श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
श्रीराम-भरत-संवाद
बोले बचन बानि सरबसु से।
हित परिनाम सुनत ससि रसु से॥
तात भरत तुम्ह धरम धुरीना।
लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना॥
हित परिनाम सुनत ससि रसु से॥
तात भरत तुम्ह धरम धुरीना।
लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना॥
[तदनुसार] ऐसे वचन बोले जो मानो वाणीके सर्वस्व ही थे, परिणाममें हितकारी थे और सुनने में चन्द्रमाके रस (अमृत)-सरीखे थे। [उन्होंने कहा---] हे तात भरत! तुम धर्मकी धुरीको धारण करनेवाले हो, लोक और वेद दोनोंके जाननेवाले और प्रेममें प्रवीण हो ॥ ४॥
करम बचन मानस बिमल तुम्ह समान तुम्ह तात।
गुर समाज लघु बंधुगुन कुसमयँ किमि कहि जात॥३०४॥
गुर समाज लघु बंधुगुन कुसमयँ किमि कहि जात॥३०४॥
हे तात! कर्मसे, वचनसे और मनसे निर्मल तुम्हारे समान तुम्हीं हो। गुरुजनोंके समाजमें और ऐसे कुसमयमें छोटे भाईके गुण किस तरह कहे जा सकते हैं ? ॥ ३०४।।
जानहु तात तरनि कुल रीती।
सत्यसंध पितु कीरति प्रीती॥
समउ समाजु लाज गुरजन की।
उदासीन हित अनहित मन की।
सत्यसंध पितु कीरति प्रीती॥
समउ समाजु लाज गुरजन की।
उदासीन हित अनहित मन की।
हे तात! तुम सूर्यकुलकी रीतिको, सत्यप्रतिज्ञ पिताजीकी कीर्ति और प्रीतिको, समय, समाज और गुरुजनोंकी लज्जा (मर्यादा) को तथा उदासीन, मित्र और शत्रु सबके मनकी बातको जानते हो॥१॥
तुम्हहि बिदित सबही कर करमू।
आपन मोर परम हित धरमू॥
मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा।
तदपि कहउँ अवसर अनुसारा॥
आपन मोर परम हित धरमू॥
मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा।
तदपि कहउँ अवसर अनुसारा॥
तुमको सबके कर्मों (कर्तव्यों) का और अपने तथा मेरे परम हितकारी धर्मका पता है। यद्यपि मुझे तुम्हारा सब प्रकारसे भरोसा है, तथापि मैं समयके अनुसार कुछ कहता हूँ॥२॥
तात तात बिनु बात हमारी।
केवल गुरकुल कृपाँ सँभारी॥
नतरु प्रजा परिजन परिवारू।
हमहि सहित सबु होत खुआरू॥
केवल गुरकुल कृपाँ सँभारी॥
नतरु प्रजा परिजन परिवारू।
हमहि सहित सबु होत खुआरू॥
हे तात! पिताजीके बिना (उनकी अनुपस्थितिमें) हमारी बात केवल गुरुवंशकी कृपाने ही सम्हाल रखी है; नहीं तो हमारे समेत प्रजा, कुटुम्ब, परिवार सभी बर्बाद हो जाते ॥३॥
जौं बिनु अवसर अथवँ दिनेसू।
जग केहि कहहु न होइ कलेसू॥
तस उतपातु तात बिधि कीन्हा।
मुनि मिथिलेस राखि सबु लीन्हा॥ _
जग केहि कहहु न होइ कलेसू॥
तस उतपातु तात बिधि कीन्हा।
मुनि मिथिलेस राखि सबु लीन्हा॥ _
यदि बिना समयके (संध्यासे पूर्व ही) सूर्य अस्त हो जाय, तो कहो जगत्में किसको क्लेश न होगा? हे तात! उसी प्रकारका उत्पात विधाताने यह (पिताकी असामयिक मृत्यु) किया है। पर मुनि महाराजने तथा मिथिलेश्वरने सबको बचा लिया।॥ ४॥
राज काज सब लाज पति धरम धरनि धन धाम।
गुर प्रभाउ पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम ॥३०५॥
गुर प्रभाउ पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम ॥३०५॥
राज्यका सब कार्य, लज्जा, प्रतिष्ठा, धर्म, पृथ्वी, धन, घर-इन सभीका पालन (रक्षण) गुरुजीका प्रभाव (सामर्थ्य) करेगा और परिणाम शुभ होगा।। ३०५ ॥
सहित समाज तुम्हार हमारा।
घर बन गुर प्रसाद रखवारा ॥
मातु पिता गुर स्वामि निदेसू।
सकल धरम धरनीधर सेसू॥
घर बन गुर प्रसाद रखवारा ॥
मातु पिता गुर स्वामि निदेसू।
सकल धरम धरनीधर सेसू॥
गुरुजीका प्रसाद (अनुग्रह) ही घरमें और वनमें समाजसहित तुम्हारा और हमारा रक्षक है। माता, पिता, गुरु और स्वामीकी आज्ञा [का पालन] समस्त धर्मरूपी पृथ्वीको धारण करनेमें शेषजीके समान है॥१॥
सो तुम्ह करहु करावहु मोहू।
तात तरनिकुल पालक होहू॥
साधक एक सकल सिधि देनी।
