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श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

भरत-निषाद-मिलन और संवाद एवं भरतजी का तथा नगरवासियों का प्रेम



देखि दूरि तें कहि निज नामू।
कीन्ह मुनीसहि दंड प्रनामू॥
जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा।
भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीसा॥

निषादराज ने मुनिराज वसिष्ठजी को देखकर अपना नाम बतलाकर दूरही से दण्डवत् प्रणाम किया। मुनीश्वर वसिष्ठजी ने उसको राम का प्यारा जानकर आशीर्वाद दिया और भरतजी को समझाकर कहा [कि यह श्रीरामजीका मित्र है] ॥३॥

राम सखा सुनि संदनु त्यागा।
चले उतरि उमगत अनुरागा॥
गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई।
कीन्ह जोहारु माथ महि लाई।

यह श्रीरामका मित्र है, इतना सुनते ही भरतजीने रथ त्याग दिया। वे रथसे उतरकर प्रेममें उमँगते हुए चले। निषादराज गुहने अपना गाँव, जाति और नाम सुनाकर पृथ्वीपर माथा टेककर जोहार की ॥४॥

करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ।
मनहुँ लखन सन भेंट भइ प्रेमु न हृदय समाइ॥१९३॥


दण्डवत् करते देखकर भरतजीने उठाकर उसको छातीसे लगा लिया। हृदयमें प्रेम समाता नहीं है, मानो स्वयं लक्ष्मणजीसे भेंट हो गयी हो॥१९३॥

भेटत भरतु ताहि अति प्रीती।
लोग सिहाहिं प्रेम कै रीती॥
धन्य धन्य धुनि मंगल मूला।
सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला॥

भरतजी गुहको अत्यन्त प्रेमसे गले लगा रहे हैं। प्रेमकी रीतिको सब लोग सिहा रहे हैं (ईर्ष्यापूर्वक प्रशंसा कर रहे हैं), मङ्गलकी मूल 'धन्य-धन्य' की ध्वनि करके देवता उसकी सराहना करते हुए फूल बरसा रहे हैं ॥१॥

लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा।
जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा।
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता।
मिलत पुलक परिपूरित गाता॥


[वे कहते हैं-] जो लोक और वेद दोनों में सब प्रकारसे नीचा माना जाता है, जिसकी छायाके छू जानेसे भी स्नान करना होता है, उसी निषादसे अँकवार भरकर (हृदयसे चिपटाकर) श्रीरामचन्द्रजीके छोटे भाई भरतजी [आनन्द और प्रेमवश] शरीर में पुलकावलीसे परिपूर्ण हो मिल रहे हैं ॥२॥

राम राम कहि जे जमुहाहीं।
तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं॥
यह तौ राम लाइ उर लीन्हा।
कुल समेत जगु पावन कीन्हा।।

जो लोग राम-राम कहकर जंभाई लेते हैं (अर्थात् आलस्य से भी जिनके मुँह से रामनाम का उच्चारण हो जाता है), पापों के समूह (कोई भी पाप) उनके सामने नहीं आते। फिर इस गुह को तो स्वयं श्रीरामचन्द्रजी ने हृदय से लगा लिया और कुलसमेत इसे जगत्पावन (जगत् को पवित्र करनेवाला) बना दिया॥३॥

करमनास जलु सुरसरि परई।
तेहि को कहहु सीस नहिं धरई॥
उलटा नामु जपत जगु जाना।
बालमीकि भए ब्रह्म समाना।


कर्मनाशा नदीका जल गङ्गाजीमें पड़ जाता है (मिल जाता है), तब कहिये, उसे कौन सिरपर धारण नहीं करता? जगत् जानता है कि उलटा नाम (मरा मरा)जपते-जपते वाल्मीकिजी ब्रह्मके समान हो गये॥४॥

स्वपच सबर खस जमन जड़ पावर कोल किरात।
रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात ॥१९४॥

मूर्ख और पामर चाण्डाल, शबर, खस, यवन, कोल और किरात भी रामनाम कहते ही परम पवित्र और त्रिभुवनमें विख्यात हो जाते हैं ॥१९४॥

