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श्रीरामचरितमानस अर्थात् तुलसी रामायण बालकाण्ड)

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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में भी मनोहारी कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।


अहल्या-उद्धार



छं०- परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही।
अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥


श्रीरामजीके पवित्र और शोकको नाश करनेवाले चरणोंका स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गयी। भक्तोंको सुख देनेवाले श्रीरघुनाथजीको देखकर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी रह गयी। अत्यन्त प्रेमके कारण वह अधीर हो गयी। उसका शरीर पुलकित हो उठा; मुखसे वचन कहने में नहीं आते थे। वह अत्यन्त बड़भागिनी अहल्या प्रभुके चरणोंसे लिपट गयी और उसके दोनों नेत्रोंसे जल (प्रेम और आनन्दके आँसुओं) की धारा बहने लगी॥१॥

धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई।
अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई॥
मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सखदाई।
राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई।


फिर उसने मनमें धीरज धरकर प्रभुको पहचाना और श्रीरघुनाथजीकी कृपासे भक्ति प्राप्त की। तब अत्यन्त निर्मल वाणीसे उसने [इस प्रकार] स्तुति प्रारम्भ की-हे ज्ञानसे जानने योग्य श्रीरघुनाथजी! आपकी जय हो! मैं [सहज ही] अपवित्र स्त्री हूँ; और हे प्रभो! आप जगतको पवित्र करनेवाले, भक्तोंको सुख देनेवाले और रावणके शत्रु हैं। हे कमलनयन! हे संसार(जन्म-मृत्यु) के भयसे छुड़ानेवाले! मैं आपकी शरण आयी हूँ, [मेरी] रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥२॥

मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।
देखेउँ भरिलोचन हरि भव मोचन इहइ लाभ संकर जाना॥
बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।
पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥

मुनिने जो मुझे शाप दिया, सो बहुत ही अच्छा किया। मैं उसे अत्यन्त अनुग्रह [करके] मानती हूँ कि जिसके कारण मैंने संसारसे छुड़ानेवाले श्रीहरि (आप) को नेत्र भरकर देखा। इसी (आपके दर्शन) को शंकरजी सबसे बड़ा लाभ समझते हैं। हे प्रभो ! मैं बुद्धिकी बड़ी भोली हूँ, मेरी एक विनती है। हे नाथ! मैं और कोई वर नहीं माँगती, केवल यही चाहती हूँ कि मेरा मनरूपी भौरा आपके चरणकमलको रजके प्रेमरूपी रसका सदा पान करता रहे ॥३॥

जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।
सोई पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पति लोक अनंद भरी॥


जिन चरणोंसे परमपवित्र देवनदी गङ्गाजी प्रकट हुईं, जिन्हें शिवजीने सिरपर धारण किया और जिन चरणकमलोंको ब्रह्माजी पूजते हैं, कृपालु हरि (आप) ने उन्हींको मेरे सिरपर रखा। इस प्रकार [स्तुति करती हुई] बार-बार भगवानके चरणोंमें गिरकर, जो मनको बहुत ही अच्छा लगा, उस वरको पाकर गौतमकी स्त्री अहल्या आनन्दमें भरी हुई पतिलोकको चली गयी॥४॥

दो०- अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल।
तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल ॥२११॥

प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ऐसे दीनबन्धु और बिना ही कारण दया करनेवाले हैं। तुलसीदासजी कहते हैं, हे शठ [मन] ! तू कपट-जंजाल छोड़कर उन्हींका भजन कर॥ २११ ।।

मासपारायण, सातवाँ विश्राम

चले राम लछिमन मुनि संगा ।
गए जहाँ जग पावनि गंगा॥
गाधिसूनु सब कथा सुनाई।
जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥


श्रीरामजी और लक्ष्मणजी मुनिके साथ चले। वे वहाँ गये, जहाँ जगतको पवित्र करनेवाली गङ्गाजी थीं। महाराज गाधिके पुत्र विश्वामित्रजीने वह सब कथा कह सुनायी जिस प्रकार देवनदी गङ्गाजी पृथ्वीपर आयी थीं॥१॥

तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए ।
बिबिध दान महिदेवन्हि पाए॥
हरषि चले मुनि बृंद सहाया।
बेगि बिदेह नगर निअराया।

तब प्रभुने ऋषियोंसहित [गङ्गाजीमें] स्नान किया। ब्राह्मणोंने भाँति-भाँतिके दान पाये। फिर मुनिवृन्दके साथ वे प्रसन्न होकर चले और शीघ्र ही जनकपुरके निकट पहुँच गये॥२॥

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