श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
सरस्वती का मन्थरा की बुद्धि फेरना
अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि॥१२॥
मन्थरा नामकी कैकेयीकी एक मन्दबुद्धि दासी थी, उसे अपयशकी पिटारी बनाकर सरस्वती उसकी बुद्धि को फेरकर चली गयीं॥१२॥
मंजुल मंगल बाज बधावा॥
पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। र
ाम तिलकु सुनि भा उर दाहू॥
मन्थरा ने देखा कि नगर सजाया हुआ है। सुन्दर मङ्गलमय बधावे बज रहे हैं। उसने लोगों से पूछा कि कैसा उत्सव है ? [उनसे] श्रीरामचन्द्रजीके राजतिलक की बात सुनते ही उसका हृदय जल उठा॥१॥
होइ अकाजु कवनि बिधि राती॥
देखि लागि मधु कुटिल किराती।
जिमि गर्वं तकइ लेउँ केहि भाँती॥
वह दुर्बुद्धि नीच जातिवाली दासी विचार करने लगी कि किस प्रकार से यह काम रात-ही-रात में बिगड़ जाय, जैसे कोई कुटिल भीलनी शहद का छत्ता लगा देखकर घात लगाती है कि इसको किस तरह से उखाड़ लूँ॥२॥
का अनमनि हसि कह हँसि रानी॥
ऊतरु देइ न लेइ उसासू।
नारि चरित करि ढारइ आँसू॥
वह उदास होकर भरतजी की माता कैकेयी के पास गयी। रानी कैकेयी ने हँसकर कहा-तू उदास क्यों है? मन्थरा कुछ उत्तर नहीं देती, केवल लंबी साँस ले रही है और त्रियाचरित्र करके आँसू ढरका रही है॥३॥
दीन्ह लखन सिख अस मन मोरें।
तबहुँ न बोल चेरि बड़ि पापिनि।
छाड़इ स्वास कारि जनु साँपिनि।
रानी हँसकर कहने लगी कि तेरे बड़े गाल हैं (तू बहुत बढ़-बढ़कर बोलनेवाली है)। मेरा मन कहता है कि लक्ष्मणने तुझे कुछ सीख दी है (दण्ड दिया है)। तब भी वह महापापिनी दासी कुछ भी नहीं बोलती। ऐसी लंबी साँस छोड़ रही है, मानो काली नागिन [फुफकार छोड़ रही] हो॥४॥
लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु॥१३॥
तब रानीने डरकर कहा-अरी! कहती क्यों नहीं ? श्रीरामचन्द्र, राजा, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न कुशलसे तो हैं ? यह सुनकर कुबरी मन्थराके हृदयमें बड़ी ही पीड़ा हुई॥१३॥
गालु करब केहि कर बलु पाई॥
रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू।
जेहि जनेसु देइ जुबराजू॥
देखत गरब रहत उर नाहिन॥
देखहु कस न जाइ सब सोभा।
जो अवलोकि मोर मनु छोभा॥
आज कौसल्या को विधाता बहुत ही दाहिने (अनुकूल) हुए हैं; यह देखकर उनके हृदय में गर्व समाता नहीं। तुम स्वयं जाकर सब शोभा क्यों नहीं देख लेती, जिसे देखकर मेरे मनमें क्षोभ हुआ है॥२॥
जानति हहु बस नाहु हमारे॥
नीद बहुत प्रिय सेज तुराई।
लखहु न भूप कपट चतुराई॥
तुम्हारा पुत्र परदेश में है, तुम्हें कुछ सोच नहीं। जानती हो कि स्वामी हमारे वश में है। तुम्हें तो तोशक-पलँगपर पड़े-पड़े नींद लेना ही बहुत प्यारा लगता है, राजाकी कपटभरी चतुराई तुम नहीं देखती॥३॥
झुकी रानि अब रहु अरगानी॥
पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी।
तब धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी।
मन्थराके प्रिय वचन सुनकर किन्तु उसको मनकी मैली जानकर रानी झुककर (डाँटकर) बोली-बस, अब चुप रह घरफोड़ी कहींकी! जो फिर कभी ऐसा कहा तो तेरी जीभ पकड़कर निकलवा लूँगी।॥ ४॥
तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि॥१४॥
कानों, लँगड़ों और कुबड़ोंको कुटिल और कुचाली जानना चाहिये। उनमें भी स्त्री और खासकर दासी! इतना कहकर भरतजीकी माता कैकेयी मुसकरा दी॥१४॥
सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही॥
सुदिनु सुमंगल दायकु सोई।
तोर कहा फुर जेहि दिन होई॥
[और फिर बोली-] हे प्रिय वचन कहनेवाली मन्थरा! मैंने तुझको यह सीख दी है (शिक्षाके लिये इतनी बात कही है)। मुझे तुझ पर स्वप्न में भी क्रोध नहीं है। सुन्दर मङ्गलदायक शुभ दिन वही होगा जिस दिन तेरा कहना सत्य होगा (अर्थात् श्रीराम का राज्यतिलक होगा)॥१॥
यह दिनकर कुल रीति सुहाई॥
राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली।
देउँ मागु मन भावत आली।
बड़ा भाई स्वामी और छोटा भाई सेवक होता है। यह सूर्यवंश की सुहावनी रीति ही है। यदि सचमुच कल ही श्रीराम का तिलक है, तो हे सखी! तेरे मन को अच्छी लगे वही वस्तु माँग ले, मैं दूंगी॥२॥
रामहि सहज सुभायें पिआरी॥
मो पर करहिं सनेहु बिसेषी।
मैं करि प्रीति परीछा देखी॥
रामको सहज स्वभावसे सब माताएँ कौसल्याके समान ही प्यारी हैं। मुझपर तो वे विशेष प्रेम करते हैं। मैंने उनकी प्रीतिकी परीक्षा करके देख ली है॥३॥
होहुँ राम सिय पूत पुतोहू॥
प्रान ते अधिक रामु प्रिय मोरें।
तिन्ह के तिलक छोभु कस तोरें॥
जो विधाता कृपा करके जन्म दें तो [यह भी दें कि] श्रीरामचन्द्र पुत्र और सीता बहू हों। श्रीराम मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। उनके तिलक से (उनके तिलक की बात सुनकर) तुझे क्षोभ कैसा?॥ ४॥
हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ॥१५॥
तुझे भरत की सौगन्ध है, छल-कपट छोड़कर सच-सच कह। तू हर्ष के समय विषाद कर रही है, मुझे इसका कारण सुना॥ १५॥
अब कछु कहब जीभ करि दूजी।
फोरै जोगु कपारु अभागा।
भलेउ कहत दुख रउरेहि लागा॥
[मन्थराने कहा-] सारी आशाएँ तो एक ही बार कहने में पूरी हो गयीं। अब तो दूसरी जीभ लगाकर कुछ कहूँगी। मेरा अभागा कपाल तो फोड़ने ही योग्य है, जो अच्छी बात कहने पर भी आपको दुःख होता है॥१॥
ते प्रिय तुम्हहि करुइ मैं माई॥
हमहुँ कहबि अब ठकुरसोहाती।
नाहिं त मौन रहब दिनु राती॥
जो झूठी-सच्ची बातें बनाकर कहते हैं, हे माई! वे ही तुम्हें प्रिय हैं और मैं कड़वी लगती हूँ ! अब मैं भी ठकुरसुहाती (मुँहदेखी) कहा करूँगी। नहीं तो दिन रात चुप रहूँगी॥२॥
बवा सो लुनिअ लहिअ जो दीन्हा॥
कोउ नृप होउ हमहि का हानी।
चेरि छाड़ि अब होब कि रानी॥
विधाता ने कुरूप बनाकर मुझे परवश कर दिया! [दूसरे को क्या दोष] जो बोया सो काटती हूँ, दिया सो पाती हूँ। कोई भी राजा हो, हमारी क्या हानि है ? दासी छोड़कर क्या अब मैं रानी होऊँगी! (अर्थात् रानी तो होने से रही)॥३॥
अनभल देखि न जाइ तुम्हारा।
तातें कछुक बात अनुसारी।
छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी॥
हमारा स्वभाव तो जलाने ही योग्य है। क्योंकि तुम्हारा अहित मुझसे देखा नहीं जाता। इसीलिये कुछ बात चलायी थी। किन्तु हे देवि! हमारी बड़ी भूल हुई, क्षमा करो॥ ४॥
सुरमाया बस बैरिनिहि सुहृद जानि पतिआनि॥१६॥
सबरी गान मृगी जनु मोही॥
तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी।
रहसी चेरि घात जनु फाबी॥
बार-बार रानी उससे आदर के साथ पूछ रही हैं, मानो भीलनी के गान से हिरनी मोहित हो गयी हो। जैसी भावी (होनहार) है, वैसी ही बुद्धि भी फिर गयी। दासी अपना दाँव लगा जानकर हर्षित हुई।॥१॥