नहिं अचिरिजु जुग जुग चलि आई।
केहि न दीन्हि रघुबीर बड़ाई।
राम नाम महिमा सुर कहहीं।
सुनि सुनि अवध लोग सुखु लहहीं।

इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, युग-युगान्तर से यही रीति चली आ रही है। श्रीरघुनाथजी ने किसको बड़ाई नहीं दी? इस प्रकार देवता रामनाम की महिमा कह रहे हैं और उसे सुन-सुनकर अयोध्याके लोग सुख पा रहे हैं ॥१॥

रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा।
पूँछी कुसल सुमंगल खेमा।
देखि भरत कर सीलु सनेहू।
भा निषाद तेहि समय बिदेहू॥


रामसखा निषादराजसे प्रेमके साथ मिलकर भरतजीने कुशल, मङ्गल और क्षेम पूछी। भरतजीका शील और प्रेम देखकर निषाद उस समय विदेह हो गया (प्रेममुग्ध होकर देहकी सुध भूल गया) ॥२॥

सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा।
भरतहि चितवत एकटक ठाढ़ा।
धरि धीरजु पद बंदि बहोरी।
बिनय सप्रेम करत कर जोरी।


उसके मनमें संकोच, प्रेम और आनन्द इतना बढ़ गया कि वह खड़ा-खड़ा टकटकी लगाये भरतजीको देखता रहा। फिर धीरज धरकर भरतजीके चरणोंकी वन्दना करके प्रेमले साथ हाथ जोडकर विनती करने लगा ॥३॥

कुसल मूल पद पंकज पेखी।
मैं तिहुँ काल कुसल निज लेखी॥
अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें।
सहित कोटि कुल मंगल मोरें॥

हे प्रभो! कुशलके मूल आपके चरणकमलोंके दर्शन कर मैंने तीनों कालोंमें अपना कुशल जान लिया। अब आपके परम अनुग्रहसे करोड़ों कुलों (पीढ़ियों) सहित मेरा मङ्गल (कल्याण) हो गया ॥४॥

समुझि मोरि करतूति कुलु प्रभु महिमा जियँ जोइ।
जो न भजइ रघुबीर पद जग बिधि बंचित सोइ॥१९५॥

मेरी करतूत और कुल को समझकर और प्रभु श्रीरामचन्द्रजी की महिमा को मन में देख (विचार) कर (अर्थात् कहाँ तो मैं नीच जाति और नीच कर्म करनेवाला जीव, और कहाँ अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों के स्वामी भगवान् श्रीरामचन्द्रजी! पर उन्होंने मुझ-जैसे नीच को भी अपनी अहैतु की कृपावश अपना लिया—यह समझकर) जो रघुवीर श्रीरामजीके चरणोंका भजन नहीं करता, वह जगत् में विधाताके द्वारा ठगा गया है॥१९५ ॥

कपटी कायर कुमति कुजाती।
लोक बेद बाहेर सब भाँती॥
राम कीन्ह आपन जबही तें।
भयउँ भुवन भूषन तबही तें॥

मैं कपटी, कायर, कुबुद्धि और कुजाति हूँ और लोक-वेद दोनोंसे सब प्रकारसे बाहर हूँ। पर जबसे श्रीरामचन्द्रजीने मुझे अपनाया है, तभीसे मैं विश्वका भूषण हो गया ॥१॥

देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई।
मिलेउ बहोरि भरत लघु भाई॥
कहि निषाद निज नाम सुबानीं।
सादर सकल जोहारी रानी॥

निषादराजकी प्रीतिको देखकर और सुन्दर विनय सुनकर फिर भरतजीके छोटे भाई शत्रुघ्नजी उससे मिले। फिर निषादने अपना नाम ले-लेकर सुन्दर (नम्र और मधुर) वाणीसे सब रानियोंको आदरपूर्वक जोहार की॥२॥

जानि लखन सम देहिं असीसा।
जिअहु सुखी सय लाख बरीसा॥
निरखि निषादु नगर नर नारी।
भए सुखी जनु लखनु निहारी॥


