श्रीरामचरितमानस अर्थात् तुलसी रामायण बालकाण्ड)
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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में भी मनोहारी कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।
श्री भगवान का प्राकट्य और बाललीला का आनन्द
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥१९०॥
योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि सभी अनुकूल हो गये। जड और चेतन सब हर्षसे भर गये। [क्योंकि] श्रीरामका जन्म सुखका मूल है ॥ १९०॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा । पावन काल लोक बिश्रामा॥
पवित्र चैत्रका महीना था, नवमी तिथि थी। शुक्लपक्ष और भगवानका प्रिय अभिजित् मुहूर्त था। दोपहरका समय था। न बहुत सरदी थी, न धूप (गरमी) थी। वह पवित्र समय सब लोकोंको शान्ति देनेवाला था॥१॥
हरषित सुर संतन मन चाऊ॥
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा ।
स्त्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥
शीतल, मन्द और सुगन्धित पवन बह रहा था। देवता हर्षित थे और संतोंके मनमें [बड़ा] चाव था। वन फूले हुए थे, पर्वतोंके समूह मणियोंसे जगमगा रहे थे और सारी नदियाँ अमृतकी धारा बहा रही थीं ॥२॥
चले सकल सुर साजि बिमाना॥
गगन बिमल संकुल सुर जूथा ।
गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा।
जब ब्रह्माजीने वह (भगवानके प्रकट होनेका) अवसर जाना तब [उनके समेत] सारे देवता विमान सजा-सजाकर चले। निर्मल आकाश देवताओंके समूहोंसे भर गया। गन्धर्वोके दल गुणोंका गान करने लगे॥३॥
गहगहि गगन दुंदुभी बाजी॥
अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा ।
बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा।
और सुन्दर अञ्जलियोंमें सजा-सजाकर पुष्प बरसाने लगे। आकाशमें घमाघम नगाड़े बजने लगे। नाग. मुनि और देवता स्तुति करने लगे और बहुत प्रकारसे अपनी अपनी सेवा (उपहार) भेंट करने लगे।।४।।
जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम ॥१९१॥
देवताओं के समूह विनती करके अपने-अपने लोकमें जा पहुंचे। समस्त लोकोंको शान्ति देनेवाले, जगदाधार प्रभु प्रकट हुए ॥ १९१ ॥
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥
दीनोंपर दया करनेवाले, कौसल्याजीके हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट हुए। मुनियोंके मनको हरनेवाले उनके अद्भुत रूपका विचार करके माता हर्षसे भर गयी। नेत्रोंको आनन्द देनेवाला मेघके समान श्यामशरीर था; चारों भुजाओंमें अपने (खास) आयुध [धारण किये हुए] थे; [दिव्य] आभूषण और वनमाला पहने थे; बड़े-बड़े नेत्र थे। इस प्रकार शोभाके समुद्र तथा खर राक्षसको मारनेवाले भगवान प्रकट हुए॥१॥
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता॥
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता॥
दोनों हाथ जोड़कर माता कहने लगी-हे अनन्त ! मैं किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करूँ। वेद और पुराण तुमको माया, गुण और ज्ञानसे परे और परिमाणरहित बतलाते हैं। श्रुतियाँ और संतजन दया और सुखका समुद्र, सब गुणोंका धाम कहकर जिनका गान करते हैं, वही भक्तोंपर प्रेम करनेवाले लक्ष्मीपति भगवान मेरे कल्याणके लिये प्रकट हुए हैं ॥ २ ॥
