति करत देवतन्हि देखें।
भयउँ एक मैं इन्ह के लेखें।
सठहु सदा तुम्ह मोर मरायल।
अस कहि कोपि गगन पर धायल।

देवताओंको श्रीरामजीकी स्तुति करते देखकर रावणने सोचा, मैं इनकी समझमें एक हो गया। [परन्तु इन्हें यह पता नहीं कि इनके लिये मैं एक ही बहुत हूँ ] और कहा-अरे मूर्यो! तुम तो सदाके ही मेरे मरैल (मेरी मार खानेवाले) हो। ऐसा कहकर वह क्रोध करके आकाशपर [देवताओंकी ओर] दौड़ा॥३॥

हाहाकार करत सुर भागे।
खलहु जाहु कहँ मोरें आगे॥
देखि बिकल सुर अंगद धायो।
कूदि चरन गहि भूमि गिरायो।

देवता हाहाकार करते हुए भागे। [रावणने कहा-] दुष्टो! मेरे आगेसे कहाँ जा सकोगे? देवताओंको व्याकुल देखकर अंगद दौड़े और उछलकर रावणका पैर पकड़कर [उन्होंने] उसको पृथ्वीपर गिरा दिया॥४॥

छं०- गहि भूमि पारयो लात मारयो बालिसुत प्रभु पहिं गयो।
संभारि उठि दसकंठ घोर कठोर रव गर्जत भयो।
करि दाप चाप चढ़ाइ दस संधानि सर बहु बरषई।
किए सकल भट घायल भयाकुल देखि निज बल हरषई।


उसे पकड़कर पृथ्वीपर गिराकर लात मारकर बालिपुत्र अंगद प्रभुके पास चले गये। रावण सँभलकर उठा और बड़े भयङ्कर कठोर शब्दसे गरजने लगा। वह दर्प करके दसों धनुष चढ़ाकर उनपर बहुत-से बाण सन्धान करके बरसाने लगा। उसने सब योद्धाओंको घायल और भयसे व्याकुल कर दिया और अपना बल देखकर वह हर्षित होने लगा।

दो०- तब रघुपति रावन के सीस भुजा सर चाप।
काटे बहुत बढ़े पुनि जिमि तीरथ कर पाप॥९७॥

तब श्रीरघुनाथजी ने रावण के सिर, भुजाएँ, बाण और धनुष काट डाले। पर वे फिर बहुत बढ़ गये, जैसे तीर्थमें किये हुए पाप बढ़ जाते हैं (कई गुना अधिक भयानक फल उत्पन्न करते हैं)!॥९७॥

सिर भुज बाढि देखि रिपु केरी।
भालु कपिन्ह रिस भई घनेरी॥
मरत न मूढ़ कटेहुँ भुज सीसा।
धाए कोपि भालु भट कीसा॥

शत्रुके सिर और भुजाओंकी बढ़ती देखकर रीछ-वानरोंको बहुत ही क्रोध हुआ। यह मूर्ख भुजाओंके और सिरोंके कटनेपर भी नहीं मरता, [ऐसा कहते हुए] भालू और वानर योद्धा क्रोध करके दौड़े॥१॥

बालितनय मारुति नल नीला।
बानरराज दुबिद बलसीला॥
बिटप महीधर करहिं प्रहारा।
सोइ गिरि तरु गहि कपिन्ह सो मारा।

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