रानियाँ उसे लक्ष्मणजीके समान समझकर आशीर्वाद देती हैं कि तुम सौ लाख वर्षोंतक सुखपूर्वक जिओ। नगरके स्त्री-पुरुष निषादको देखकर ऐसे सुखी हुए, मानो लक्ष्मणजीको देख रहे हों॥३॥

कहहिं लहेउ एहिं जीवन लाहू।
भेंटेउ रामभद्र भरि बाहू॥
सुनि निषादु निज भाग बड़ाई।
प्रमुदित मन लइ चलेउ लेवाई॥


सब कहते हैं कि जीवनका लाभ तो इसीने पाया है, जिसे कल्याणस्वरूप श्रीरामचन्द्रजीने भुजाओंमें बाँधकर गले लगाया है। निषाद अपने भाग्यकी बड़ाई सुनकर मनमें परम आनन्दित हो सबको अपने साथ लिवा ले चला ॥४॥

सनकारे सेवक सकल चले स्वामि रुख पाइ।
घर तरु तर सर बाग बन बास बनाएन्हि जाइ॥१९६॥


उसने अपने सब सेवकों को इशारे से कह दिया। वे स्वामी का रुख पाकर चले और उन्होंने घरों में, वृक्षों के नीचे, तालाबों पर तथा बगीचों और जंगलों में ठहरने के लिये स्थान बना दिये॥१९६।।

संगबेरपुर भरत दीख जब।
भे सनेहँ सब अंग सिथिल तब॥
सोहत दिएँ निषादहि लागू।
जनु तनु धरें बिनय अनुरागू॥


भरतजी ने जब शृङ्गवेरपुरको देखा, तब उनके सब अङ्ग प्रेमके कारण शिथिल हो गये। वे निषादको लाग दिये (अर्थात् उसके कंधेपर हाथ रखे चलते हुए) ऐसे शोभा दे रहे हैं, मानो विनय और प्रेम शरीर धारण किये हुए हों।॥ १॥

एहि बिधि भरत सेनु सबु संगा।
दीखि जाइ जग पावनि गंगा॥
रामघाट कहँ कीन्ह प्रनामू।
भा मनु मगनु मिले जनु रामू॥


इस प्रकार भरतजीने सब सेनाको साथमें लिये हुए जगत्को पवित्र करनेवाली गङ्गाजीके दर्शन किये। श्रीरामघाटको [जहाँ श्रीरामजीने स्नान-सन्ध्या की थी] प्रणाम किया। उनका मन इतना आनन्दमग्न हो गया, मानो उन्हें स्वयं श्रीरामजी मिल गये हों॥२॥

करहिं प्रनाम नगर नर नारी।
मुदित ब्रह्ममय बारि निहारी॥
करि मजनु मागहिं कर जोरी।
रामचंद्र पद प्रीति न थोरी॥


नगरके नर-नारी प्रणाम कर रहे हैं और गङ्गाजीके ब्रह्मरूप जलको देख-देखकर आनन्दित हो रहे हैं। गङ्गाजीमें स्नानकर हाथ जोड़कर सब यही वर माँगते हैं कि श्रीरामचन्द्रजीके चरणों में हमारा प्रेम कम न हो (अर्थात् बहुत अधिक हो)॥३॥

भरत कहेउ सुरसरि तव रेनू।
सकल सुखद सेवक सुरधेनू॥
जोरि पानि बर मागउँ एहू।
सीय राम पद सहज सनेहू।

भरतजीने कहा-हे गङ्गे! आपकी रज सबको सुख देनेवाली तथा सेवकके लिये तो कामधेनु ही है। मैं हाथ जोड़कर यही वरदान माँगता हूँ कि श्रीसीतारामजीके चरणोंमें मेरा स्वाभाविक प्रेम हो॥४॥

एहि बिधि मज्जनु भरतु करि गुर अनुसासन पाइ।
मातु नहानी जानि सब डेरा चले लवाइ॥१९७॥


इस प्रकार भरतजी स्नान कर और गुरुजीकी आज्ञा पाकर तथा यह जानकर कि सब माताएँ स्नान कर चुकी हैं, डेरा उठा ले चले ॥१९७॥

जहँ तहँ लोगन्ह डेरा कीन्हा।
भरत सोधु सबही कर लीन्हा॥
सुर सेवा करि आयसु पाई।
राम मातु पहिं गे दोउ भाई॥

