श्रीरामचरितमानस (किष्किन्धाकाण्ड)
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भगवान श्रीराम की सुग्रीव और हनुमान से भेंट तथा बालि का भगवान के परमधाम को गमन
सुग्रीव की व्यथा कथा और भगवान् की सहानुभूति
जिन्ह के असि मति सहज न आई।
ते सठ कत हठि करत मिताई।
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा।
गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥
ते सठ कत हठि करत मिताई।
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा।
गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥
जिन्हें स्वभावसे ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं ? मित्रका धर्म है कि वह मित्रको बुरे मार्गसे रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे। उसके गुण प्रकट करे और अवगुणोंको छिपावे॥२॥
देत लेत मन संक न धरई।
बल अनुमान सदा हित करई॥
बिपति काल कर सतगुन नेहा।
श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥
बल अनुमान सदा हित करई॥
बिपति काल कर सतगुन नेहा।
श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥
देने-लेने में मनमें शंका न रखे। अपने बलके अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्तिके समयमें तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्रके गुण (लक्षण) ये हैं॥३॥
आगे कह मृदु बचन बनाई।
पाछे अनहित मन कुटिलाई॥
जाकर चित अहि गति सम भाई।
अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई।
पाछे अनहित मन कुटिलाई॥
जाकर चित अहि गति सम भाई।
अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई।
जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मनमें कुटिलता रखता है-हे भाई! [इस तरह] जिसका मन साँपकी चालके समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्रको तो त्यागने में ही भलाई है॥४॥
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी।
कपटी मित्र सूल सम चारी।
सखा सोच त्यागहु बल मोरें।
सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥
कपटी मित्र सूल सम चारी।
सखा सोच त्यागहु बल मोरें।
सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥
मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र-ये चारों शूलके समान [पीड़ा देनेवाले] हैं। हे सखा! मेरे बलपर अब तुम चिन्ता छोड़ दो। मैं सब प्रकारसे तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)॥५॥।
कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा।
बालि महाबल अति रनधीरा॥
दुंदुभि अस्थि ताल देखराए।
बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए॥
बालि महाबल अति रनधीरा॥
दुंदुभि अस्थि ताल देखराए।
बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए॥
सुग्रीवने कहा-हे रघुवीर! सुनिये, बालि महान् बलवान् और अत्यन्त रणधीर है। फिर सुग्रीवने श्रीरामजीको दुन्दुभि राक्षसकी हड्डियाँ और तालके वृक्ष दिखलाये। श्रीरघुनाथजीने उन्हें बिना ही परिश्रमके (आसानीसे) ढहा दिया॥६॥
देखि अमित बल बाढ़ी प्रीती।
बालि बधब इन्ह भइ परतीती॥
बार बार नावइ पद सीसा।
प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा॥
बालि बधब इन्ह भइ परतीती॥
बार बार नावइ पद सीसा।
प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा॥
श्रीरामजीका अपरिमित बल देखकर सुग्रीवकी प्रीति बढ़ गयी और उन्हें विश्वास हो गया कि ये बालिका वध अवश्य करेंगे। वे बार-बार चरणोंमें सिर नवाने लगे। प्रभुको पहचानकर सुग्रीव मनमें हर्षित हो रहे थे।॥ ७॥
उपजा ग्यान बचन तब बोला।
नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला।
सुख संपति परिवार बड़ाई।
सब परिहरि करिहउँ सेवकाई॥
नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला।
सुख संपति परिवार बड़ाई।
सब परिहरि करिहउँ सेवकाई॥
जब ज्ञान उत्पन्न हुआ तब वे ये वचन बोले कि हे नाथ! आपकी कृपासे अब मेरा मन स्थिर हो गया। सुख, सम्पत्ति, परिवार और बड़ाई (बड़प्पन) सबको त्यागकर मैं आपकी सेवा ही करूँगा॥८॥
ए सब रामभगति के बाधक।
कहहिं संत तव पद अवराधक।
सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं।
मायाकृत परमारथ नाहीं॥
कहहिं संत तव पद अवराधक।
सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं।
मायाकृत परमारथ नाहीं॥
क्योंकि आपके चरणोंकी आराधना करनेवाले संत कहते हैं कि ये सब (सख सम्पत्ति आदि) रामभक्तिके विरोधी हैं। जगत्में जितने भी शत्रु-मित्र और सुख-दुःख [आदि द्वन्द्व] हैं, सब-के-सब मायारचित हैं, परमार्थतः (वास्तवमें ) नहीं हैं॥९॥
बालि परम हित जासु प्रसादा।
मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा॥
सपनें जेहि सन होइ लराई।
जागें समुझत मन सकुचाई॥
मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा॥
सपनें जेहि सन होइ लराई।
जागें समुझत मन सकुचाई॥
हे श्रीरामजी! बालि तो मेरा परम हितकारी है, जिसकी कृपासे शोकका नाश करनेवाले आप मुझे मिले; और जिसके साथ अब स्वप्नमें भी लड़ाई हो तो जागनेपर उसे समझकर मनमें संकोच होगा [कि स्वप्नमें भी मैं उससे क्यों लड़ा]॥१०॥
अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँती।
सब तजि भजनु करौं दिन राती॥
सुनि बिराग संजुत कपि बानी।
बोले बिहँसि रामु धनुपानी।
सब तजि भजनु करौं दिन राती॥
सुनि बिराग संजुत कपि बानी।
बोले बिहँसि रामु धनुपानी।
हे प्रभो! अब तो इस प्रकार कृपा कीजिये कि सब छोड़कर दिन-रात मैं आपका भजन ही करूँ। सुग्रीवकी वैराग्ययुक्त वाणी सुनकर (उसके क्षणिक वैराग्यको देखकर) हाथमें धनुष धारण करनेवाले श्रीरामजी मुसकराकर बोले-॥११॥
जो कछु कहेहु सत्य सब सोई।
सखा बचन मम मृषा न होई॥
नट मरकट इव सबहि नचावत।
रामु खगेस बेद अस गावत॥
सखा बचन मम मृषा न होई॥
नट मरकट इव सबहि नचावत।
रामु खगेस बेद अस गावत॥
तुमने जो कुछ कहा है, वह सभी सत्य है; परन्तु हे सखा! मेरा वचन मिथ्या नहीं होता (अर्थात् बालि मारा जायगा और तुम्हें राज्य मिलेगा)। [काकभुशुण्डिजी कहते हैं कि-] हे पक्षियोंके राजा गरुड़! नट (मदारी) के बंदरकी तरह श्रीरामजी सबको नचाते हैं, वेद ऐसा कहते हैं॥१२॥
लै सुग्रीव संग रघुनाथा।
चले चाप सायक गहि हाथा॥
तब रघुपति सुग्रीव पठावा।
गर्जेसि जाइ निकट बल पावा॥
चले चाप सायक गहि हाथा॥
तब रघुपति सुग्रीव पठावा।
गर्जेसि जाइ निकट बल पावा॥
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