धरेहु मोर घरफोरी नाऊँ॥
सजि प्रतीति बहुबिधि गढ़ि छोली।
अवध साढ़साती तब बोली॥
तुम पूछती हो, किन्तु मैं कहते डरती हूँ। क्योंकि तुमने पहले ही मेरा नाम घरफोड़ी रख दिया है। बहुत तरह से गढ़-छोलकर, खूब विश्वास जमाकर, तब वह अयोध्याकी साढ़ेसाती (शनि की साढ़े सात वर्षकी दशारूपी मन्थरा) बोली-॥२॥
रामहि तुम्ह प्रिय सो फुरि बानी।।
रहा प्रथम अब ते दिन बीते।
समउ फिरें रिपु होहिं पिरीते॥
हे रानी! तुमने जो कहा कि मुझे सीता-राम प्रिय हैं और रामको तुम प्रिय हो, सो यह बात सच्ची है। परन्तु यह बात पहले थी, वे दिन अब बीत गये। समय फिर जानेपर मित्र भी शत्रु हो जाते हैं॥३॥
बिनु जल जारि करइ सोइ छारा॥
जरि तुम्हारि चह सवति उखारी।
सँधहु करि उपाउ बर बारी॥
सूर्य कमलके कुल का पालन करनेवाला है, पर बिना जलके वही सूर्य उनको (कमलोंको) जलाकर भस्म कर देता है। सौत कौसल्या तुम्हारी जड़ उखाड़ना चाहती है। अत: उपायरूपी श्रेष्ठ बाड़ (घेरा) लगाकर उसे रूँध दो (सुरक्षित कर दो)॥४॥
मन मलीन मुह मीठ नृपु राउर सरल सुभाउ॥१७॥
तुमको अपने सुहाग के [झूठे] बलपर कुछ भी सोच नहीं है; राजा को अपने वश में जानती हो। किन्तु राजा मन के मैले और मुँहके मीठे हैं! और आपका सीधा स्वभाव है (आप कपट-चतुराई जानती ही नहीं)॥१७॥
बीचु पाइ निज बात सँवारी॥
पठए भरत भप ननिअउरें।
राम मात मत जानब रउरें॥
रामकी माता (कौसल्या) बड़ी चतुर और गम्भीर है (उसकी थाह कोई नहीं पाता)। उसने मौका पाकर अपनी बात बना ली। राजा ने जो भरत को ननिहाल भेज दिया, उसमें आप बस रामकी माताकी ही सलाह समझिये!॥१॥
गरबित भरत मातु बल पी कें॥
सालु तुम्हार कौसिलहि माई।
कपट चतुर नहिं होइ जनाई।
[कौसल्या समझती है कि] और सब सौतें तो मेरी अच्छी तरह सेवा करती हैं, एक भरतकी माँ पति के बलपर गर्वित रहती है! इसी से हे माई! कौसल्या को तुम बहुत ही साल (खटक) रही हो। किन्तु वह कपट करनेमें चतुर है; अतः उसके हृदय का भाव जानने में नहीं आता (वह उसे चतुरता से छिपाये रखती है)॥२॥
सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी॥
रचि प्रपंचु भूपहि अपनाई।
राम तिलक हित लगन धराई॥
राजा का तुमपर विशेष प्रेम है। कौसल्या सौत के स्वभाव से उसे देख नहीं सकती। इसीलिये उसने जाल रचकर राजा को अपने वश में करके, [भरतकी अनुपस्थिति में] राम के राजतिलक के लिये लग्न निश्चय करा लिया॥३॥
सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका।
आगिलि बात समुझि डरु मोही।
देउ दैउ फिरि सो फलु ओही॥
राम को तिलक हो, यह कुल (रघुकुल) के उचित ही है और यह बात सभीको सुहाती है; और मुझे तो बहुत ही अच्छी लगती है। परन्तु मुझे तो आगे की बात विचार कर डर लगता है। दैव उलटकर इसका फल उसी (कौसल्या) को दे॥४॥
कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु॥१८॥
इस तरह करोड़ों कुटिलपन की बातें गढ़-छोलकर मन्थराने कैकेयीको उलटा सीधा समझा दिया और सैकड़ों सौतों की कहानियाँ इस प्रकार [बना-बनाकर] कहीं जिस प्रकार विरोध बढ़े॥१८॥
पूँछ रानि पुनि सपथ देवाई॥
का पूँछहु तुम्ह अबहुँ न जाना।
निज हित अनहित पसु पहिचाना॥
होनहारवश कैकेयीके मनमें विश्वास हो गया। रानी फिर सौगन्ध दिलाकर पूछने लगी। [मन्थरा बोली-] क्या पूछती हो? अरे, तुमने अब भी नहीं समझा? अपने भले-बुरेको (अथवा मित्र-शत्रुको) तो पशु भी पहचान लेते हैं॥१॥