लोगोंने जहाँ-तहाँ डेरा डाल दिया। भरतजीने सभीका पता लगाया [कि सब लोग आकर आरामसे टिक गये हैं या नहीं]। फिर देवपूजन करके आज्ञा पाकर दोनों भाई श्रीरामचन्द्रजीकी माता कौसल्याजीके पास गये॥१॥

चरन चाँपि कहि कहि मृदु बानी।
जननीं सकल भरत सनमानी।
भाइहि सौपि मातु सेवकाई।
आपु निषादहि लीन्ह बोलाई॥


चरण दबाकर और कोमल वचन कह-कहकर भरतजीने सब माताओंका सत्कार किया। फिर भाई शत्रुघ्नको माताओंकी सेवा सौंपकर आपने निषादको बुला लिया॥२॥

चले सखा कर सों कर जोरें।
सिथिल सरीरु सनेह न थोरें॥
पूँछत सखहि सो ठाउँ देखाऊ।
नेकु नयन मन जरनि जुड़ाऊ॥


सखा निषादराजके हाथ-से-हाथ मिलाये हुए भरतजी चले। प्रेम कुछ थोड़ा नहीं है (अर्थात् बहुत अधिक प्रेम है), जिससे उनका शरीर शिथिल हो रहा है। भरतजी सखासे पूछते हैं कि मुझे वह स्थान दिखलाओ---और नेत्र और मनकी जलन कुछ ठंडी करो-- ॥ ३ ॥

जहँ सिय रामु लखनु निसि सोए।
कहत भरे जल लोचन कोए॥
भरत बचन सुनि भयउ बिषादू।
तुरत तहाँ लइ गयउ निषादू॥


जहाँ सीताजी, श्रीरामजी और लक्ष्मण रातको सोये थे। ऐसा कहते ही उनके नेत्रोंके कोयोंमें [प्रेमाश्रुओंका] जल भर आया। भरतजीके वचन सुनकर निषादको बड़ा विषाद हुआ। वह तुरंत ही उन्हें वहाँ ले गया- ॥ ४॥।

जहँ सिंसुपा पुनीत तर रघुबर किय बिश्रामु।
अति सनेहँ सादर भरत कीन्हेउ दंड प्रनामु॥१९८॥


जहाँ पवित्र अशोकके वृक्षके नीचे श्रीरामजीने विश्राम किया था। भरतजीने वहाँ अत्यन्त प्रेमसे आदरपूर्वक दण्डवत्-प्रणाम किया ॥ १९८॥

कुस साँथरी निहारि सुहाई।
कीन्ह प्रनामु प्रदच्छिन जाई॥
चरन रेख रज आँखिन्ह लाई।
बनइ न कहत प्रीति अधिकाई॥

कुशोंकी सुन्दर साथरी देखकर उसकी प्रदक्षिणा करके प्रणाम किया। श्रीरामचन्द्रजीके चरण-चिह्नोंकी रज आँखोंमें लगायी। [उस समयके] प्रेमकी अधिकता कहते नहीं बनती॥१॥

कनक बिंदु दुइ चारिक देखे।
राखे सीस सीय सम लेखे॥
सजल बिलोचन हृदयँ गलानी।
कहत सखा सन बचन सुबानी॥


भरतजी ने दो-चार स्वर्णविन्दु (सोने के कण या तारे आदि जो सीताजी के गहने कपड़ोंसे गिर पड़े थे) देखे तो उनको सीताजी के समान समझकर सिरपर रख लिया। उनके नेत्र [प्रेमाश्रुके] जलसे भरे हैं और हृदयमें ग्लानि भरी है। वे सखा से सुन्दर वाणीमें ये वचन बोले- ॥२॥

श्रीहत सीय बिरहँ दुतिहीना।
जथा अवध नर नारि बिलीना॥
पिता जनक देउँ पटतर केही।
करतल भोगु जोगु जग जेही॥


