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श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

कैकेयी-मन्थरा-संवाद



कोप समाजु साजि सबु सोई।
राजु करत निज कुमति बिगोई॥
राउर नगर कोलाहलु होई।
यह कुचालि कछु जान न कोई॥


कैकेयी कोपका सब साज सजकर [कोपभवनमें] जा सोयी। राज्य करती हुई वह अपनी दुष्ट बुद्धिसे नष्ट हो गयी। राजमहल और नगरमें धूम-धाम मच रही है। इस कुचाल को कोई कुछ नहीं जानता॥४॥

दो०- प्रमुदित पुर नर नारि सब सजहिं सुमंगलचार।
एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार॥२३॥


बड़े ही आनन्दित होकर नगरके सब स्त्री-पुरुष शुभ मंगलाचार के साज सज रहे हैं। कोई भीतर जाता है, कोई बाहर निकलता है; राजद्वारमें बड़ी भीड़ हो रही है॥ २३॥

बाल सखा सुनि हियँ हरषाहीं।
मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं॥
प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी।
पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी॥


श्रीरामचन्द्रजी के बालसखा राजतिलक का समाचार सुनकर हृदय में हर्षित होते हैं। वे दस-पाँच मिलकर श्रीरामचन्द्रजीके पास जाते हैं। प्रेम पहचानकर प्रभु श्रीरामचन्द्रजी उनका आदर करते हैं और कोमल वाणीसे कुशल-क्षेम पूछते हैं॥१॥

फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई।
करत परसपर राम बड़ाई॥
को रघुबीर सरिस संसारा।
सीलु सनेहु निबाहनिहारा॥


अपने प्रिय सखा श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर वे आपस में एक-दूसरे से श्रीरामचन्द्रजी की बड़ाई करते हुए घर लौटते हैं और कहते हैं-संसारमें श्रीरघुनाथजी के समान शील और स्नेह को निबाहने वाला कौन है ?॥२॥

जेहिं जेहिं जोनि करम बस भ्रमहीं।
तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं॥
सेवक हम स्वामी सियनाहू।
होउ नात यह ओर निबाहू॥


भगवान् हमें यही दें कि हम अपने कर्मवश भ्रमते हुए जिस-जिस योनि में जन्में, वहाँ-वहाँ (उस-उस योनिमें) हम तो सेवक हों और सीतापति श्रीरामचन्द्रजी हमारे स्वामी हों और यह नाता अन्त तक निभ जाय॥३॥

अस अभिलाषु नगर सब काहू।
कैकयसुता हृदयँ अति दाहू॥
को न कुसंगति पाइ नसाई।
रहइ न नीच मतें चतुराई॥


नगरमें सबकी ऐसी ही अभिलाषा है। परन्तु कैकेयी के हृदय में बड़ी जलन हो रही है। कुसंगति पाकर कौन नष्ट नहीं होता। नीच के मत के अनुसार चलने से चतुराई नहीं रह जाती॥ ४॥
 
दो०- साँझ समय सानंद नृपु गयउ कैकई गेहँ।
गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ॥२४॥

सन्ध्याके समय राजा दशरथ आनन्द के साथ कैकेयी के महल में गये। मानो साक्षात् स्नेह ही शरीर धारण कर निष्ठुरताके पास गया हो!॥ २४॥

कोपभवन सुनि सकुचेउ राऊ।
भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ॥
सुरपति बसइ बाहँबल जाकें।
नरपति सकल रहहिं रुख ताकें।


कोपभवन का नाम सुनकर राजा सहम गये। डर के मारे उनका पाँव आगे को नहीं पड़ता। स्वयं देवराज इन्द्र जिनकी भुजाओंके बलपर [राक्षसों से निर्भय होकर] बसता है और सम्पूर्ण राजा लोग जिनका रुख देखते रहते हैं,॥१॥

सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई।
देखहु काम प्रताप बड़ाई॥
सूल कुलिस असि अँगवनिहारे।
ते रतिनाथ सुमन सर मारे॥


वही राजा दशरथ स्त्रीका क्रोध सुनकर सूख गये। कामदेवका प्रताप और महिमा तो देखिये। जो त्रिशूल, वज्र और तलवार आदिकी चोट अपने अङ्गोंपर सहनेवाले हैं, वे रतिनाथ कामदेवके पुष्पबाणसे मारे गये॥२॥

सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ।
देखि दसा दुखु दारुन भयऊ॥
भूमि सयन पटु मोट पुराना।
दिए डारि तन भूषन नाना॥


राजा डरते-डरते अपनी प्यारी कैकेयी के पास गये। उसकी दशा देखकर उन्हें बड़ा ही दुःख हुआ। कैकेयी जमीन पर पड़ी है। पुराना मोटा कपड़ा पहने हुए है। शरीर के नाना आभूषणों को उतारकर फेंक दिया है॥३॥

कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी।
अनअहिवातु सूच जनु भाबी॥
जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी।
प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी।।


उस दुर्बुद्धि कैकेयीको यह कुवेषता (बुरा वेष) कैसी फब रही है, मानो भावी विधवापनकी सूचना दे रही हो। राजा उसके पास जाकर कोमल वाणीसे बोले हे प्राणप्रिये! किसलिये रिसाई (रूठी) हो?॥४॥

छं०- केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।
मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।
तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई॥


'हे रानी! किसलिये रूठी हो?' यह कहकर राजा उसे हाथ से स्पर्श करते हैं तो वह उनके हाथ को [झटककर हटा देती है और ऐसे देखती है मानो क्रोध में भरी हुई नागिन क्रूर दृष्टिसे देख रही हो। दोनों [वरदानोंकी] वासनाएँ उस नागिन की दो जीभें हैं और दोनों वरदान दाँत हैं; वह काटनेके लिये मर्मस्थान देख रही है। तुलसीदासजी कहते हैं कि राजा दशरथ होनहार के वश में होकर इसे (इस प्रकार हाथ झटकने और नागिन की भाँति देखने को) कामदेवकी क्रीडा ही समझ रहे हैं।

सो०- बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचनि पिकबचनि।
कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर॥२५॥


राजा बार-बार कह रहे हैं-हे सुमुखी! हे सुलोचनी! हे कोकिलबयनी! हे गजगामिनी! मुझे अपने क्रोधका कारण तो सुना॥२५॥

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