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श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

निषाद की शङ्का और सावधानी



सई तीर बसि चले बिहाने।
संगबेरपुर सब निअराने॥
समाचार सब सुने निषादा।
हृदयँ बिचार करइ सबिषादा॥


रातभर सई नदी के तीर पर निवास करके सबेरे वहाँसे चल दिये और सब शृङ्गवेरपुर के समीप जा पहुँचे। निषादराजने सब समाचार सुने, तो वह दुःखी होकर हृदयमें विचार करने लगा- ॥१॥

कारन कवन भरतु बन जाहीं।
है कछु कपट भाउ मन माहीं॥
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई।
तौ कत लीन्ह संग कटकाई॥


क्या कारण है जो भरत वनको जा रहे हैं, मनमें कुछ कपट-भाव अवश्य है। यदि मनमें कुटिलता न होती, तो साथमें सेना क्यों ले चले हैं ॥२॥

जानहिं सानुज रामहि मारी।
करउँ अकंटक राजु सुखारी॥
भरत न राजनीति उर आनी।
तब कलंकु अब जीवन हानी।


समझते हैं कि छोटे भाई लक्ष्मणसहित श्रीरामको मारकर सुखसे निष्कण्टक राज्य करूँगा। भरतने हृदयमें राजनीतिको स्थान नहीं दिया (राजनीतिका विचार नहीं किया)। तब (पहले) तो कलंक ही लगा था, अब तो जीवनसे ही हाथ धोना पड़ेगा ॥३॥

सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा।
रामहि समर न जीतनिहारा॥
का आचरजु भरतु अस करहीं।
नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं।


सम्पूर्ण देवता और दैत्य वीर जुट जायँ, तो भी श्रीरामजी को रणमें जीतनेवाला कोई नहीं है। भरत जो ऐसा कर रहे हैं, इसमें आश्चर्य ही क्या है ? विष की बेलें अमृतफल कभी नहीं फलती!॥४॥

अस बिचारि गुहँ ग्याति सन कहेउ सजग सब होहु।
हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु॥१८९॥


ऐसा विचारकर गुह (निषादराज) ने अपनी जातिवालों से कहा कि सब लोग सावधान हो जाओ। नावों को हाथ में (कब्जेमें) कर लो और फिर उन्हें डुबा दो तथा सब घाटों को रोक दो॥१८९॥

होहु सँजोइल रोकहु घाटा।
ठाटहु सकल मरै के ठाटा।
सनमुख लोह भरत सन लेऊँ।
जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ।


सुसज्जित होकर घाटों को रोक लो और सब लोग मरने के साज सजा लो (अर्थात् भरतसे युद्ध में लड़कर मरनेके लिये तैयार हो जाओ)। मैं भरत से सामने (मैदानमें) लोहा लूँगा (मुठभेड़ करूँगा) और जीते-जी उन्हें गङ्गापार न उतरने दूंगा ॥१॥

समर मरनु पुनि सुरसरि तीरा।
राम काजु छनभंगु सरीरा॥
भरत भाइ नृपु मैं जन नीचू।
बड़ें भाग असि पाइअ मीचू॥

युद्धमें मरण, फिर गङ्गाजीका तट, श्रीरामजीका काम और क्षणभङ्गुर शरीर (जो चाहे जब नाश हो जाय); भरत श्रीरामजीके भाई और राजा (उनके हाथसे मरना) और मैं नीच सेवक-बड़े भाग्यसे ऐसी मृत्यु मिलती है ॥२॥

स्वामि काज करिहउँ रन रारी।
जस धवलिहउँ भुवन दस चारी॥
तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें।
दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें।


मैं स्वामी के काम के लिये रण में लड़ाई करूँगा और चौदहों लोकों को अपने यश से उज्ज्वल कर दूंगा। श्रीरघुनाथजीके निमित्त प्राण त्याग दूंगा। मेरे तो दोनों ही हाथोंमें आनन्द के लड्डू हैं (अर्थात् जीत गया तो रामसेवक का यश प्राप्त करूँगा और मारा गया तो श्रीरामजीकी नित्य सेवा प्राप्त करूँगा)॥३॥

साधु समाज न जाकर लेखा।
राम भगत महुँ जासु न रेखा।
जायँ जिअत जग सो महि भारू।
जननी जौबन बिटप कुठारू॥

साधुओंके समाजमें जिसकी गिनती नहीं और श्रीरामजीके भक्तोंमें जिसका स्थान नहीं, वह जगत्में पृथ्वीका भार होकर व्यर्थ ही जीता है। वह माताके यौवनरूपी वृक्षके काटनेके लिये कुल्हाड़ामात्र है।॥ ४॥

बिगत बिषाद निषादपति सबहि बढ़ाइ उछाहु।
सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु॥१९०॥ [


इस प्रकार श्रीरामजीके लिये प्राणसमर्पणका निश्चय करके] निषादराज विषादसे रहित हो गया और सबका उत्साह बढ़ाकर तथा श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करके उसने तुरंत ही तरकस, धनुष और कवच माँगा ॥ १९० ॥

बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ।
सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ॥
भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा।
एकहिं एक बढ़ावइ करषा।।

[उसने कहा-] हे भाइयो! जल्दी करो और सब सामान सजाओ। मेरी आज्ञा सुनकर कोई मनमें कायरता न लावे। सब हर्षके साथ बोल उठे-हे नाथ! बहुत अच्छा; और आपसमें एक-दूसरेका जोश बढ़ाने लगे॥१॥

चले निषाद जोहारि जोहारी।
सूर सकल रन रूचइ रारी॥
सुमिरि राम पद पंकज पनहीं।
भाथीं बाँधि चढ़ाइन्हि धनहीं।