ये स्वर्णके कण या तारे भी सीताजीके विरहसे ऐसे श्रीहत (शोभाहीन) एवं कान्तिहीन हो रहे हैं, जैसे [रामवियोगमें] अयोध्याके नर-नारी विलीन (शोकके कारण क्षीण) हो रहे हैं। जिन सीताजीके पिता राजा जनक हैं, इस जगत्में भोग और योग दोनों ही जिनकी मुट्ठीमें हैं, उन जनकजीको मैं किसकी उपमा दूं? ॥३॥

ससुर भानुकुल भानु भुआलू।
जेहि सिहात अमरावतिपालू॥
प्राननाथु रघुनाथ गोसाईं।
जो बड़ होत सो राम बड़ाईं।


सूर्यकुलके सूर्य राजा दशरथजी जिनके ससुर हैं, जिनको अमरावतीके स्वामी इन्द्र भी सिहाते थे (ईर्ष्यापूर्वक उनके-जैसा ऐश्वर्य और प्रताप पाना चाहते थे); और प्रभु श्रीरघुनाथजी जिनके प्राणनाथ हैं, जो इतने बड़े हैं कि जो कोई भी बड़ा होता है, वह श्रीरामचन्द्रजीकी [दी हुई] बड़ाईसे ही होता है॥४॥

पति देवता सुतीय मनि सीय साँथरी देखि।
बिहरत हृदउ न हहरिहर पबि तें कठिन बिसेषि॥१९९॥

उन श्रेष्ठ पतिव्रता स्त्रियोंमें शिरोमणि सीताजीको साथरी (कुशशय्या) देखकर मेरा हृदय हहराकर (दहलकर) फट नहीं जाता; हे शङ्कर ! यह वज्रसे भी अधिक कठोर है ! ॥ १९९।।

लालन जोगु लखन लघु लोने।
भे न भाइ अस अहहिं न होने॥
पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे।
सिय रघुबीरहि प्रानपिआरे॥

मेरे छोटे भाई लक्ष्मण बहुत ही सुन्दर और प्यार करनेयोग्य हैं। ऐसे भाई न तो किसीके हुए, न हैं, न होनेके ही हैं। जो लक्ष्मण अवधके लोगोंको प्यारे, माता पिताके दुलारे और श्रीसीतारामजीके प्राणप्यारे हैं;॥१॥

मृदु मूरति सुकुमार सुभाऊ।
तात बाउ तन लाग न काऊ॥
ते बन सहहिं बिपति सब भाँती।
निदरे कोटि कुलिस एहिं छाती॥

जिनकी कोमल मूर्ति और सुकुमार स्वभाव है, जिनके शरीरमें कभी गरम हवा भी नहीं लगी, वे वनमें सब प्रकारकी विपत्तियाँ सह रहे हैं। [हाय!] इस मेरी छातीने [कठोरतामें करोड़ों वज्रोंका भी निरादर कर दिया [नहीं तो यह कभीकी फट गयी होती] ॥२॥

राम जनमि जगु कीन्ह उजागर।
रूप सील सुख सब गुन सागर।।
पुरजन परिजन गुर पितु माता।
राम सुभाउ सबहि सुखदाता॥


श्रीरामचन्द्रजीने जन्म (अवतार) लेकर जगत्को प्रकाशित (परम सुशोभित) कर दिया। वे रूप, शील, सुख और समस्त गुणोंके समुद्र हैं। पुरवासी, कुटुम्बी, गुरु, पिता-माता सभीको श्रीरामजीका स्वभाव सुख देनेवाला है॥३॥

बैरिउ राम बड़ाई करहीं।
बोलनि मिलनि बिनय मन हरहीं।
सारद कोटि कोटि सत सेषा।
करिन सकहिं प्रभु गुन गन लेखा।


शत्रु भी श्रीरामजीकी बड़ाई करते हैं। बोल-चाल, मिलनेके ढंग और विनयसे वे मनको हर लेते हैं। करोड़ों सरस्वती और अरबों शेषजी भी प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके गुणसमूहोंकी गिनती नहीं कर सकते॥४॥

सुखस्वरूप रघुबंसमनि मंगल मोद निधान।
ते सोवत कुस डासि महि बिधि गति अति बलवान॥२००॥


जो सुखस्वरूप रघुवंशशिरोमणि श्रीरामचन्द्रजी मङ्गल और आनन्दके भण्डार हैं, वे पृथ्वीपर कुशा बिछाकर सोते हैं। विधाताकी गति बड़ी ही बलवान् है।। २००।।

