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श्रीरामचरितमानस अर्थात् तुलसी रामायण बालकाण्ड)

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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में भी मनोहारी कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।


भगवान का वरदान



दो०- जानि सभय सुर भूमि सुनि बचन समेत सनेह।
गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह ॥१८६॥


देवता और पृथ्वीको भयभीत जानकर और उनके स्नेहयुक्त वचन सुनकर शोक और सन्देहको हरनेवाली गम्भीर आकाशवाणी हुई- ॥ १८६॥



जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा ।
तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥
अंसन्ह सहित मनुज अवतारा ।
लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥

हे मुनि, सिद्ध और देवताओंके स्वामियो! डरो मत। तुम्हारे लिये मैं मनुष्यका रूप धारण करूँगा और उदार (पवित्र) सूर्यवंशमें अंशोंसहित मनुष्यका अवतार लूँगा॥१॥

कस्यप अदिति महातप कीन्हा ।
तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥
ते दसरथ कौसल्या रूपा।
कोसलपुरी प्रगट नर भूपा॥


कश्यप और अदितिने बड़ा भारी तप किया था। मैं पहले ही उनको वर दे चुका हूँ। वे ही दशरथ और कौसल्याके रूपमें मनुष्योंके राजा होकर श्रीअयोध्यापुरीमें प्रकट हुए हैं ॥२॥

तिन्ह के गृह अवतरिहउँ जाई ।
रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥
नारद बचन सत्य सब करिहउँ ।
परम सक्ति समेत अवतरिहउँ॥


उन्हींके घर जाकर मैं रघुकुलमें श्रेष्ठ चार भाइयोंके रूपमें अवतार लूँगा। नारदके सब वचन मैं सत्य करूँगा और अपनी पराशक्तिके सहित अवतार लूँगा ॥३॥

हरिहउँ सकल भूमि गरुआई।
निर्भय होहु देव समुदाई॥
गगन ब्रह्मबानी सुनि काना।
तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना॥


मैं पृथ्वीका सब भार हर लूंगा। हे देववृन्द! तुम निर्भय हो जाओ। आकाशमें ब्रह्म (भगवान) की वाणीको कानसे सुनकर देवता तुरंत लौट गये। उनका हृदय शीतल हो गया ॥ ४ ॥

तब ब्रह्माँ धरनिहि समुझावा ।
अभय भई भरोस जियँ आवा॥


तब ब्रह्माजीने पृथ्वीको समझाया। वह भी निर्भय हुई और उसके जीमें भरोसा (ढाढ़स) आ गया ॥५॥

दो०- निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ।
बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ॥१८७॥

देवताओंको यही सिखाकर कि वानरोंका शरीर धर--धरकर तुमलोग पृथ्वीपर जाकर भगवानके चरणोंकी सेवा करो, ब्रह्माजी अपने लोकको चले गये। १८७॥



गए देव सब निज निज धामा ।
भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा॥
जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा ।
हरणे देव बिलंब न कीन्हा॥


सब देवता अपने-अपने लोकको गये। पृथ्वीसहित सबके मनको शान्ति मिली। ब्रह्माजीने जो कुछ आज्ञा दी, उससे देवता बहुत प्रसन हुए और उन्होंने [वैसा करनेमें] देर नहीं की॥१॥

बनचर देह धरी छिति माहीं।
अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं॥
गिरि तरु नख आयुध सब बीरा ।
हरि मारग चितवहिं मतिधीरा॥


पृथ्वीपर उन्होंने वानरदेह धारण की। उनमें अपार बल और प्रताप था। सभी शूरवीर थे; पर्वत, वृक्ष और नख ही उनके शस्त्र थे। वे धीर बुद्धिवाले [वानररूप देवता] भगवानके आनेकी राह देखने लगे॥२॥

गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी।
रहे निज निज अनीक रचि रूरी॥
यह सब रुचिर चरित मैं भाषा ।
अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा॥


वे [वानर] पर्वतों और जंगलोंमें जहाँ-तहाँ अपनी-अपनी सुन्दर सेना बनाकर भरपूर छा गये। यह सब सुन्दर चरित्र मैंने कहा। अब वह चरित्र सुनो जिसे बीचहीमें छोड़ दिया था॥३॥

अवधपुरी रघुकुलमनि राऊ ।
बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ।
धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी ।
हृदयँ भगति मति सारँगपानी॥


अवधपुरीमें रघुकुलशिरोमणि दशरथ नामके राजा हुए, जिनका नाम वेदोंमें विख्यात है। वे धर्मधुरन्धर, गुणोंके भण्डार और ज्ञानी थे। उनके हृदयमें शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले भगवानकी भक्ति थी, और उनकी बुद्धि भी उन्हींमें लगी रहती थी॥४॥

दो०- कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत।।
पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत ॥१८८॥

उनकी कौसल्या आदि प्रिय रानियाँ सभी पवित्र आचरणवाली थीं। वे [बड़ी] विनीत और पतिके अनुकूल [चलनेवाली] थी और श्रीहरिके चरणकमलोंमें उनका दृढ़ प्रेम था॥ १८८॥


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