श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड)
A PHP Error was encounteredSeverity: Notice Message: Undefined index: author_hindi Filename: views/read_books.php Line Number: 21 |
निःशुल्क ई-पुस्तकें >> श्रीरामचरितमानस (लंकाकाण्ड) |
वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
रावण का विभीषण पर शक्ति छोड़ना, भगवान श्रीराम का शक्ति को अपने ऊपर लेना, विभीषण-रावण-युद्ध
दो०- पुनि दसकंठ क्रुद्ध होइ छाँड़ी सक्ति प्रचंड।
चली बिभीषन सन्मुख मनहुँ काल कर दंड॥९३॥
चली बिभीषन सन्मुख मनहुँ काल कर दंड॥९३॥
फिर रावणने क्रोधित होकर प्रचण्ड शक्ति छोड़ी। वह विभीषणके सामने ऐसी चली जैसे काल (यमराज) का दण्ड हो॥९३॥
आवत देखि सक्ति अति घोरा।
प्रनतारति भंजन पन मोरा॥
तुरत बिभीषन पाछे मेला।
सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला॥
प्रनतारति भंजन पन मोरा॥
तुरत बिभीषन पाछे मेला।
सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला॥
अत्यन्त भयानक शक्तिको आती देख और यह विचारकर कि मेरा प्रण शरणागतके दुःखका नाश करना है, श्रीरामजीने तुरंत ही विभीषणको पीछे कर लिया और सामने होकर वह शक्ति स्वयं सह ली॥१॥
लागि सक्ति मुरुछा कछु भई।
प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई॥
देखि बिभीषन प्रभु श्रम पायो।
गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धायो॥
प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई॥
देखि बिभीषन प्रभु श्रम पायो।
गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धायो॥
शक्ति लगनेसे उन्हें कुछ मूर्छा हो गयी। प्रभुने तो यह लीला की, पर देवताओंको व्याकुलता हुई। प्रभुको श्रम (शारीरिक कष्ट) प्राप्त हुआ देखकर विभीषण क्रोधित हो हाथमें गदा लेकर दौड़े॥२॥
रे कुभाग्य सठ मंद कुबुद्धे।
तें सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे।
सादर सिव कहुँ सीस चढ़ाए।
एक एक के कोटिन्ह पाए।
तें सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे।
सादर सिव कहुँ सीस चढ़ाए।
एक एक के कोटिन्ह पाए।
[और बोले-] अरे अभागे! मूर्ख, नीच. दुर्बुद्धि ! तूने देवता, मनुष्य, मुनि, नाग सभी से विरोध किया। तूने आदरसहित शिवजीको सिर चढ़ाये। इसी से एक-एक के बदले में करोड़ों पाये॥३॥
तेहि कारन खल अब लगि बाँच्यो।
अब तव कालु सीस पर नाच्यो।
राम बिमुख सठ चहसि संपदा।
अस कहि हनेसि माझ उर गदा॥
अब तव कालु सीस पर नाच्यो।
राम बिमुख सठ चहसि संपदा।
अस कहि हनेसि माझ उर गदा॥
उसी कारणसे अरे दुष्ट ! तू अबतक बचा है। [किन्तु] अब काल तेरे सिरपर नाच रहा है। अरे मूर्ख! तू रामविमुख होकर सम्पत्ति (सुख) चाहता है? ऐसा कहकर विभीषणने रावणकी छातीके बीचो-बीच गदा मारी॥४॥
छं०-उर माझ गदा प्रहार घोर कठोर लागत महि परयो।
दस बदन सोनित स्त्रवत पुनि संभारि धायो रिस भरयो॥
द्वौ भिरे अतिबल मल्लजुद्ध बिरुद्ध एकु एकहि हनै।
रघुबीर बल दर्पित बिभीषनु घालि नहिं ता कहुँ गनै॥
बीच छातीमें कठोर गदाकी घोर और कठिन चोट लगते ही वह पृथ्वीपर गिर पड़ा। उसके दसों मुखोंसे रुधिर बहने लगा; वह अपनेको फिर सँभालकर क्रोधमें भरा हुआ दौड़ा। दोनों अत्यन्त बलवान् योद्धा भिड़ गये और मल्लयुद्धमें एक दूसरेके विरुद्ध होकर मारने लगे। श्रीरघुवीरके बलसे गर्वित विभीषण उसको (रावण-जैसे जगद्विजयी योद्धाको) पासंगके बराबर भी नहीं समझते।।
दो०- उमा बिभीषनु रावनहि सन्मुख चितव कि काउ।
सो अब भिरत काल ज्यों श्रीरघुबीर प्रभाउ॥९४॥
सो अब भिरत काल ज्यों श्रीरघुबीर प्रभाउ॥९४॥
[शिवजी कहते हैं-] हे उमा! विभीषण क्या कभी रावणके सामने आँख उठाकर भी देख सकता था? परन्तु अब वही कालके समान उससे भिड़ रहा है। यह श्रीरघुवीरका ही प्रभाव है।९४॥
To give your reviews on this book, Please Login