राम सुना दुखु कान न काऊ।
जीवनतरु जिमि जोगवइ राऊ॥
पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती।
जोगवहिं जननि सकल दिन राती॥


श्रीरामचन्द्रजीने कानोंसे भी कभी दुःखका नाम नहीं सुना। महाराज स्वयं जीवन वृक्षकी तरह उनकी सार-सँभाल किया करते थे। सब माताएँ भी रात-दिन उनकी ऐसी सार-सँभाल करती थीं, जैसे पलक नेत्रोंकी और साँप अपनी मणिकी करते हैं ॥१॥

ते अब फिरत बिपिन पदचारी।
कंद मूल फल फूल अहारी।।
धिग कैकई अमंगल मूला।
भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला॥


वही श्रीरामचन्द्रजी अब जंगलों में पैदल फिरते हैं और कन्द-मूल तथा फल फूलों का भोजन करते हैं। अमङ्गलकी मूल कैकेयी को धिक्कार है, जो अपने प्राणप्रियतम पति से भी प्रतिकूल हो गयी ॥२॥

मैं धिग धिग अघ उदधि अभागी।
सबु उतपातु भयउ जेहि लागी॥
कुल कलंकु करि सृजेउ बिधाताँ।
साइँदोह मोहि कीन्ह कुमाताँ।

मुझ पापों के समुद्र और अभागे को धिक्कार है, धिक्कार है, जिसके कारण ये सब उत्पात हुए। विधाताने मुझे कुलका कलंक बनाकर पैदा किया और कुमाता ने मुझे स्वामिद्रोही बना दिया॥३॥

सुनि सप्रेम समुझाव निषादू।
नाथ करिअ कत बादि बिषादू॥
राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि।
यह निरजोसु दोसु बिधि बामहि ॥

यह सुनकर निषादराज प्रेमपूर्वक समझाने लगा-हे नाथ! आप व्यर्थ विषाद किसलिये करते हैं ? श्रीरामचन्द्रजी आपको प्यारे हैं और आप श्रीरामचन्द्रजीको प्यारे हैं। यही निचोड़ (निश्चित सिद्धान्त) है, दोष तो प्रतिकूल विधाताको है॥४॥

छं०-बिधि बाम की करनी कठिन जेहिं मातु कीन्ही बावरी।
तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी॥
तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहतु हौं सौंहें किएँ।
परिनाम मंगल जानि अपने आनिए धीरजु हिएँ।

प्रतिकूल विधाताकी करनी बड़ी कठोर है, जिसने माता कैकेयी को बावली बना दिया (उसकी मति फेर दी)। उस रात को प्रभु श्रीरामचन्द्रजी बार-बार आदरपूर्वक आपकी बड़ी सराहना करते थे। तुलसीदासजी कहते हैं- [निषादराज कहता है कि--] श्रीरामचन्द्रजीको आपके समान अतिशय प्रिय और कोई नहीं है, मैं सौगंध खाकर कहता हूँ। परिणाममें मङ्गल होगा, यह जानकर आप अपने हृदयमें धैर्य धारण कीजिये।

सो०- अंतरजामी रामु सकुच सप्रेम कृपायतन।
चलिअ करिअ बिश्रामु यह बिचारि दृढ़ आनि मन॥२०१॥

श्रीरामचन्द्रजी अन्तर्यामी तथा संकोच, प्रेम और कृपाके धाम हैं, यह विचारकर और मनमें दृढ़ता लाकर चलिये और विश्राम कीजिये॥२०१॥

सखा बचन सुनि उर धरि धीरा।
बास चले सुमिरत रघुबीरा॥
यह सुधि पाइ नगर नर नारी।
चले बिलोकन आरत भारी॥


सखा के वचन सुनकर, हृदयमें धीरज धरकर श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करते हुए भरतजी डेरेको चले। नगरके सारे स्त्री-पुरुष यह(श्रीरामजीके ठहरनेके स्थानका) समाचार पाकर बड़े आतुर होकर उस स्थानको देखने चले ॥१॥

