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श्रीरामचरितमानस (किष्किन्धाकाण्ड)

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भगवान श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट तथा बालि का भगवान के परमधाम को गमन


बालि के साथ युद्ध के लिए सुग्रीव की ललकार

तदनन्तर सुग्रीवको साथ लेकर और हाथोंमें धनुष-बाण धारण करके श्रीरघुनाथजी चले। तब श्रीरघुनाथजीने सुग्रीवको बालिके पास भेजा। वह श्रीरामजीका बल पाकर बालिके निकट जाकर गरजा॥१३॥

सुनत बालि क्रोधातुर धावा।
गहि कर चरन नारि समुझावा॥
सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा।
ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा॥

बालि सुनते ही क्रोधमें भरकर वेगसे दौड़ा। उसकी स्त्री ताराने चरण पकड़कर उसे समझाया कि हे नाथ! सुनिये, सुग्रीव जिनसे मिले हैं वे दोनों भाई तेज और बलकी सीमा हैं॥१४॥

कोसलेस सुत लछिमन रामा।
कालहु जीति सकहिं संग्रामा॥


वे कोसलाधीश दशरथजीके पुत्र राम और लक्ष्मण संग्राममें कालको भी जीत सकते हैं॥ १५॥

दो०- कह बाली सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ।
जौं कदाचि मोहि मारहिं मै पुनि होउँ सनाथ॥७॥

बालिने कहा-हे भीरु! (डरपोक) प्रिये! सुनो, श्रीरघुनाथजी समदर्शी हैं। जो कदाचित् वे मुझे मारेंगे ही तो मैं सनाथ हो जाऊँगा (परमपद पा जाऊँगा)॥७॥

अस कहि चला महा अभिमानी।
तृन समान सुग्रीवहि जानी॥
भिरे उभो बाली अति तर्जा।
मुठिका मारि महाधुनि गर्जा।

ऐसा कहकर वह महान् अभिमानी बालि सुग्रीवको तिनके के समान जानकर चला। दोनों भिड़ गये। बालि ने सुग्रीवको बहुत धमकाया और घूँसा मारकर बड़े जोरसे गरजा॥१॥

तब सुग्रीव बिकल होइ भागा।
मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा॥
मैं जो कहा रघुबीर कृपाला।
बंधु न होइ मोर यह काला।

तब सुग्रीव व्याकुल होकर भागा। घूँसे की चोट उसे वज्र के समान लगी। [सुग्रीवने आकर कहा-] हे कृपालु रघुवीर ! मैंने आपसे पहले ही कहा था कि बालि मेरा भाई नहीं है, काल है।। २।।

एकरूप तुम्ह भ्राता दोऊ।
तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ॥
कर परसा सुग्रीव सरीरा।
तनु भा कुलिस गई सब पीरा॥

[श्रीरामजीने कहा-] तुम दोनों भाइयों का एक-सा ही रूप है। इसी भ्रमसे मैंने उसको नहीं मारा। फिर श्रीरामजीने सुग्रीवके शरीरको हाथसे स्पर्श किया, जिससे उसका शरीर वज्रके समान हो गया और सारी पीड़ा जाती रही॥३॥

मेली कंठ सुमन कै माला।
पठवा पुनि बल देइ बिसाला॥
पुनि नाना बिधि भई लराई।
बिटप ओट देखहिं रघुराई।।

तब श्रीरामजीने सुग्रीवके गलेमें फूलोंकी माला डाल दी और फिर उसे बड़ा भारी बल देकर भेजा। दोनोंमें पुनः अनेक प्रकारसे युद्ध हुआ। श्रीरघुनाथजी वृक्षकी आड़से देख रहे थे॥४॥

दो०- बहु छल बल सुग्रीव कर हियँ हारा भय मानि।
मारा बालि राम तब हृदय माझ सर तानि॥८॥

सुग्रीवने बहुत-से छल-बल किये, किन्तु [अन्तमें] भय मानकर हृदयसे हार गया। तब श्रीरामजीने तानकर बालिके हृदयमें बाण मारा॥८॥

परा बिकल महि सर के लागें।
पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगें।
स्याम गात सिर जटा बनाएँ।
अरुन नयन सर चाप चढ़ाएँ।

बाणके लगते ही बालि व्याकुल होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। किन्तु प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको आगे देखकर वह फिर उठ बैठा। भगवान् का श्याम शरीर है, सिरपर जटा बनाये हैं, लाल नेत्र हैं, बाण लिये हैं और धनुष चढ़ाये हैं॥१॥

पुनि पुनि चितइ चरन चित दीन्हा।
सुफल जन्म माना प्रभु चीन्हा॥
हृदयँ प्रीति मुख बचन कठोरा।
बोला चितइ राम की ओरा॥

बालिने बार-बार भगवान् की ओर देखकर चित्तको उनके चरणोंमें लगा दिया। प्रभु को पहचानकर उसने अपना जन्म सफल माना। उसके हृदयमें प्रीति थी, पर मुख में कठोर वचन थे। वह श्रीरामजी की ओर देखकर बोला-॥२॥

धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं।
मारेहु मोहि ब्याध की नाईं।
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा।
अवगुन कवन नाथ मोहि मारा॥

हे गोसाईं! आपने धर्मकी रक्षाके लिये अवतार लिया है और मुझे व्याध की तरह (छिपकर) मारा? मैं वैरी और सुग्रीव प्यारा? हे नाथ! किस दोषसे आपने मुझे मारा?॥३॥

अनुज बधू भगिनी सुत नारी।
सुनु सठ कन्या सम ए चारी॥
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई।
ताहि बधे कछु पाप न होई॥

[श्रीरामजीने कहा-] हे मूर्ख! सुन, छोटे भाई की स्त्री, बहिन, पुत्रकी स्त्री और कन्या-ये चारों समान हैं। इनको जो कोई बुरी दृष्टि से देखता है, उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं होता॥४॥

मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना।
नारि सिखावन करसि न काना॥
मम भुज बल आश्रित तेहि जानी।
मारा चहसि अधम अभिमानी॥

हे मूढ़! तुझे अत्यन्त अभिमान है। तूने अपनी स्त्री की सीख पर भी कान (ध्यान) नहीं दिया। सुग्रीव को मेरी भुजाओं के बल का आश्रित जानकर भी अरे अधम अभिमानी! तूने उसको मारना चाहा!॥५॥

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