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै॥
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै।
वेद कहते हैं कि तुम्हारे प्रत्येक रोममें मायाके रचे हुए अनेकों ब्रह्माण्डोंके समूह [भरे] हैं। वे तुम मेरे गर्भमें रहे-इस हँसीकी बातके सुननेपर धीर (विवेकी) पुरुषोंकी बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती (विचलित हो जाती है)। जब माताको ज्ञान उत्पन्न हुआ, तब प्रभु मुसकराये। वे बहुत प्रकारके चरित्र करना चाहते हैं। अत: उन्होंने [पूर्वजन्मकी] सुन्दर कथा कहकर माताको समझाया, जिससे उन्हें पुत्रका (वात्सल्य) प्रेम प्राप्त हो (भगवानके प्रति पुत्रभाव हो जाय) ॥३॥
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥
माताकी वह बुद्धि बदल गयी, तब वह फिर बोली-हे तात! यह रूप छोड़कर अत्यन्त प्रिय बाललीला करो, [मेरे लिये] यह सुख परम अनुपम होगा। [माताका] यह वचन सुनकर देवताओंके स्वामी सुजान भगवानने बालक [रूप] होकर रोना शुरू कर दिया। [तुलसीदासजी कहते हैं-] जो इस चरित्रका गान करते हैं, वे श्रीहरिका पद पाते हैं और [फिर] संसाररूपी कूपमें नहीं गिरते ॥४॥
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ॥१९२।।
ब्राह्मण, गौ, देवता और संतोंके लिये भगवानने मनुष्यका अवतार लिया। वे [अज्ञानमयी, मलिना] माया और उसके गुण (सत्, रज, तम) और [बाहरी तथा भीतरी] इन्द्रियोंसे परे हैं। उनका [दिव्य] शरीर अपनी इच्छासे ही बना है [किसी कर्मबन्धनसे परवश होकर त्रिगुणात्मक भौतिक पदार्थोके द्वारा नहीं] ॥ १९२ ॥
संभ्रम चलि आईं सब रानी॥
हरषित जहँ तहँ धाईं दासी ।
आनँद मगन सकल पुरबासी॥
बच्चेके रोनेकी बहुत ही प्यारी ध्वनि सुनकर सब रानियाँ उतावली होकर दौड़ी चली आयीं। दासियाँ हर्षित होकर जहाँ-तहाँ दौड़ी। सारे पुरवासी आनन्दमें मग्न हो गये॥१॥
मानहुँ ब्रह्मानंद समाना॥
परम प्रेम मन पुलक सरीरा ।
चाहत उठन करत मति धीरा॥
राजा दशरथजी पुत्रका जन्म कानोंसे सुनकर मानो ब्रह्मानन्दमें समा गये। मनमें अतिशय प्रेम है, शरीर पुलकित हो गया। [आनन्दमें अधीर हुई] बुद्धिको धीरज देकर [और प्रेममें शिथिल हुए शरीरको सँभालकर] वे उठना चाहते हैं ॥२॥
मोरें गृह आवा प्रभु सोई॥
परमानंद पूरि मन राजा ।
कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥
जिनका नाम सुननेसे ही कल्याण होता है, वही प्रभु मेरे घर आये हैं। [यह सोचकर] राजाका मन परम आनन्दसे पूर्ण हो गया। उन्होंने बाजेवालोंको बुलाकर कहा कि बाजा बजाओ॥३॥
आए द्विजन सहित नृपद्वारा॥
अनुपम बालक देखेन्हि जाई ।
रूप रासि गुन कहि न सिराई॥
गुरु वसिष्ठजीके पास बुलावा गया। वे ब्राह्मणोंको साथ लिये राजद्वारपर आये। उन्होंने जाकर अनुपम बालकको देखा. जो रूपकी राशि है और जिसके गुण कहनेसे समाप्त नहीं होते ॥ ४॥
हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह ॥१९३॥
फिर राजाने नान्दीमुख श्राद्ध करके सब जातकर्म-संस्कार आदि किये और ब्राह्मणोंको सोना. गौ, वस्त्र और मणियोंका दान दिया ॥ १९३॥
कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा॥
सुमनबृष्टि अकास तें होई ।
ब्रह्मानंद मगन सब लोई ।।
ध्वजा, पताका और तोरणोंसे नगर छा गया। जिस प्रकारसे वह सजाया गया, उसका तो वर्णन ही नहीं हो सकता। आकाशसे फूलोंकी वर्षा हो रही है, सब लोग ब्रह्मानन्दमें मग्न हैं॥१॥