परदखिना करि करहिं प्रनामा।
देहिं कैकइहि खोरि निकामा॥
भरि भरि बारि बिलोचन लेहीं।
बाम बिधातहि दूषन देहीं।


वे उस स्थानकी परिक्रमा करके प्रणाम करते हैं और कैकेयीको बहुत दोष देते हैं। नेत्रोंमें जल भर-भर लेते हैं और प्रतिकूल विधाताको दूषण देते हैं ॥२॥

एक सराहहिं भरत सनेहू।
कोउ कह नृपति निबाहेउ नेहू।
निंदहिं आपु सराहि निषादहि।
को कहि सकइ बिमोह बिषादहि॥

कोई भरतजीके स्नेहकी सराहना करते हैं और कोई कहते हैं कि राजाने अपना प्रेम खूब निबाहा। सब अपनी निन्दा करके निषाद की प्रशंसा करते हैं। उस समय के विमोह और विषाद को कौन कह सकता है?॥३॥

एहि बिधि राति लोगु सबु जागा।
भा भिनुसार गुदारा लागा॥
गुरहि सुनावँ चढ़ाइ सुहाईं।
नई नाव सब मातु चढ़ाईं।


इस प्रकार रातभर सब लोग जागते रहे। सबेरा होते ही खेवा लगा। सुन्दर नावपर गुरुजीको चढ़ाकर फिर नयी नावपर सब माताओंको चढ़ाया॥४॥

दंड चारि महँ भा सबु पारा।
उतरि भरत तब सबहि सँभारा॥
चार घड़ीमें सब गङ्गाजीके पार उतर गये।
तब भरतजीने उतरकर सबको सँभाला॥५॥

प्रातक्रिया करि मातु पद बंदि गुरहि सिरु नाइ।
आगें किए निषाद गन दीन्हेउ कटकु चलाइ॥२०२॥

प्रात:काल की क्रियाओं को करके माताके चरणोंकी वन्दना कर और गुरुजीको सिर नवाकर भरतजीने निषादगणोंको [रास्ता दिखलानेके लिये] आगे कर लिया और सेना चला दी। २०२॥

कियउ निषादनाथु अगुआईं।
मातु पालकी सकल चलाईं।
साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा।
बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा॥


निषादराजको आगे करके पीछे सब माताओंकी पालकियाँ चलायीं। छोटे भाई शत्रुघ्नजीको बुलाकर उनके साथ कर दिया। फिर ब्राह्मणोंसहित गुरुजीने गमन किया॥१॥

आपु सुरसरिहि कीन्ह प्रनामू।
सुमिरे लखन सहित सिय रामू।
गवने भरत पयादेहिं पाए।
कोतल संग जाहिं डोरिआए॥

तदनन्तर आप (भरतजी) ने गङ्गाजीको प्रणाम किया और लक्ष्मणसहित श्रीसीतारामजीका स्मरण किया। भरतजी पैदल ही चले। उनके साथ कोतल (बिना सवारके) घोड़े बागडोरसे बँधे हुए चले जा रहे हैं ॥२॥

कहहिं सुसेवक बारहिं बारा।
होइअ नाथ अस्व असवारा॥
रामु पयादेहि पायँ सिधाए।
हम कहँ रथ गज बाजि बनाए।

उत्तम सेवक बार-बार कहते हैं कि हे नाथ! आप घोडेपर सवार हो लीजिये। [भरतजी जवाब देते हैं कि] श्रीरामचन्द्रजी तो पैदल ही गये और हमारे लिये रथ, हाथी और घोड़े बनाये गये हैं ॥३॥

सिर भर जाउँ उचित अस मोरा।
सब तें सेवक धरमु कठोरा॥
देखि भरत गति सुनि मृदु बानी।
सब सेवक गन गरहिं गलानी॥


मुझे उचित तो ऐसा है कि मैं सिरके बल चलकर जाऊँ। सेवकका धर्म सबसे कठिन होता है। भरतजीकी दशा देखकर और कोमल वाणी सुनकर सब सेवकगण ग्लानिके मारे गले जा रहे हैं ॥४॥

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