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श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

मुनि वसिष्ठ का भरतजी को बुलाने के लिए दूत भेजना



तेल नावं भरि नृप तनु राखा।
दूत बोलाइ बहुरि अस भाषा॥
धावहु बेगि भरत पहिं जाहू।
नृप सुधि कतहुँ कहहु जनि काहू॥


वसिष्ठजीने नावमें तेल भरवाकर राजाके शरीरको उसमें रखवा दिया। फिर दूतोंको बुलवाकर उनसे ऐसा कहा-तुमलोग जल्दी दौड़कर भरतके पास जाओ। राजाकी मृत्युका समाचार कहीं किसीसे न कहना॥१॥

एतनेइ कहेहु भरत सन जाई।
गुर बोलाइ पठयउ दोउ भाई॥
सुनि मुनि आयसु धावन धाए।
चले बेग बर बाजि लजाए।


जाकर भरत से इतनाही कहना कि दोनों भाइयों को गुरुजी ने बुलवा भेजा है। मुनि की आज्ञासुनकर धावन (दूत) दौड़े।वे अपने वेग से उत्तम घोड़ोंको भी लजाते हुए चले॥२॥

अनरथु अवध अरंभेउ जब तें।
कुसगुन होहिं भरत कहुँ तब तें॥
देखहिं राति भयानक सपना।
जागि करहिं कटु कोटि कलपना॥


जबसे अयोध्या में अनर्थ प्रारम्भ हुआ, तभी से भरतजी को अपशकुन होने लगे। वे रातको भयङ्कर स्वप्न देखते थे और जागनेपर [उन स्वप्नोंके कारण] करोड़ों (अनेकों) तरहकी बुरी-बुरी कल्पनाएँ किया करते थे॥३॥

बिप्र जेवाँइ देहि दिन दाना।
सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना॥
मागहिं हृदयँ महेस मनाई।
कुसल मातु पितु परिजन भाई॥


[अनिष्टशान्ति के लिये] वे प्रतिदिन ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान देते थे। अनेकों विधियोंसे रुद्राभिषेक करते थे। महादेवजी को हृदयमें मनाकर उनसे माता-पिता, कुटुम्बी और भाइयोंका कुशल-क्षेम माँगते थे॥४॥

दो०- एहि बिधि सोचत भरत मन धावन पहुँचे आइ।
गुर अनुसासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाइ॥१५७॥

भरतजी इस प्रकार मनमें चिन्ता कर रहे थे कि दूत आ पहुँचे। गुरुजीकी आज्ञा कानोंसे सुनते ही वे गणेशजीको मनाकर चल पड़े॥१५७॥

चले समीर बेग हय हाँके।
नाघत सरित सैल बन बाँके।
हृदयँ सोचु बड़ कछु न सोहाई।
अस जानहिं जियँ जाउँ उड़ाई।


हवाके समान वेगवाले घोड़ोंको हाँकते हुए वे विकट नदी, पहाड़ तथा जंगलोंको लाँघते हुए चले। उनके हृदयमें बड़ा सोच था, कुछ सुहाता न था। मनमें ऐसा सोचते थे कि उड़कर पहुँच जाऊँ॥१॥

एक निमेष बरष सम जाई।
एहि बिधि भरत नगर निअराई॥
असगुन होहिं नगर पैठारा।
रटहिं कुभाँति कुखेत करारा॥


एक-एक निमेष वर्षके समान बीत रहा था। इस प्रकार भरतजी नगरके निकट पहुँचे। नगरमें प्रवेश करते समय अपशकुन होने लगे। कौए बुरी जगह बैठकर बुरी तरहसे काँव-काँव कर रहे हैं॥२॥

खर सिआर बोलहिं प्रतिकूला।
सुनि सुनि होइ भरत मन सूला॥
श्रीहत सर सरिता बन बागा।
नगरु बिसेषि भयावनु लागा॥


गदहे और सियार विपरीत बोल रहे हैं। यह सुन-सुनकर भरत के मन में बड़ी पीड़ा हो रही है। तालाब, नदी, वन, बगीचे सब शोभाहीन हो रहे हैं। नगर बहुत ही भयानक लग रहा है॥३॥

खग मृग हय गय जाहिं न जोए।
राम बियोग कुरोग बिगोए॥
नगर नारि नर निपट दुखारी।
मनहुँ सबन्हि सब संपति हारी।


श्रीरामजी के वियोगरूपी बुरे रोग से सताये हुए पक्षी-पशु, घोड़े-हाथी [ऐसे दुःखी हो रहे हैं कि] देखे नहीं जाते। नगर के स्त्री-पुरुष अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं। मानो सब अपनी सारी सम्पत्ति हार बैठे हों॥४॥

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