सहज सिंगार किएँ उठि धाईं।
कनक कलस मंगल भरि थारा । ग
ावत पैठहिं भूप दुआरा॥
स्त्रियाँ झुंड-की-झुंड मिलकर चली । स्वाभाविक श्रृंगार किये ही वे उठ दौड़ी।सोनेका कलश लेकर और थालोंमें मङ्गल द्रव्य भरकर गाती हुई राजद्वारमें प्रवेश करती हैं ।। २ ।।
बार बार सिसु चरनन्हि परहीं।
मागध सूत बंदिगन गायक ।
पावन गुन गावहिं रघुनायक॥
वे आरती करके निछावर करती हैं और बार-बार बच्चेके चरणोंपर गिरती हैं। मागध, सूत, वन्दीजन और गवैये रघुकुलके स्वामीके पवित्र गुणोंका गान करते हैं॥३॥
जेहिं पावा राखा नहिं ताहू॥
मृगमद चंदन कुंकुम कीचा ।
मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा॥
राजाने सब किसीको भरपूर दान दिया। जिसने पाया उसने भी नहीं रखा (लुटा दिया)। [नगरकी] सभी गलियोंके बीच-बीचमें कस्तूरी, चन्दन और केसरकी कीच मच गयी॥४॥
हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बूंद॥१९४॥
घर-घर मङ्गलमय बधावा बजने लगा, क्योंकि शोभाके मूल भगवान प्रकट हुए हैं। नगरके स्त्री-पुरुषोंके झुंड-के-झुंड जहाँ-तहाँ आनन्दमग्न हो रहे हैं। १९४ ।।
सुंदर सुत जनमत मैं ओऊ॥
वह सुख संपति समय समाजा ।
कहि न सकइ सारद अहिराजा।।
कैकेयी और सुमित्रा-इन दोनोंने भी सुन्दर पुत्रोंको जन्म दिया। उस सुख. सम्पत्ति, समय और समाजका वर्णन सरस्वती और सर्पों के राजा शेषजी भी नहीं कर सकते॥१॥
प्रभुहि मिलन आई जनु राती॥
देखि भानु जनु मन सकुचानी ।
तदपि बनी संध्या अनुमानी।
अवधपुरी इस प्रकार सुशोभित हो रही है, मानो रात्रि प्रभुसे मिलने आयी हो और सूर्यको देखकर मानो मनमें सकुचा गयी हो, परन्तु फिर भी मनमें विचारकर वह मानो सन्ध्या बन [कर रह] गयी हो॥२॥
उड़इ अबीर मनहुँ अरुनारी॥
मंदिर मनि समूह जनु तारा ।
नृप गृह कलस सो इंदु उदारा॥
अगरकी धूपका बहुत-सा धुआँ मानो [सन्ध्याका] अन्धकार है और जो अबीर उड़ रहा है, वह उसकी ललाई है। महलोंमें जो मणियोंके समूह हैं, वे मानो तारागण हैं। राजमहलका जो कलश है, वही मानो श्रेष्ठ चन्द्रमा है ॥३॥
जनु खग मुखर समयँ जनु सानी॥
कौतुक देखि पतंग भुलाना ।
एक मास तेइँ जात न जाना।
राजभवनमें जो अति कोमल वाणीसे वेदध्वनि हो रही है, वही मानो समयसे(समयानुकूल) सनी हुई पक्षियोंकी चहचहाहट है। यह कौतुक देखकर सूर्य भी [अपनी चाल] भूल गये। एक महीना उन्होंने जाता हुआ न जाना (अर्थात् उन्हें एक महीना वहीं बीत गया) ॥४॥
रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥१९५॥
महीनेभरका दिन हो गया। इस रहस्यको कोई नहीं जानता। सूर्य अपने रथसहित वहीं रुक गये, फिर रात किस तरह होती ॥ १९५॥
दिनमनि चले करत गुनगाना॥
देखि महोत्सव सुर मुनि नागा ।
चले भवन बरनत निज भागा॥
यह रहस्य किसीने नहीं जाना । सूर्यदेव [भगवान श्रीरामजीका] गुणगान करते हुए चले। यह महोत्सव देखकर देवता, मुनि और नाग अपने भाग्यकी सराहना करते हुए अपने-अपने घर चले॥१॥
सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी॥
काकभुसुंडि संग हम दोऊ ।
मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ॥
हे पार्वती! तुम्हारी बुद्धि [श्रीरामजीके चरणोंमें] बहुत दृढ़ है, इसलिये मैं और भी अपनी एक चोरी (छिपाव) की बात कहता हूँ, सुनो। काकभुशुण्डि और मैं दोनों वहाँ साथ-साथ थे, परन्तु मनुष्यरूपमें होनेके कारण हमें कोई जान न सका ॥२॥
बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले।
यह सुभ चरित जान पै सोई।
कृपा राम के जापर होई॥
परम आनन्द और प्रेमके सुखमें फूले हुए हम दोनों मगन मनसे (मस्त हुए) गलियोंमें [तन-मनकी सुधि] भूले हुए फिरते थे। परन्तु यह शुभ चरित्र वही जान सकता है, जिसपर श्रीरामजीकी कृपा हो॥३॥
दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा॥
गज रथ तुरग हेम गो हीरा ।
दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा॥
उस अवसरपर जो जिस प्रकार आया और जिसके मनको जो अच्छा लगा, राजाने उसे वही दिया। हाथी, रथ, घोड़े, सोना, गौएँ, हीरे और भाँति-भाँतिके वस्त्र राजाने दिये॥४॥
दो०- मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहिं असीस।
सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस॥१९६॥
राजाने सबके मनको सन्तुष्ट किया। [इसीसे] सब लोग जहाँ-तहाँ आशीर्वाद दे रहे थे कि तुलसीदासके स्वामी सब पुत्र (चारों राजकुमार) चिरजीवी (दीर्घायु) हों॥ १९६ ॥
नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥
इस प्रकार कुछ दिन बीत गये। दिन और रात जाते हुए जान नहीं पड़ते। तब नामकरण-संस्कारका समय जानकर राजाने ज्ञानी मुनि श्रीवसिष्ठजीको बुला भेजा ॥१॥
धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा॥
इन्ह के नाम अनेक अनूपा ।
मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा॥
मुनिकी पूजा करके राजाने कहा-हे मुनि! आपने मनमें जो विचार रखे हों, वे नाम रखिये। [मुनिने कहा-] हे राजन्! इनके अनेक अनुपम नाम हैं, फिर भी मैं अपनी बुद्धिके अनुसार कहूँगा ॥ २ ॥
सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥
सो सुखधाम राम अस नामा।
अखिल लोक दायक बिश्रामा॥
ये जो आनन्दके समुद्र और सुखकी राशि हैं, जिस (आनन्दसिन्धु) के एक कणसे तीनों लोक सुखी होते हैं, उन (आपके सबसे बड़े पुत्र) का नाम 'राम' है, जो सुखका भवन और सम्पूर्ण लोकोंको शान्ति देनेवाला है ॥ ३ ॥
ताकर नाम भरत अस होई॥
जाके सुमिरन तें रिपु नासा ।
नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥
जो संसारका भरण-पोषण करते हैं, उन (आपके दूसरे पत्र) का नाम 'भरत' होगा। जिनके स्मरणमात्रसे शत्रुका नाश होता है, उनका वेदोंमें प्रसिद्ध 'शत्रुघ्न' नाम है ॥ ४ ॥
गुरु बसिष्ट तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥१९७॥
जो शुभ लक्षणोंके धाम, श्रीरामजीके प्यारे और सारे जगतके आधार हैं, गुरु वसिष्ठजीने उनका ‘लक्ष्मण' ऐसा श्रेष्ठ नाम रखा ॥ १९७॥
बेद तत्व नृप तव सुत चारी।
मुनि धन जन सरबस सिव प्राना ।
बाल केलि रस तेहिं सुख माना।
गुरुजीने हृदयमें विचारकर ये नाम रखे [और कहा-] हे राजन् ! तुम्हारे चारों पुत्र वेदके तत्त्व (साक्षात् परात्पर भगवान) हैं। जो मुनियोंके धन, भक्तोंके सर्वस्व और शिवजीके प्राण हैं, उन्होंने [इस समय तुम लोगोंके प्रेमवश] बाललीलाके रसमें सुख माना है।१॥
लछिमन राम चरन रति मानी॥
भरत सत्रुहन दूनउ भाई ।
प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई।