तुम्ह पाई सुधि मोहि सन आजू॥
खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारें।
सत्य कहें नहिं दोषु हमारें।
पूरा पखवाड़ा बीत गया सामान सजते और तुमने खबर पायी है आज मुझसे! मैं तुम्हारे राज में खाती-पहनती हूँ, इसलिये सच कहने में मुझे कोई दोष नहीं है॥२॥
तौ बिधि देइहि हमहि सजाई॥
रामहि तिलक कालि जौं भयऊ।
तुम्ह कहुँ बिपति बीजु बिधि बयऊ।
यदि मैं कुछ बनाकर झूठ कहती होऊँगी तो विधाता मुझे दण्ड देगा। यदि कल राम को राजतिलक हो गया तो [समझ रखना कि तुम्हारे लिये विधाता ने विपत्तिका बीज बो दिया॥३॥
भामिनि भइहु दूध कइ माखी॥
जौं सुत सहित करहु सेवकाई।
तौ घर रहहु न आन उपाई॥
मैं यह बात लकीर खींचकर बलपूर्वक कहती हूँ, हे भामिनी! तुम तो अब दूध की मक्खी हो गयी ! (जैसे दूधमें पड़ी हुई मक्खीको लोग निकालकर फेंक देते हैं, वैसे ही तुम्हें भी लोग घर से निकाल बाहर करेंगे) जो पुत्रसहित [कौसल्याकी] चाकरी बजाओगी तो घरमें रह सकोगी; [अन्यथा घर में रहनेका] दूसरा उपाय नहीं॥४॥
भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब।।१९।।
कद्रूने विनताको दुःख दिया था, तुम्हें कौसल्या देगी। भरत कारागार का सेवन करेंगे (जेल की हवा खायेंगे) और लक्ष्मण राम के नायब (सहकारी) होंगे॥१९॥
कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी॥
तन पसेउ कदली जिमि काँपी।
कुबरी दसन जीभ तब चाँपी॥
धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी॥
फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली।
बकिहि सराहइ मानि मराली॥
फिर कपट की करोड़ों कहानियाँ कह-कहकर उसने रानी को खूब समझाया कि धीरज रखो! कैकेयी का भाग्य पलट गया, उसे कुचाल प्यारी लगी। वह बगुली को हंसिनी मानकर (वैरिन को हित मानकर) उसकी सराहना करने लगी॥२॥
दहिनि आँखि नित फरकइ मोरी॥
दिन प्रति देखउँ राति कुसपने।
कहउँ न तोहि मोह बस अपने॥
कैकेयी ने कहा-मन्थरा! सुन, तेरी बात सत्य है। मेरी दाहिनी आँख नित्य फड़का करती है। मैं प्रतिदिन रात को बुरे स्वप्न देखती हूँ; किन्तु अपने अज्ञानवश तुझसे कहती नहीं॥३॥
दाहिन बाम न जानउँ काऊ॥
सखी! क्या करूँ मेरा तो सीधा स्वभाव है। मैं दायाँ-बायाँ कुछ भी नहीं जानती॥४॥
केहिं अघ एकहि बार मोहि दैों दुसह दुखु दीन्ह॥२०॥
अपनी चलते (जहाँ तक मेरा वश चला) मैंने आज तक कभी किसीका बुरा नहीं किया। फिर न जाने किस पाप से दैव ने मुझे एक ही साथ यह दुःसह दु:ख दिया॥२०॥
जिअत न करबि सवति सेवकाई॥
अरि बस दैउ जिआवत जाही।
मरनु नीक तेहि जीवन चाही।
मैं भले ही नैहर जाकर वहीं जीवन बिता दूंगी; पर जीते-जी सौत की चाकरी नहीं करूँगी। दैव जिसको शत्रु के वश में रखकर जिलाता है, उसके लिये तो जीने की अपेक्षा मरना ही अच्छा है॥१॥
सुनि कुबरी तियमाया ठानी।
अस कस कहहु मानि मन ऊना।
सुखु सोहागु तुम्ह कहुँ दिन दूना॥
रानी ने बहुत प्रकारके दीन वचन कहे। उन्हें सुनकर कुबरीने त्रियाचरित्र फैलाया। [वह बोली-] तुम मन में ग्लानि मानकर ऐसा क्यों कह रही हो, तुम्हारा सुख सुहाग दिन-दिन दूना होगा॥२॥
सोइ पाइहि यहु फलु परिपाका॥
जब तें कुमत सुना मैं स्वामिनि।
भूख न बासर नीद न जामिनि॥