निषादराजको जोहार कर-करके सब निषाद चले। सभी बड़े शूरवीर हैं और संग्राममें लड़ना उन्हें बहुत अच्छा लगता है। श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंकी जूतियोंका स्मरण करके उन्होंने भाथियाँ (छोटे-छोटे तरकस) बाँधकर धनुहियों (छोटे-छोटे धनुषों) पर प्रत्यञ्चा चढ़ायीं ॥२॥

अँगरी पहिरि कूँड़ि सिर धरहीं।
फरसा बाँस सेल सम करहीं।
एक कुसल अति ओड़न खाँड़े।
कूदहिं गगन मनहुँ छिति छाँड़े।


कवच पहनकर सिरपर लोहेका टोप रखते हैं और फरसे, भाले तथा बरछोंको सीधा कर रहे हैं (सुधार रहे हैं)। कोई तलवारके वार रोकने में अत्यन्त ही कुशल हैं। वे ऐसे उमंगमें भरे हैं मानो धरती छोड़कर आकाशमें कूद (उछल) रहे हों॥३॥

निज निज साजु समाजु बनाई।
गुह राउतहि जोहारे जाई॥
देखि सुभट सब लायक जाने।
लै लै नाम सकल सनमाने॥


अपना-अपना साज-समाज (लड़ाईका सामान और दल) बनाकर उन्होंने जाकर निषादराज गुहको जोहार की। निषादराजने सुन्दर योद्धाओंको देखकर, सबको सुयोग्य जाना और नाम ले-लेकर सबका सम्मान किया ॥४॥

भाइहु लावहु धोख जनि आजु काज बड़ मोहि।
सुनि सरोष बोले सुभट बीर अधीर न होहि ॥१९१॥


[उसने कहा--] हे भाइयो ! धोखा न लाना (अर्थात् मरनेसे न घबराना),आज मेरा बड़ा भारी काम है। यह सुनकर सब योद्धा बड़े जोशके साथ बोल उठे-हे वीर ! अधीर मत हो॥१९१॥

राम प्रताप नाथ बल तोरे।
करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे॥
जीवत पाउ न पाछे धरहीं।
रुंड मुंडमय मेदिनि करहीं।

हे नाथ! श्रीरामचन्द्रजी के प्रताप से और आपके बल से हमलोग भरतकी सेनाको बिना वीर और बिना घोड़े की कर देंगे (एक-एक वीर और एक-एक घोड़ेको मार डालेंगे)। जीते-जी पीछे पाँव न रखेंगे। पृथ्वीको रुण्ड-मुण्डमयी कर देंगे (सिरों और धड़ोंसे छा देंगे) ॥१॥

दीख निषादनाथ भल टोलू।
कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू॥
एतना कहत छींक भइ बाँए।
कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए।

निषादराज ने वीरों का बढ़िया दल देखकर कहा-जुझाऊ (लड़ाईका) ढोल बजाओ। इतना कहते ही बायीं ओर छींक हुई। शकुन विचारने वालों ने कहा कि खेत सुन्दर हैं (जीत होगी)॥२॥

बूढ़ एकु कह सगुन बिचारी।
भरतहि मिलिअ न होइहि रारी॥
रामहि भरतु मनावन जाहीं।
सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं॥

एक बूढ़े ने शकुन विचारकर कहा-भरतसे मिल लीजिये, उनसे लड़ाई नहीं होगी। भरत श्रीरामचन्द्रजी को मनाने जा रहे हैं। शकुन ऐसा कह रहा है कि विरोध नहीं है॥३॥

सुनि गुह कहइ नीक कह बूढ़ा।
सहसा करि पछिताहिं बिमूढ़ा।
भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझें।
बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें।

यह सुनकर निषादराज गुहने कहा-बूढ़ा ठीक कह रहा है। जल्दीमें (बिना विचारे) कोई काम करके मूर्खलोग पछताते हैं। भरतजीका शील-स्वभाव बिना समझे और बिना जाने युद्ध करनेमें हितकी बहुत बड़ी हानि है॥४॥

गहह घाट भट समिटि सब लेउँ मरम मिलि जाइ।
बूझि मित्र अरि मध्य गति तस तब करिहउँ आइ॥१९२॥


अतएव हे वीरो! तुम लोग इकट्ठे होकर सब घाटोंको रोक लो, मैं जाकर भरतजीसे मिलकर उनका भेद लेता हूँ। उनका भाव मित्रका है या शत्रुका या उदासीनका, यह जानकर तब आकर वैसा (उसीके अनुसार) प्रबन्ध करूँगा॥१९२।।

लखब सनेहु सुभायँ सुहाएँ।
बरु प्रीति नहिं दुरइँ दुराएँ।
अस कहि भेंट सँजोवन लागे।
कंद मूल फल खग मृग मागे॥


उनके सुन्दर स्वभाव से मैं उनके स्नेह को पहचान लूँगा। वैर और प्रेम छिपाने से नहीं छिपते। ऐसा कहकर वह भेंट का सामान सजाने लगा। उसने कन्द, मूल, फल, पक्षी और हिरन मँगवाये ॥१॥

मीन पीन पाठीन पुराने।
भरि भरि भार कहारन्ह आने॥
मिलन साजु सजि मिलन सिधाए।
मंगल मूल सगुन सुभ पाए।

कहार लोग पुरानी और मोटी पहिना नामक मछलियोंके भार भर-भरकर लाये। भेटका सामान सजाकर मिलनेके लिये चले तो मङ्गलदायक शुभ-शकुन मिले ॥२॥


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