बचपनसे ही श्रीरामचन्द्रजीको अपना परम हितैषी स्वामी जानकर लक्ष्मणजीने उनके चरणों में प्रीति जोड़ ली। भरत और शत्रुघ्न दोनों भाइयोंमें स्वामी और सेवककी जिस प्रीतिकी प्रशंसा है वैसी प्रीति हो गयी ॥२॥
निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी॥
चारिउ सील रूप गुन धामा ।
तदपि अधिक सुखसागर रामा॥
श्याम और गौर शरीरवाली दोनों सुन्दर जोड़ियोंकी शोभाको देखकर माताएँ तृण तोड़ती हैं [जिसमें दीठ न लग जाय] । यों तो चारों ही पुत्र शील, रूप और गुणके धाम हैं, तो भी सुखके समुद्र श्रीरामचन्द्रजी सबसे अधिक हैं ॥३॥
सूचत किरन मनोहर हासा॥
कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना ।
मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना॥
उनके हृदयमें कृपारूपी चन्द्रमा प्रकाशित है। उनकी मनको हरनेवाली हँसी उस (कृपारूपी चन्द्रमा) की किरणोंको सूचित करती है। कभी गोदमें [लेकर] और कभी उत्तम पालने में [लिटाकर] माता 'प्यारे ललना!' कहकर दुलार करती है॥४॥
सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या कें गोद ॥१९८॥
जो सर्वव्यापक, निरञ्जन (मायारहित), निर्गुण, विनोदरहित और अजन्मा
ब्रह्म हैं, वही प्रेम और भक्तिके वश कौसल्याजीकी गोदमें [खेल रहे ] हैं ।।
१९८॥
नील कंज बारिद गंभीरा॥
अरुन चरन पंकज नख जोती।
कमल दलन्हि बैठे जनु मोती॥
उनके नील कमल और गम्भीर (जलसे भरे हुए) मेघके समान श्याम शरीरमें करोड़ों कामदेवोंकी शोभा है। लाल-लाल चरणकमलोंके नखोकी [शुभ्र] ज्योति ऐसी मालूम होती है जैसे [लाल] कमलके पत्तोंपर मोती स्थिर हो गये हों॥१॥
नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे।
कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा ।
नाभि गभीर जान जेहिं देखा।
[चरणतलोंमें] वज्र, ध्वजा और अङ्कशके चिह्न शोभित हैं। नूपुर (पैंजनी) की ध्वनि सुनकर मुनियोंका भी मन मोहित हो जाता है। कमरमें करधनी और पेटपर तीन रेखाएँ (त्रिवली) हैं। नाभिकी गम्भीरताको तो वही जानते हैं जिन्होंने उसे देखा है ॥२॥
हियँ हरि नख अति सोभा रूरी॥
उर मनिहार पदिक की सोभा ।
बिप्र चरन देखत मन लोभा॥
बहुत-से आभूषणोंसे सुशोभित विशाल भुजाएँ हैं। हृदयपर बाघके नखकी बहुत ही निराली छटा है। छातीपर रत्नोंसे युक्त मणियोंके हारकी शोभा और ब्राह्मण (भृगु) के चरणचिह्नको देखते ही मन लुभा जाता है ॥३॥
आनन अमित मदन छबि छाई॥
दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे ।
नासा तिलक को बरनै पारे।
कण्ठ शङ्खके समान (उतार-चढ़ाववाला, तीन रेखाओंसे सुशोभित) है और ठोड़ी बहुत ही सुन्दर है। मुखपर असंख्य कामदेवोंकी छटा छा रही है। दो-दो सुन्दर दंतुलियाँ हैं, लाल-लाल ओठ हैं। नासिका और तिलक [के सौन्दर्य] का तो वर्णन ही कौन कर सकता है ।।४।।
अति प्रिय मधुर तोतरे बोला।
चिक्कन कच कुंचित गभुआरे ।
बहु प्रकार रचि मातु सँवारे॥
जानु पानि बिचरनि मोहि भाई॥
रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा ।
सो जानइ सपनेहुँ जेहिं देखा।
शरीरपर पीली अँगुली पहनायी हुई है। उनका घुटनों और हाथोंके बल चलना मुझे बहुत ही प्यारा लगता है। उनके रूपका वर्णन वेद और शेषजी भी नहीं कर सकते। उसे वही जानता है जिसने कभी स्वप्नमें भी देखा हो॥६॥
दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत॥१९९॥