कीरति सुगति भूतिमय बेनी॥
तात तरनिकुल पालक होहू॥
साधक एक सकल सिधि देनी।
कीरति सुगति भूतिमय बेनी॥
हे तात ! तुम वही करो और मुझसे भी कराओ तथा सूर्यकुलके रक्षक बनो। साधकके लिये यह एक ही (आज्ञापालनरूपी साधना) सम्पूर्ण सिद्धियोंकी देनेवाली, कीर्तिमयी, सद्गतिमयी और ऐश्वर्यमयी त्रिवेणी है॥२॥
सो बिचारि सहि संकटु भारी।
करहु प्रजा परिवारु सुखारी॥
बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई।
तुम्हहि अवधि भरि बड़ि कठिनाई॥
करहु प्रजा परिवारु सुखारी॥
बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई।
तुम्हहि अवधि भरि बड़ि कठिनाई॥
इसे विचारकर भारी संकट सहकर भी प्रजा और परिवारको सुखी करो। हे भाई! मेरी विपत्ति सभीने बाँट ली है, परन्तु तुमको तो अवधि (चौदह वर्ष) तक बड़ी कठिनाई है (सबसे अधिक दुःख है)॥३॥
जानि तुम्हहि मृदु कहउँ कठोरा।
कुसमय तात न अनुचित मोरा॥
होहिं कुठायँ सुबंधु सहाए।
ओडिअहिं हाथ असनिहु के घाए॥
कुसमय तात न अनुचित मोरा॥
होहिं कुठायँ सुबंधु सहाए।
ओडिअहिं हाथ असनिहु के घाए॥
तुमको कोमल जानकर भी मैं कठोर (वियोगकी बात) कह रहा हूँ। हे तात! बरे समयमें मेरे लिये यह कोई अनचित बात नहीं है। कठौर (कअवसर) में श्रेष्ठ भाई ही सहायक होते हैं। वज्रके आघात भी हाथसे ही रोके जाते हैं॥४॥
सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ।
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सकबि सराहहिं सोइ॥३०६॥
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सकबि सराहहिं सोइ॥३०६॥
सेवक हाथ, पैर और नेत्रों के समान और स्वामी मुख के समान होना चाहिये। तुलसीदासजी कहते हैं कि सेवक-स्वामी की ऐसी प्रीति की रीति सुनकर सुकवि उसकी सराहना करते हैं ॥ ३०६॥
सभा सकल सुनि रघुबर बानी।
प्रेम पयोधि अमिअँ जनु सानी॥
सिथिल समाज सनेह समाधी।
देखि दसा चुप सारद साधी॥
प्रेम पयोधि अमिअँ जनु सानी॥
सिथिल समाज सनेह समाधी।
देखि दसा चुप सारद साधी॥
श्रीरघुनाथजीकी वाणी सुनकर, जो मानो प्रेमरूपी समुद्रके [मन्थनसे निकले हुए] अमृतमें सनी हुई थी, सारा समाज शिथिल हो गया; सबको प्रेमसमाधि लग गयी। यह दशा देखकर सरस्वतीने चुप साध ली ॥१॥
भरतहि भयउ परम संतोषू।
सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू॥
मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू।
भा जनु गूंगेहि गिरा प्रसादू॥
सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू॥
मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू।
भा जनु गूंगेहि गिरा प्रसादू॥
भरतजीको परम सन्तोष हुआ। स्वामीके सम्मुख (अनुकूल) होते ही उनके दुःख और दोषोंने मुँह मोड़ लिया (वे उन्हें छोड़कर भाग गये)। उनका मुख प्रसन्न हो गया और मनका विषाद मिट गया। मानो गूंगेपर सरस्वतीकी कृपा हो गयी हो॥२॥
कीन्ह सप्रेम प्रनामु बहोरी।
बोले पानि पंकरुह जोरी॥
नाथ भयउ सुखु साथ गए को।
लहेउँ लाहु जग जनमु भए को।
बोले पानि पंकरुह जोरी॥
नाथ भयउ सुखु साथ गए को।
लहेउँ लाहु जग जनमु भए को।
उन्होंने फिर प्रेमपूर्वक प्रणाम किया और करकमलोंको जोड़कर वे बोले-हे नाथ! मुझे आपके साथ जानेका सुख प्राप्त हो गया और मैंने जगत्में जन्म लेनेका लाभ भी पा लिया ॥३॥
अब कृपाल जस आयसु होई।
करौं सीस धरि सादर सोई॥
सो अवलंब देव मोहि देई।
अवधि पारु पावौं जेहि सेई॥
करौं सीस धरि सादर सोई॥
सो अवलंब देव मोहि देई।
अवधि पारु पावौं जेहि सेई॥
हे कृपालु ! अब जैसी आज्ञा हो, उसीको मैं सिरपर धरकर आदरपूर्वक करूँ! परन्तु देव! आप मुझे वह अवलम्बन (कोई सहारा) दें जिसकी सेवा कर मैं अवधिका पार पा जाऊँ (अवधिको बिता दूं)॥४॥
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