श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
श्री-भरत-शत्रुघ्न का आगमन और शोक
दो०- पुरजन मिलहिं न कहहिं कछु गर्वहिं जोहारहिं जाहिं।
भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं॥१५८॥
भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं॥१५८॥
नगरके लोग मिलते हैं, पर कुछ कहते नहीं; गौंसे (चुपके-से) जोहार (वन्दना) करके चले जाते हैं। भरतजी भी किसी से कुशल नहीं पूछ सकते, क्योंकि उनके मन में भय और विषाद छा रहा है॥ १५८॥
हाट बाट नहिं जाइ निहारी।
जनु पुर दहँ दिसि लागि दवारी॥
आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि।
हरषी रबिकुल जलरुह चंदिनि॥
जनु पुर दहँ दिसि लागि दवारी॥
आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि।
हरषी रबिकुल जलरुह चंदिनि॥
बाजार और रास्ते देखे नहीं जाते। मानो नगरमें दसों दिशाओंमें दावाग्नि लगी है ! पुत्रको आते सुनकर सूर्यकुलरूपी कमलके लिये चाँदनीरूपी कैकेयी [बड़ी] हर्षित हुई।॥ १॥
सजि आरती मुदित उठि धाई।
द्वारेहिं भेटि भवन लेइ आई।
भरत दुखित परिवार निहारा।
मानहुँ तुहिन बनज बनु मारा॥
द्वारेहिं भेटि भवन लेइ आई।
भरत दुखित परिवार निहारा।
मानहुँ तुहिन बनज बनु मारा॥
वह आरती सजाकर आनन्दमें भरकर उठ दौड़ी और दरवाजेपर ही मिलकर भरत शत्रुघ्नको महलमें ले आयी। भरतने सारे परिवारको दु:खी देखा। मानो कमलोंके वनको पाला मार गया हो॥२॥
कैकेई हरषित एहि भाँती।
मनहुँ मुदित दव लाइ किराती॥
सुतहि ससोच देखि मनु मारें।
पूँछति नैहर कुसल हमारें।
मनहुँ मुदित दव लाइ किराती॥
सुतहि ससोच देखि मनु मारें।
पूँछति नैहर कुसल हमारें।
एक कैकेयी ही इस तरह हर्षित दीखती है मानो भीलनी जंगलमें आग लगाकर आनन्द में भर रही हो। पुत्र को सोचवश और मन मारे (बहुत उदास) देखकर वह पूछने लगी-हमारे नैहर में कुशल तो है?॥३॥
सकल कुसल कहि भरत सुनाई।
पूँछी निज कुल कुसल भलाई॥
कहु कहँ तात कहाँ सब माता।
कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता॥
पूँछी निज कुल कुसल भलाई॥
कहु कहँ तात कहाँ सब माता।
कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता॥
भरतजीने सब कुशल कह सुनायी। फिर अपने कुल की कुशल-क्षेम पूछी। [भरतजीने कहा--] कहो, पिताजी कहाँ हैं ? मेरी सब माताएँ कहाँ हैं ? सीताजी और मेरे प्यारे भाई राम-लक्ष्मण कहाँ हैं ?॥ ४॥
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