जो सुखके पुञ्ज, मोहसे परे तथा ज्ञान, वाणी और इन्द्रियोंसे अतीत हैं, वे भगवान दशरथ-कौसल्याके अत्यन्त प्रेमके वश होकर पवित्र बाललीला करते हैं ।। १९९ ॥
कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता।
जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी ।
तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी।।
इस प्रकार [सम्पूर्ण] जगतके माता-पिता श्रीरामजी अवधपुरके निवासियोंको सुख देते हैं। जिन्होंने श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें प्रीति जोड़ी है, हे भवानी ! उनकी यह प्रत्यक्ष गति है [कि भगवान उनके प्रेमवश बाललीला करके उन्हें आनन्द दे रहे हैं] ॥१॥
कवन सकइ भव बंधन छोरी॥
जीव चराचर बस के राखे ।
सो माया प्रभु सों भय भाखे।
श्रीरघुनाथजीसे विमुख रहकर मनुष्य चाहे करोड़ों उपाय करे, परन्तु उसका संसारबन्धन कौन छुड़ा सकता है। जिसने सब चराचर जीवोंको अपने वशमें कर रखा है, वह माया भी प्रभुसे भय खाती है ॥ २ ॥
अस प्रभु छाड़ि भजिअ कह काही॥
मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई ।
भजत कृपा करिहहिं रघुराई।
भगवान उस मायाको भौंहके इशारेपर नचाते हैं। ऐसे प्रभुको छोड़कर कहो, [और] किसका भजन किया जाय । मन, वचन और कर्मसे चतुराई छोड़कर भजते ही श्रीरघुनाथजी कृपा करेंगे॥३॥
सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा॥
लै उछंग कबहुँक हलरावै ।
कबहुँ पालने घालि झुलावै॥
इस प्रकारसे प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने बालक्रीड़ा की और समस्त नगरनिवासियोंको सुख दिया। कौसल्याजी कभी उन्हें गोदमें लेकर हिलाती-डुलाती और कभी पालनेमें लिटाकर झुलाती थीं॥ ४॥
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान॥२००॥
प्रेममें मग्न कौसल्याजी रात और दिनका बीतना नहीं जानती थीं। पुत्रके स्नेहवश माता उनके बालचरित्रोंका गान किया करती ।। २००॥
करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए।
निज कुल इष्टदेव भगवाना।
पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना ॥
एक बार माताने श्रीरामचन्द्रजीको स्नान कराया और श्रृंगार करके पालनेपर पौढ़ा दिया। फिर अपने कुलके इष्टदेव भगवानकी पूजाके लिये स्नान किया॥१॥
आपु गई जहँ पाक बनावा।।
बहुरि मातु तहवाँ चलि आई।
भोजन करत देख सुत जाई॥
देखा बाल तहाँ पुनि सूता॥
बहुरि आइ देखा सुत सोई ।
हृदयँ कंप मन धीर न होई॥
माता भयभीत होकर (पालनेमें सोया था, यहाँ किसने लाकर बैठा दिया, इस बातसे डरकर) पुत्रके पास गयी. तो वहाँ बालकको सोया हुआ देखा। फिर [पूजा स्थानमें लौटकर देखा कि वही पुत्र वहाँ [भोजन कर रहा है। उनके हृदयमें कम्प होने लगा और मनको धीरज नहीं होता ॥३॥
इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा ।
मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा॥
देखि राम जननी अकुलानी।
प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी।।
रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रांड॥२०१॥
फिर उन्होंने माताको अपना अखण्ड अद्भुत रूप दिखलाया, जिसके एक-एक रोममें करोड़ों ब्रह्माण्ड लगे हुए हैं । २०१॥
बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन॥
काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ ।