जिसने तुम्हारी बुराई चाही है, वही परिणाम में यह (बुराईरूप) फल पायेगी। हे स्वामिनि! मैंने जब से यह कुमत सुना है, तबसे मुझे न तो दिन में कुछ भूख लगती है और न रातमें नींद ही आती है॥३॥
भरत भुआल होहिं यह साँची॥
भामिनि करहु त कहौं उपाऊ।
है तुम्हरी सेवा बस राऊ॥
मैंने ज्योतिषियोंसे पूछा, तो उन्होंने रेखा खींचकर (गणित करके अथवा निश्चयपूर्वक) कहा कि भरत राजा होंगे, यह सत्य बात है। हे भामिनि! तुम करो, तो उपाय मैं बताऊँ। राजा तुम्हारी सेवाके वशमें हैं ही॥४॥
कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि॥२१॥
[कैकेयीने कहा--] मैं तेरे कहनेसे कुएँमें गिर सकती हूँ, पुत्र और पतिको भी छोड़ सकती हूँ। जब तू मेरा बड़ा भारी दुःख देखकर कुछ कहती है, तो भला मैं अपने हितके लिये उसे क्यों न करूँगी?॥ २१॥
कपट छुरी उर पाहन टेई॥
लखइ न रानि निकट दुखु कैसें।
चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें।
कुबरीने कैकेयीको [सब तरहसे] कबूल करवाकर (अर्थात् बलिपशु बनाकर) कपटरूप छुरीको अपने [कठोर] हृदयरूपी पत्थरपर टेया (उसकी धारको तेज किया)। रानी कैकेयी अपने निकटके (शीघ्र आनेवाले) दुःखको कैसे नहीं देखती, जैसे बलिका पशु हरी-हरी घास चरता है [पर यह नहीं जानता कि मौत सिरपर नाच रही है]॥१॥
देति मनहुँ मधु माहुर घोरी॥
कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाहीं।
स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं॥
मन्थराकी बातें सुनने में तो कोमल हैं, पर परिणाममें कठोर (भयानक) हैं। मानो वह शहदमें घोलकर जहर पिला रही हो। दासी कहती है-हे स्वामिनि ! तुमने मुझको एक कथा कही थी, उसकी याद है कि नहीं?॥२॥
मागहु आजु जुड़ावहु छाती॥
सुतहि राजु रामहि बनबासू।
देहु लेहु सब सवति हुलासू॥
तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई॥
होइ अकाजु आजु निसि बीतें।
बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें।
जब राजा राम की सौगंध खा लें, तब वर माँगना, जिससे वचन न टलने पावे। आजकी रात बीत गयी, तो काम बिगड़ जायगा। मेरी बात को हृदयसे प्रिय [या प्राणोंसे भी प्यारी] समझना॥४॥
काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु॥२२॥
पापिनी मन्थरा ने बड़ी बुरी घात लगाकर कहा- कोप भवन में जाओ। सब काम बड़ी सावधानी से बनाना, राजा पर सहसा विश्वास न कर लेना (उनकी बातों में न आ जाना)॥२२॥
बार बार बड़ि बुद्धि बखानी॥
तोहि सम हित न मोर संसारा।
बहे जात कइ भइसि अधारा॥
कुबरी को रानी ने प्राणों के समान प्रिय समझकर बार-बार उसकी बड़ी बुद्धिका बखान किया और बोली-संसार में मेरा तेरे समान हितकारी और कोई नहीं है। तू मुझ बही जाती हुई के लिये सहारा हुई है॥१॥
कौँ तोहि चख पूतरि आली॥
बहुबिधि चेरिहि आदरु देई।
कोपभवन गवनी कैकेई॥
यदि विधाता कल मेरा मनोरथ पूरा कर दें तो हे सखी! मैं तुझे आँखों की पुतली बना लूँ। इस प्रकार दासी को बहुत तरह से आदर देकर कैकेयी कोपभवन में चली गयी॥२॥
भुइँ भइ कुमति कैकई केरी॥
पाइ कपट जलु अंकुर जामा।
बर दोउ दल दुख फल परिनामा॥
विपत्ति (कलह) बीज है, दासी वर्षा-ऋतु है, कैकेयी की कुबुद्धि [उस बीजके बोनेके लिये] जमीन हो गयी। उसमें कपटरूपी जल पाकर अंकुर फूट निकला। दोनों वरदान उस अंकुरके दो पत्ते हैं और अन्त में इसके दुःखरूपी फल होगा॥३॥
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