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श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

भरत जी का तीर्थ-जल-स्थापन



देव देव अभिषेक हित गुर अनुसासनु पाइ।
आनेउँ सब तीरथ सलिलु तेहि कहँ काह रजाइ॥३०७॥

हे देव! स्वामी (आप) के अभिषेकके लिये गुरुजीकी आज्ञा पाकर मैं सब तीर्थोका जल लेता आया हूँ; उसके लिये क्या आज्ञा होती है? ॥३०७॥

एकु मनोरथु बड़ मन माहीं।
सभयँ सकोच जात कहि नाहीं॥
कहहु तात प्रभु आयसु पाई।
बोले बानि सनेह सुहाई॥


मेरे मनमें एक और बड़ा मनोरथ है, जो भय और संकोचके कारण कहा नहीं जाता। [श्रीरामचन्द्रजीने कहा-] हे भाई! कहो। तब प्रभुकी आज्ञा पाकर भरतजी स्नेहपूर्ण सुन्दर वाणी बोले- ॥१॥

चित्रकूट सुचि थल तीरथ बन।
खग मृग सर सरि निर्झर गिरिगन॥
प्रभु पद अंकित अवनि बिसेषी।
आयसु होइ त आवौं देखी।

आज्ञा हो तो चित्रकूटके पवित्र स्थान, तीर्थ, वन, पक्षी-पशु, तालाब-नदी, झरने और पर्वतोंके समूह तथा विशेषकर प्रभु (आप) के चरणचिह्नोंसे अंकित भूमिको देख आऊँ॥२॥

अवसि अत्रि आयसु सिर धरहू।
तात बिगतभय कानन चरहू॥
मुनि प्रसाद बनु मंगल दाता।
पावन परम सुहावन भ्राता॥

[श्रीरघुनाथजी बोले-] अवश्य ही अत्रि ऋषिकी आज्ञाको सिरपर धारण करो (उनसे पूछकर वे जैसा कहें वैसा करो) और निर्भय होकर वनमें विचरो। हे भाई! अत्रि मुनिके प्रसादसे वन मङ्गलोंका देनेवाला, परम पवित्र और अत्यन्त सुन्दर है- ॥३॥

रिषिनायकु जहँ आयसु देहीं।
राखेहु तीरथ जल थल तेहीं॥
सुनि प्रभु बचन भरत सुखु पावा।
मुनि पद कमल मुदित सिरु नावा॥

और ऋषियोंके प्रमुख अत्रिजी जहाँ आज्ञा दें, वहीं [लाया हुआ] तीर्थोंका जल स्थापित कर देना। प्रभुके वचन सुनकर भरतजीने सुख पाया और आनन्दित होकर मुनि अत्रिजीके चरणकमलोंमें सिर नवाया॥४॥

भरत राम संबादु सुनि सकल सुमंगल मूल।
सुर स्वारथी सराहि कुल बरषत सुरतरु फूल॥३०८॥

समस्त सुन्दर मङ्गलोंका मूल भरतजी और श्रीरामचन्द्रजीका संवाद सुनकर स्वार्थी देवता रघुकुलकी सराहना करके कल्पवृक्षके फूल बरसाने लगे॥३०८॥

धन्य भरत जय राम गोसाईं।
कहत देव हरषत बरिआईं।
मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू।
भरत बचन सुनि भयउ उछाहू॥

'भरतजी धन्य हैं, स्वामी श्रीरामजीकी जय हो!' ऐसा कहते हुए देवता बलपूर्वक (अत्यधिक) हर्षित होने लगे। भरतजीके वचन सुनकर मुनि वसिष्ठजी, मिथिलापति जनकजी और सभामें सब किसीको बड़ा उत्साह (आनन्द) हुआ॥१॥

भरत राम गुन ग्राम सनेहू।
पुलकि प्रसंसत राउ बिदेहू ॥
सेवक स्वामि सुभाउ सुहावन।
नेमु पेमु अति पावन पावन।

भरतजी और श्रीरामचन्द्रजीके गुणसमूहकी तथा प्रेमकी विदेहराज जनकजी पुलकित होकर प्रशंसा कर रहे हैं। सेवक और स्वामी दोनोंका सुन्दर स्वभाव है। इनके नियम और प्रेम पवित्रको भी अत्यन्त पवित्र करनेवाले हैं ॥ २॥

मति अनुसार सराहन लागे।
सचिव सभासद सब अनुरागे॥
सुनि सुनि राम भरत संबादू।
दुहु समाज हियँ हरषु बिषादू॥


मन्त्री और सभासद सभी प्रेममुग्ध होकर अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार सराहना करने लगे। श्रीरामचन्द्रजी और भरतजीका संवाद सुन-सुनकर दोनों समाजोंके हृदयोंमें हर्ष और विषाद (भरतजीके सेवाधर्मको देखकर हर्ष और रामवियोगकी सम्भावनासे विषाद) दोनों हुए ॥३॥

राम मातु दुखु सुखु सम जानी।
कहि गुन राम प्रबोधी रानी॥
एक कहहिं रघुबीर बड़ाई।
एक सराहत भरत भलाई॥


श्रीरामचन्द्रजीकी माता कौसल्याजीने दुःख और सुखको समान जानकर श्रीरामजीके गुण कहकर दूसरी रानियोंको धैर्य बँधाया। कोई श्रीरामजीकी बड़ाई (बड़प्पन) की चर्चा कर रहे हैं, तो कोई भरतजीके अच्छेपनकी सराहना करते हैं ॥ ४॥