सोउ देखा जो सुना न काऊ।
अगणित सूर्य, चन्द्रमा, शिव, ब्रह्मा, बहुत-से पर्वत,नदियाँ, समुद्र, पृथ्वी, वन, काल, कर्म, गुण, ज्ञान और स्वभाव देखे। और वे पदार्थ भी देखे जो कभी सुने भी न थे॥१॥
अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी।
देखा जीव नचावइ जाही।
देखी भगति जो छोरइ ताही॥
सब प्रकारसे बलवती मायाको देखा कि वह [भगवानके सामने] अत्यन्त भयभीत हाथ जोड़े खड़ी है। जीवको देखा, जिसे वह माया नचाती है और [फिर] भक्तिको देखा, जो उस जीवको [मायासे] छुड़ा देती है ॥२॥
नयन मूदि चरननि सिरु नावा॥
बिसमयवंत देखि महतारी ।
भए बहुरि सिसुरूप खरारी॥
[माताका] शरीर पुलकित हो गया, मुखसे वचन नहीं निकलता। तब आँखें मूंदकर उसने श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें सिर नवाया। माताको आश्चर्यचकित देखकर खरके शत्रु श्रीरामजी फिर बालरूप हो गये ॥३॥
जगत पिता मैं सुत करि जाना।
हरि जननी बहुबिधि समुझाई।
यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई॥
[मातासे] स्तुति भी नहीं की जाती। वह डर गयी कि मैंने जगतपिता परमात्माको पुत्र करके जाना। श्रीहरिने माताको बहुत प्रकारसे समझाया [और कहा-] हे माता! सुनो, यह बात कहींपर कहना नहीं ॥ ४॥
अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि॥२०२॥
कौसल्याजी बार-बार हाथ जोड़कर विनय करती हैं कि हे प्रभो ! मुझे आपकी माया अब कभी न व्यापे॥२०२॥
अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा॥
कछुक काल बीतें सब भाई।
बड़े भए परिजन सुखदाई॥
भगवानने बहुत प्रकारसे बाललीलाएँ की और अपने सेवकोंको अत्यन्त आनन्द दिया। कुछ समय बीतनेपर चारों भाई बड़े होकर कुटुम्बियोंको सुख देनेवाले हुए॥१॥
बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई॥
परम मनोहर चरित अपारा ।
करत फिरत चारिउ सुकुमारा।
तब गुरुजीने जाकर चूडाकर्म-संस्कार किया। ब्राह्मणोंने फिर बहुत-सी दक्षिणा पायी। चारों सुन्दर राजकुमार बड़े ही मनोहर अपार चरित्र करते फिरते हैं ॥२॥
दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई॥
भोजन करत बोल जब राजा ।
नहिं आवत तजि बाल समाजा॥
जो मन, वचन और कर्मसे अगोचर हैं, वही प्रभु दशरथजीके आँगनमें विचर रहे हैं। भोजन करनेके समय जब राजा बुलाते हैं, तब वे अपने बालसखाओंके समाजको छोड़कर नहीं आते॥३॥
ठुमुकु ठुमुकु प्रभु चलहिं पराई॥
निगम नेति सिव अंत न पावा ।
ताहि धरै जननी हठि धावा॥
कौसल्याजी जब बुलाने जाती हैं, तब प्रभु ठुमुक-ठुमुक भाग चलते हैं। जिनका वेद 'नेति' (यह नहीं अथवा इतना ही नहीं) कहकर निरूपण करते हैं और शिवजीने जिनका अन्त नहीं पाया, माता उन्हें हठपूर्वक पकड़नेके लिये दौड़ती हैं ॥४॥
भूपति बिहसि गोद बैठाए॥
वे शरीरमें धूल लपेटे हुए आये और राजाने हँसकर उन्हें गोदमें बैठा लिया॥५॥
भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ॥२०३॥
भोजन करते हैं पर चित्त चञ्चल है। अवसर पाकर मुँहमें दही-भात लपटाये किलकारी मारते हुए इधर-उधर भाग चले ॥२०३॥
सारद सेष संभु श्रुति गाए।
जिन्ह कर मन इन्ह सन नहिं राता ।
ते जन बंचित किए बिधाता॥
श्रीरामचन्द्रजीकी बहुत ही सरल (भोली) और सुन्दर (मनभावनी) बाललीलाओं का सरस्वती, शेषजी, शिवजी और वेदोंने गान किया है। जिनका मन इन लीलाओं में अनुरक्त नहीं हुआ, विधाताने उन मनुष्योंको वशित कर दिया (नितान्त भाग्यहीन बनाया)॥१॥
दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥
गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई ।
अलप काल बिद्या सब आई॥
ज्यों ही सब भाई कुमारावस्थाके हुए, त्यों ही गुरु, पिता और माताने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया। श्रीरघुनाथजी [भाइयोंसहित] गुरुके घरमें विद्या पढ़ने गये और थोड़े ही समयमें उनको सब विद्याएँ आ गयीं ॥२॥
सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥
बिद्या बिनय निपुन गुन सीला ।
खेलहिं खेल सकल नृप लीला।।
चारों वेद जिनके स्वाभाविक श्वास हैं, वे भगवान पढ़ें यह बड़ा कौतुक (अचरज) है। चारों भाई विद्या, विनय, गुण और शीलमें [बड़े] निपुण हैं और सब राजाओंकी लीलाओंके ही खेल खेलते हैं॥३॥
देखत रूप चराचर मोहा।।
जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई।
थकित होहिं सब लोग लुगाई॥
हाथोंमें बाण और धनुष बहुत ही शोभा देते हैं । रूप देखते ही चराचर (जड़ चेतन) मोहित हो जाते हैं। वे सब भाई जिन गलियोंमें खेलते [हुए निकलते] हैं, उन गलियोंके सभी स्त्री-पुरुष उनको देखकर स्नेहसे शिथिल हो जाते हैं अथवा ठिठककर रह जाते हैं।॥ ४॥
प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल॥२०४॥
कोसलपुरके रहनेवाले स्त्री, पुरुष, बूढ़े और बालक सभीको कृपालु श्रीरामचन्द्रजी प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय लगते हैं । २०४॥
बन मृगया नित खेलहिं जाई॥
पावन मृग मारहिं जियँ जानी ।
दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी॥
श्रीरामचन्द्रजी भाइयों और इष्ट-मित्रोंको बुलाकर साथ ले लेते हैं और नित्य वनमें जाकर शिकार खेलते हैं। मनमें पवित्र समझकर मृगोंको मारते हैं और प्रतिदिन लाकर राजा (दशरथजी) को दिखलाते हैं॥१॥
ते तनु तजि सुरलोक सिधारे।
अनुज सखा सँग भोजन करहीं।
मातु पिता अग्या अनुसरहीं।
जो मृग श्रीरामजीके बाणसे मारे जाते थे, वे शरीर छोड़कर देवलोकको चले जाते थे। श्रीरामचन्द्रजी अपने छोटे भाइयों और सखाओंके साथ भोजन करते हैं और माता पिताकी आज्ञाका पालन करते हैं ॥ २॥
करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा।
बेद पुरान सुनहिं मन लाई ।
आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥
जिस प्रकार नगरके लोग सुखी हों, कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजी वही संयोग (लीला) करते हैं। वे मन लगाकर वेद-पुराण सुनते हैं और फिर स्वयं छोटे भाइयोंको समझाकर कहते हैं ॥३॥
मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥
आयसु मागि करहिं पुर काजा।
देखि चरित हरषइ मन राजा॥
श्रीरघुनाथजी प्रात:काल उठकर माता-पिता और गुरुको मस्तक नवाते हैं और आज्ञा लेकर नगरका काम करते हैं। उनके चरित्र देख-देखकर राजा मनमें बड़े हर्षित होते हैं ॥४॥
भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप ।। २०५॥
जो व्यापक, अकल (निरवयव), इच्छारहित, अजन्मा और निर्गुण हैं; तथा जिनका न नाम है न रूप, वही भगवान भक्तोंके लिये नाना प्रकारके अनुपम (अलौकिक) चरित्र करते हैं । २०५॥
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