श्रीरामचरितमानस अर्थात् तुलसी रामायण बालकाण्ड)
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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में भी मनोहारी कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।
श्रीराम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र का जनकपुर में प्रवेश
हरषे अनुज समेत बिसेषी॥
बापी कूप सरित सर नाना ।
सलिल सुधासम मनि सोपाना॥
श्रीरामजीने जब जनकपुरकी शोभा देखी, तब वे छोटे भाई लक्ष्मणसहित अत्यन्त हर्षित हुए। वहाँ अनेकों बावलियाँ, कुएँ, नदी और तालाब हैं, जिनमें अमृतके समान जल है और मणियोंकी सीढ़ियाँ [बनी हुई हैं ॥३॥
कूजत कल बहुबरन बिहंगा॥
बरन बरन बिकसे बनजाता ।
त्रिविध समीर सदा सुखदाता॥
मकरन्द-रससे मतवाले होकर भौरे सुन्दर गुंजार कर रहे हैं। रंग-बिरंगे [बहुत से] पक्षी मधुर शब्द कर रहे हैं। रंग-रंगके कमल खिले हैं। सदा (सब ऋतुओंमें) सुख देनेवाला शीतल, मन्द. सुगन्ध पवन बह रहा है।॥ ४॥
फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥२१२॥
पुष्पवाटिका (फुलवारी), बाग और वन, जिनमें बहुत-से पक्षियोंका निवास है, फूलते, फलते और सुन्दर पत्तोंसे लदे हुए नगरके चारों ओर सुशोभित हैं ॥ २१२ ॥
जहाँ जाइ मन तहई लोभाई॥
चारु बजारु बिचित्र अंबारी ।
मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥
नगरकी सुन्दरताका वर्णन करते नहीं बनता। मन जहाँ जाता है; वहीं लुभा जाता (रम जाता) है। सुन्दर बाजार है, मणियोंसे बने हुए विचित्र छज्जे हैं, मानो ब्रह्माने उन्हें अपने हाथोंसे बनाया है।॥१॥
बैठे सकल बस्तु लै नाना॥
चौहट सुंदर गली सुहाई।
संतत रहहिं सुगंध सिंचाई।
कुबेरके समान श्रेष्ठ धनी व्यापारी सब प्रकारकी अनेक वस्तुएँ लेकर [दूकानोंमें] बैठे हैं । सुन्दर चौराहे और सुहावनी गलियाँ सदा सुगन्धसे सिंची रहती हैं ॥२ ।।
चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें॥
पुर नर नारि सुभग सुचि संता ।
धरमसील ग्यानी गुनवंता॥
सबके घर मङ्गलमय हैं और उनपर चित्र कढ़े हुए हैं, जिन्हें मानो कामदेवरूपी चित्रकारने अंकित किया है। नगरके [सभी] स्त्री-पुरुष सुन्दर, पवित्र, साधु स्वभाववाले, धर्मात्मा, ज्ञानी और गुणवान् हैं ॥३॥
बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥
होत चकित चित कोट बिलोकी ।
सकल भुवन सोभा जनु रोकी।
जहाँ जनकजीका अत्यन्त अनुपम (सुन्दर) निवासस्थान (महल) है, वहाँके विलास (ऐश्वर्य)को देखकर देवता भी थकित (स्तम्भित) हो जाते हैं [मनुष्योंकी तो बात ही क्या!] । कोट (राजमहलके परकोटे) को देखकर चित्त चकित हो जाता है, [ऐसा मालूम होता है] मानो उसने समस्त लोकोंकी शोभाको रोक (घेर) रखा है॥४॥
सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति॥२१३॥
उज्ज्वल महलोंमें अनेक प्रकारके सुन्दर रीतिसे बने हुए मणिजटित सोनेकी जरीके परदे लगे हैं। सीताजीके रहनेके सुन्दर महलकी शोभाका वर्णन किया ही कैसे जा सकता है।। २१३ ॥
भूप भीर नट मागध भाटा॥
बनी बिसाल बाजि गज साला ।
हय गय रथ संकुल सब काला॥
राजमहलके सब दरवाजे (फाटक) सुन्दर हैं, जिनमें वज्रके (मजबूत अथवा हीरोंके चमकते हुए) किवाड़ लगे हैं। वहाँ [मातहत] राजाओं, नटों, मागधों और भाटोंकी भीड़ लगी रहती है। घोड़ों और हाथियोंके लिये बहुत बड़ी-बड़ी घुड़शालें और गजशालाएँ (फीलखाने) बनी हुई हैं; जो सब समय घोड़े, हाथी और रथोंसे भरी रहती हैं ॥१॥
नृपगृह सरिस सदन सब केरे॥
पुर बाहेर सर सरित समीपा ।
उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा॥
बहुत-से शूरवीर, मन्त्री और सेनापति हैं। उन सबके घर भी राजमहल-सरीखे ही हैं। नगरके बाहर तालाब और नदीके निकट जहाँ-तहाँ बहुत-से राजालोग उतरे हुए (डेरा डाले हुए) हैं ॥ २ ॥
सब सुपास सब भाँति सुहाई॥
कौसिक कहेउ मोर मनु माना ।
इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना॥
[वहीं] आमोंका एक अनुपम बाग देखकर, जहाँ सब प्रकारके सुभीते थे और जो सब तरहसे सुहावना था, विश्वामित्रजीने कहा-हे सुजान रघुवीर! मेरा मन कहता है कि यहीं रहा जाय ॥३॥
उतरे तहँ मुनिबंद समेता॥
बिस्वामित्र महामुनि आए ।
समाचार मिथिलापति पाए।
कृपाके धाम श्रीरामचन्द्रजी 'बहुत अच्छा स्वामिन् !' कहकर वहीं मुनियोंके समूहके साथ ठहर गये। मिथिलापति जनकजीने जब यह समाचार पाया कि महामुनि विश्वामित्र आये हैं, ॥४॥
चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति॥२१४॥
तब उन्होंने पवित्र हृदयके (ईमानदार, स्वामिभक्त) मन्त्री, बहुत-से योद्धा, श्रेष्ठ ब्राह्मण, गुरु (शतानन्दजी) और अपनी जातिके श्रेष्ठ लोगोंको साथ लिया और इस प्रकार प्रसन्नताके साथ राजा मुनियोंके स्वामी विश्वामित्रजीसे मिलने चले ॥२१४ ।।
दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥
बिप्रबंद सब सादर बंदे ।
जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥
राजाने मुनिके चरणोंपर मस्तक रखकर प्रणाम किया। मुनियोंके स्वामी विश्वामित्रजीने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया। फिर सारी ब्राह्मणमण्डलीको आदरसहित प्रणाम किया और अपना बड़ा भाग्य जानकर राजा आनन्दित हुए॥१॥
बिस्वामित्र नृपहि बैठारा॥
तेहि अवसर आए दोउ भाई ।
गए रहे देखन फुलवाई॥
बार-बार कुशलप्रश्न करके विश्वामित्रजीने राजाको बैठाया। उसी समय दोनों भाई आ पहुँचे, जो फुलवाड़ी देखने गये थे॥२॥
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