अत्रि कहेउ तब भरत सन सैल समीप सुकूप।
राखिअ तीरथ तोय तहँ पावन अमिअ अनूप॥३०९॥

तब अत्रिजीने भरतजीसे कहा-इस पर्वतके समीप ही एक सुन्दर कुआँ है। इस पवित्र, अनुपम और अमृत-जैसे तीर्थजलको उसीमें स्थापित कर दीजिये॥ ३०९॥

भरत अत्रि अनुसासन पाई।
जल भाजन सब दिए चलाई।
सानुज आपु अत्रि मुनि साधू।
सहित गए जहँ कूप अगाधू॥

भरतजीने अत्रिमुनिकी आज्ञा पाकर जलके सब पात्र रवाना कर दिये और छोटे भाई शत्रुघ्न, अत्रिमुनि तथा अन्य साधु-सन्तोंसहित आप वहाँ गये जहाँ वह अथाह कुआँ था ॥१॥

पावन पाथ पुन्यथल राखा।
प्रमुदित प्रेम अत्रि अस भाषा॥
तात अनादि सिद्ध थल एहू।
लोपेउ काल बिदित नहिं केहू॥

और उस पवित्र जलको उस पुण्यस्थलमें रख दिया। तब अत्रि ऋषिने प्रेमसे आनन्दित होकर ऐसा कहा-हे तात! यह अनादि सिद्धस्थल है। कालक्रमसे यह लोप हो गया था इसलिये किसीको इसका पता नहीं था॥२॥

तब सेवकन्ह सरस थलु देखा।
कीन्ह सुजल हित कूप बिसेषा॥
बिधि बस भयउ बिस्व उपकारू।
सुगम अगम अति धरम बिचारू॥

तब [भरतजीके] सेवकोंने उस जलयुक्त स्थानको देखा और उस सुन्दर [तीर्थोके] जलके लिये एक खास कुआँ बना लिया। दैवयोगसे विश्वभरका उपकार हो गया। धर्मका विचार जो अत्यन्त अगम था, वह [इस कूपके प्रभावसे] सुगम हो गया ॥३॥

भरतकूप अब कहिहहिं लोगा।
अति पावन तीरथ जल जोगा।
प्रेम सनेम निमज्जत प्रानी।
होइहहिं बिमल करम मन बानी॥

अब इसको लोग भरतकूप कहेंगे। तीर्थोक जलके संयोगसे तो यह अत्यन्त ही पवित्र हो गया। इसमें प्रेमपूर्वक नियमसे स्नान करनेपर प्राणी मन, वचन और कर्मसे निर्मल हो जायेंगे ॥४॥

कहत कूप महिमा सकल गए जहाँ रघुराउ।
अत्रि सुनायउ रघुबरहि तीरथ पुन्य प्रभाउ॥३१०॥

कूपकी महिमा कहते हुए सब लोग वहाँ गये जहाँ श्रीरघुनाथजी थे। श्रीरघुनाथजीको अत्रिजीने उस तीर्थका पुण्य प्रभाव सुनाया॥३१०।।

कहत धरम इतिहास सप्रीती।
भयउ भोरु निसि सो सुख बीती॥
नित्य निबाहि भरत दोउ भाई।
राम अत्रि गुर आयसु पाई॥

प्रेमपूर्वक धर्मके इतिहास कहते वह रात सुखसे बीत गयी और सबेरा हो गया। भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई नित्यक्रिया पूरी करके, श्रीरामजी, अत्रिजी और गुरु वसिष्ठजीकी आज्ञा पाकर, ॥१॥

सहित समाज साज सब सादें।
चले राम बन अटन पयादें॥
कोमल चरन चलत बिनु पनहीं।
भइ मृदु भूमि सकुचि मन मनहीं।

समाजसहित सब सादे साजसे श्रीरामजीके वनमें भ्रमण (प्रदक्षिणा) करनेके लिये पैदल ही चले। कोमल चरण हैं और बिना जूतेके चल रहे हैं, यह देखकर पृथ्वी मन-ही-मन सकुचाकर कोमल हो गयी॥२॥

कुस कंटक काँकरी कुराई।
कटुक कठोर कुबस्तु दुराईं॥
महि मंजुल मृदु मारग कीन्हे।
बहत समीर त्रिबिध सुख लीन्हे।

कुश, काँटे, कंकड़ी, दरारें आदि कड़वी, कठोर और बुरी वस्तुओंको छिपाकर पृथ्वीने सुन्दर और कोमल मार्ग कर दिये। सुखोंको साथ लिये (सुखदायक) शीतल, मन्द, सुगन्ध हवा चलने लगी ॥३॥

समन बरषि सर घन करि छाहीं।
बिटप फूलि फलि तन मदताहीं॥
मृग बिलोकि खग बोलि सुबानी।
सेवहिं सकल राम प्रिय जानी॥

रास्तेमें देवता फूल बरसाकर, बादल छाया करके, वृक्ष फूल-फलकर, तृण अपनी कोमलतासे, मृग (पशु) देखकर और पक्षी सुन्दर वाणी बोलकर-सभी भरतजीको श्रीरामचन्द्रजी के प्यारे जानकर उनकी सेवा करने लगे॥४॥

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