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श्रीरामचरितमानस अर्थात् तुलसी रामायण बालकाण्ड)

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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में भी मनोहारी कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।

खल-वन्दना

बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ।
जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ।।
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें।
उजरें हरष बिषाद बसेरें।

अब मैं सच्चे भावसे दुष्टोंको प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करनेवालेके भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों के हित की हानि ही जिनकी दृष्टिमें लाभ है, जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है ॥१॥

हरि हर जस राकेस राहु से।
पर अकाज भट सहसबाहु से।
जे पर दोष लखहिं सहसाखी।
पर हित घृत जिन्ह के मन माखी।


जो हरि और हर के यशरूपी पूर्णिमाके चन्द्रमा के लिये राहु के समान हैं (अर्थात् जहाँ कहीं भगवान विष्णु या शङ्कर के यश का वर्णन होता है, उसी में वे बाधा देते हैं) और दूसरों की बुराई करने में सहस्रबाहु के समान वीर हैं। जो दूसरों के दोषों को हजार आँखों से देखते हैं और दूसरों के हितरूपी घी के लिये जिनका मन मक्खी के समान है (अर्थात् जिस प्रकार मक्खी घी में गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरों के बने-बनाये काम को अपनी हानि करके भी बिगाड़ देते हैं)॥२॥

तेज कृसानु रोष महिषेसा।
अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
उदय केत सम हित सबही के।
कुंभकरन सम सोवत नीके।

जो तेज (दूसरोंको जलानेवाले ताप) में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं, पाप और अवगुणरूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं, जिनकी बढ़ती सभी के हित का नाश करने के लिये केतु (पुच्छल तारे) के समान है, और जिनके कुम्भकर्ण की तरह सोते रहने में ही भलाई है॥३॥

पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं।
जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं।
बंदउँ खल जस सेष सरोषा।
सहस बदन बरनइ पर दोषा॥

जैसे ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरों का काम बिगाड़ने के लिये अपना शरीर तक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टोंको [हजार मुखवाले] शेषजी के समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराये दोषों का हजार मुखों से बड़े रोष के साथ वर्णन करते हैं ॥ ४ ॥

पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना।
पर अघ सुनइ सहस दस काना।
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही।
संतत सुरानीक हित जेही।

पुन: उनको राजा पृथु (जिन्होंने भगवानका यश सुननेके लिये दस हजार कान मांगे थे) के समान जानकर प्रणाम करता हूँ, जो दस हजार कानोंसे दूसरोंके पापोंको सुनते हैं। फिर इन्द्रके समान मानकर उनकी विनय करता हूँ, जिनको सुरा (मदिरा) नीकी और हितकारी मालूम देती है [इन्द्रके लिये भी सुरानीक अर्थात् देवताओं की सेना हितकारी है] ॥५॥

बचन बज्र जेहि सदा पिआरा।
सहस नयन पर दोष निहारा।।

जिनको कठोर वचनरूपी वज्र सदा प्यारा लगता है और जो हजार आँखों से दूसरों के दोषों को देखते हैं॥६॥

दो०-- उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥४॥

दुष्टोंकी यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसीका भी हित सुनकर जलते हैं। यह जानकर दोनों हाथ जोड़कर यह जन प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है॥४॥

मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा।
तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
बायस पलिअहिं अति अनुरागा।
होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥

मैंने अपनी ओर से विनती की है, परन्तु वे अपनी ओर से कभी नहीं चूकेंगे। कौओं को बड़े प्रेमसे पालिये, परन्तु वे क्या कभी मांसके त्यागी हो सकते हैं? ॥१॥

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